शुक्रवार, 21 दिसंबर 2012

मार्क्सवाद क्या है ? - 1





हम सभी ने बचपन में प्रारंभिक विज्ञान पढ़ा है, जिसने भी कोई प्रारंभिक शिक्षा ली है वो इंसान  संसार जीव जन्तुओ का विकास और सामान्य भौतिकी के नियम से शायद ही अनभिज्ञ  होगा। अगर इंसानी सभ्यता के प्रादुर्भाव से लेकर अब तक के विज्ञान को देखे तो ऐसा लगता है की मानव ने अत्यधिक प्रगति करी है,लेकिन एक के बाद एक रहस्यों को सुलझाने के बाद भी मानव तमाम और सवालों से घिरता गया और खोज अभी भी जारी है। खोजे  जा चुके सिधान्तो के आधार पर अविष्कारों और साथ साथ विज्ञान के नये नियमो  की खोज हमेशा चलती रहती है। आज जबकि हम ये तक जान चुके है की कणों को आपस में जोड़े रखने के लिए भी एक और कण हिग्स बोसॉन की जरुरत होती है, तब भी दुनिया के महान वैज्ञानिक सर स्टीफन हाकिंग्स ये कहते है की शायद इंसान भौतिकी विज्ञान के सभी नियमो को नहीं खोज पायेगा। जो की ये दर्शाता है की विज्ञान एक नितांत अंतहीन यात्रा है , जिसका सतत विकास करना ही मानव समाज के पास एकमात्र विकल्प है। क्योंकि ये दुनिया , आकाश गंगा और सारा ब्रह्माण्ड, तमाम रहस्यों और अनसुलझे सवालों से भरा पड़ा है. ये ब्रह्माण्ड जो की अदभुत है, अंतहीन है , सुन्दर है , हमेशा बदलते रहने वाला है , भयानक है , और हिंसक भी है।
कहने का मतलब है की विज्ञान एक ऐसी शाखा है जिसका चरित्र किसी भी परिधि में बांधा नहीं जा सकता, ये एक सतत विकसित होने वाली अंतहीन प्रक्रिया है। जब इंसान ने पहली बार अपने दोनों हाथो को एक कटोरे की तरह जोड़कर अंजुली बना कर पानी पिया होगा और ये जाना होगा की ये भी एक तरीका है पानी और तरल चीजो जो नियंत्रित करने का, विज्ञान शायद उससे भी कही पहले से ही शुरू हो गया होगा।या कह सकते है की ये सिर्फ वैज्ञानिक बोध का एक चरण रहा होगा जब आदिम समाज ने विज्ञान के सहारे अपना जीवन सरल बने की दिशा में एक कदम बढाया होगा।इसी विकास के क्रम के चलते समय समय पर मानव समाज में कई वैज्ञानिक पैदा हुए और उन्होंने विज्ञान के इन रहष्यो को खोजने में अपना अपना योगदान दिया जैसे की इस दुनिया को न्यूटन के दिये गति के नियम या अल्बर्ट आइन्स्ताइन और सर स्टीफन हव्किंस तथा ओर भौतिक वैज्ञानिको के दिये नियम विज्ञान की खोज का एक चरण है .मतलब ये नियम इस दुनिया मी हमेशा से हि थे , बस इन नामचीन ओर प्रखर वैग्यानिको ने ये नियम खोज कर मानव समाज को दे दिये. अब अगर हम कल्पना करे कि  न्यूटन या अल्बर्ट आइन्स्ताइन और सर स्टीफन हव्किंस इस दुनिया में  कभी पैदा हि न होते तो क्या मानव सभ्यता कभी इन नियमो से अवगत हो पाती .
इसका जवाब है -- "हां" . बस शायद इस स्तिथी मी ये हो सकता था कि इन्हे खोज्ने  वालो के नाम शायद अलग होते जैसे कि प्रोफेसर शरद सक्सेना''s " Law of motion , और प्रोफेसर यशपाल कि आण्विक थ्योरी ...आदी आदी,
इस प्रकार दुनिया में हर चीज बदलती रहती है और वो सब विज्ञान की किसी न किसी शाखा के ज्ञात या अज्ञात नियमो से बंधी होती है। ज्ञात वो, जो की हमें पता चल चुके है, और अज्ञात वो जो की नहीं पता चले है या सकारात्मक रूप में कहे तो वो नियम जो हमें भविष्य में पता चलेंगे।
इसी तऱ्ह मानव समाज जो की हमेशा बदलता रहता है वो भी कुछ नियमो के तहत ही आगे की और प्रगति करता है या बदलता रहता है। इन समाज के नियमो की आज तक अलग अलग वैज्ञानिको / दर्शन शास्त्रियों ने अपने समय में अलग अलग रूप में व्याख्या करी है। परन्तु इन सभी व्यख्यायाओ में एक ऐसी चीज का समावेश था जिसकी वजह से हम इन समाज के बदलने वाले नियमो को विज्ञान की संज्ञा नहीं दे सकते। क्योंकि विज्ञान हमेशा प्रमाण और तर्कों के सहारे ही परखा जाता है,
जैसे की अगर सर आइजक न्यूटन ये कहते की  "कोई भी गतिमान बस्तु तब तक नहीं रूकती जब तक की उस पर कोई बाह्य बल ना लगाया जाए और गतिमान चीजे फिर भी रुक जाती है क्योंकि एक घर्षण बल हमेशा गति के विरुद्ध काम करता है "" तो इसे आप एक विज्ञान मानते है क्योंकि गति के सिद्धांत और घर्षण बल को भी न्यूटन ने विभिन्न प्रयोगों और उद्दराह्नो से प्रतिपादित किया था।और इस सिधांत को हम अपने दिन प्रतिदिन के अनुभव से महसूस भी करते है।
लेकिन आप इसे विज्ञान नहीं बोलते अगर इसी सिधांत को न्यूटन ने कुछ ऐसे दिया होता "कोई भी गतिमान बस्तु तब तब तक गतिमान रहती है अब तक इश्वर उसे चाहता है की वो चलती रहे  और गतिमान चीजे फिर भी रुक जाती है क्योंकि एक एक परमपिता परमेश्वर उसे रोकने की शक्ति रखता है। गति के ये नियम आप सिर्फ महसूस कर सकते है इनके कारण मानव समझ से परे और अनियंत्रित है". तो इसे आप विज्ञान नहीं भाववाद कहेंगे।

इसी प्रकार मानव समाज के सम्बन्ध में अगर हम ये कहे की "आदिमानव ने जब अपने अनुभव से ये जाना की कुछ जानवर हिंसक नहीं होते और उन्हें पाल कर उनका दोहन किया जा सकता है तो उसने जानवरों को पालना शुरू कर दिया और एक जगह टिक कर रहने लगा और खेती का विकास किया .या हम कहे की मानव समाज  में पहले स्त्री पुरुष के सामूहिक शारीरिक सम्बन्ध होते थे लेकिन निजी संपत्ति के कारण जब उस संपत्ति के वारिसो का प्रशन आया तो समाज में एकल विवाह का प्रचलन शुरू हो गया जिसमे की निजी संपत्ति एक ही परिवार को जाने लगी .तब इसे हम मानव समाज की सभ्यता के विकास का विज्ञान कहते है।

तो मानव समाज की ये व्याख्या एक विज्ञान कहलाई जिसमे की सामाजिक बदलाव के कारणों को समाज में होने वाले चेंजेस और संघर्ष की ही परिणिति बताया गया, इस विज्ञान में कोई भी भाववादी तत्व नहीं था जैसे की किसी युग में कोई महापुरुष ने जन्म लिया और इसकी वजह से दुनिया चेज हो गयी, या जब जब इश्वर चाहता है दुनिया चेज होती रहती है आदि आदि।
सत्रहवी शताब्दी तक दुनिया के अलग अलग वैज्ञानिको और दार्शनिको ने दुनिया में मानव समाज की प्रगति की व्याख्यया तो करी लेकिन उनके हर दर्शन में भाववाद या ईश्वरवाद का समावेश था .लेकिन तभी दुनिया में एक ऐसा दार्शनिक आया जिसने इस  दुनिया और मानव समाज में होने वाले परिवर्तनों को किसी तीसरी शक्ति (इश्वर) के द्वारा नियंत्रित करने या प्रभावित करने की पुरानी सब अवधारणाओ को सिरे से नकार दिया।
इस दार्शनिक ने भाववाद को अलग रखकर मानव समाज के विकास की व्याख्यया वहाँ से शुरू की जहा पर से डार्विन ने इसे छोड़ा था। इस दार्शनिक ने डार्विनवाद को अपना आधार बनाया और फिर वो मूल कारण खोज निकला जिससे की मानव समाज लगातार आगे बढ़ता रहता है और फिर एक स्टेज पर आकर समाज पूरी तरह एक नयी अवस्था में चला जाता है।

इस दार्शनिक वैज्ञानिक का नाम था   "कार्ल मार्क्स ".
मार्क्स ने अपने दिए हुए तमाम दर्शनों और सिधान्तो से ये बताया की मानव समाज किस तरह कुछ नियमो के तहत हमेशा चेज होता रहता है .सरल शब्दो में अगर कहा जाये तो मार्क्स वाद वो विज्ञान है जिसके द्वारा ये समझा जा सक्त है कि मानव समाज कैसे एक अवस्था से दुसरी अवस्था में चला जाता है.
कैसे मानव समाज    आदिमानव समाज से कबीलाई अवस्था में चला गया ?  कैसे कबीलाई समाज सामंती समाज में तबदील हो गया ? ओर कैसे सामंती समाज आज के आधौगिक युग में आ गया ? ओर आगे ये समाज कहां जा रहा है या आने वाला मानव समाज कैसा होगा ?? मार्क्सवाद ये भी बताता है  कि  मानव समाज मे ये  परिवर्तन होने के मुख्य कारण क्या होते है .
जैसे कि -  वो क्या कारण थे कि आदिमानव समाज के लोगो ने कबीलाई सभ्यता को अपना लिया ओर खानाबदोष जीवन छोडकर एक जगह टिक कर रहना शुरू कर दिया या वो क्या कारण थे की आदिमानव समाज में स्त्री पुरुष में बहुविवाह सम्बन्ध कैसे  एकल विवाह में चेंज हो गए।?? या वो क्या कारण था कि जनता ने सामंतवाद (राजा या राजशाही ) को खतम करके समाज को industrial स्टेज में ला धकेला.

मार्क्स ने मानव समाज में होने वाले उन मूलभूत चेंजेस को खोज निकाला जो कि समाज को एक स्टेज से दुसरी स्टेज में पहुचाने  के  लिये पूर्ण रूप से जिम्मेदार होते है. 
जैसा कि पहले के दार्शनिको ने बताया था कि समाज को चेंज करने में किसी तिसरी शक्तिं का हाथ होता है या कोई महान इन्सान जनम लेता है ओर उसके प्रभाव में आकर समाज चेंज हो जाता
है.मार्क्स ने इस प्रकार कि अवैज्ञानिक दर्शन को अपने सिद्धान्तो से कंडम किया 
और बताया कि दुनिया में होने वाले सारे परिवर्तनो का कारण इसी दुनिया में मौजूद है और
मानव समाज को कोई भी बाहर से नियंत्रण नही करता/कर सकता .
तो फिर मार्क्सवाद के अनुसार दुनिया में ऐसा क्या है  जिससे ये समाज हमेशा चेंज होता रेहता  है ........?
क्रमश:....................

सोमवार, 17 दिसंबर 2012

विचारधारा की विफलता - या विचारधारा की अज्ञानता ????



फेसबुक पर हमारे एक मित्र दिनेश जी ने कम्युनिस्म के बारे में अपने कुछ विचार रखे .......
मेरे अल्पज्ञान के चलते जितना भी हो सका मैंने उन्हें जवाब देने की कोशिश करी है,,,,,,,इसी पूरी पोस्ट को मैं यहाँ एक लेख के रूप में रख रहा हूँ .

दिनेश जी ने अपने विचार कुछ इस तरह रखे -

कमुनिस्ट विचारधारा की विफलता :-
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जिस जिस देश में कम्युनिस्ट रहा और है उस देश के मजदुर वर्ग का जीवन बद से बत्तर होती चली गई.. रूस / चाइना/वेनेजुएला /भारत(बंगाल / केरल) किसी भी देश / राज्य में कम्युनिस्ट के साशन में सबसे जायदा शोषित वर्ग मजदुर ही रहा, उनको हमेशा अपने हक के लिए संगर्ष करना पड़ा परन्तु किसी भी कम्युनिस्ट नेता ने उनके हालात को सुधारने के लिए कोई प्रयास नहीं किया.. नतीजन पूंजीवाद का पलायन या कम्युनिस्ट विचारधारा को त्याग कर पूंजीवाद के शरण में जाना..आज रूस/चाइना एक पूंजीवाद देश के रूप में उभर रहे हैं.. यह वोही देश हैं जहां लेनिन / माओ के विचार ने देश के अधिकांश लोगो को शोषित होने पर मजबूर कर दिया .पूंजीवादी देशों मे मज़दूरों को संगठन बनाने और हड़ताल का अस्त्र प्राप्त था और है भी.मज़दूरों का यह अधिकार कम्युनिस्ट देशों में तुरन्त समाप्त किया गया. अपनी सुविधाओं औ
र वेतन में वृद्धि के लिए पूंजीवादी देशों में मज़दूरों का हड़ताल पर जाना एक आम बात है, लेकिन कम्युनिस्ट देशों में मज़दूर ऐसा सपने में भी नहीं सोच सकता.जब अमेरिका ने मास्को में अमेरीकी मज़दूरों के जीवन पर एक प्रदर्शनी का आयोजन किया तो रूस के मजदूर आश्चर्यचकित रह गए ,जब उन्होंने देखा कि उनकी तुलना में अमेरिका के मज़दूरों को न केवल सुख-सुविधाएं ही अधिक हैं, उनका जीवन-स्तर भी ऊंचा है . आज भारत में कम्युनिस्ट का नया रूप माओवाद ने ले लिया, कम्युनिस्ट आज भी मार्क्स / एन्ग्लेस / लेनिन के विचारधारा को समझने में नाकाम.. वोह अपने बच्चे/पत्नी के साथ एक ही छत के नीचे रहते हैं...ओर कई कम्युनिस्ट मंदिर/गिरजाघर का चक्कर आये दिन सुबह शाम लगाते हैं.. आज देल्ही में शिला दीक्षित ने ६०० रूपए मासिक आय तय किया ५ जनों के परिवार के लिए. क्या कम्युनिस्ट कभी ६०० रूपए में गुजरा कर पायेगा ?? उनको कितना मासिक आय तय करना चाहिये ५ जनों के परिवारों के लिए ??? कहाँ गया कम्युनिस्ट भारत में ??? कहीं नज़र आये तो जरूर बताइयेगा , एक बार देखना चाहूँगा की वोह दिखने में कैसे होते हैं :)
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दिनेश जी मुझे पता है की आपने ये पूरा लेख और "फिल्म" वाला प्रकरण "विपिन कुमार सिन्हा "के ब्लॉग से कोपी किया है , जो की प्रवक्ता. कॉम में लिखते रहे है....... ..बनिस्बत इसके की उन्हें मार्क्सवाद की कोई समझ ही नहीं है फिर भी वो भोली भली जनता को बरगलाने के लिए कई सालो से कम्युनिस्म के खिलाफ लिखते रहे है ,,,,,,इसमें कोई नयी बात नहीं है.
लेकिन फिर भी आपको शुक्रिया की आपने इसे यहाँ पोस्ट किया ,,,,,,,क्योंकि इसका जवाब देना बहुत जरुरी है,,,,,,,तो मैं एक साथ न लिख कर आपकी पोस्ट की एक एक लाइन का बारी बारी जवाब देना चाहूँगा 
1 - दिनेश त्रिपाठी जी .... आपने कहा -
"जिस जिस देश में कम्युनिस्ट रहा और है उस देश के मजदुर वर्ग का जीवन बद से बत्तर होती चली गई.. रूस / चाइना/वेनेजुएला /भारत(बंगाल / केरल) किसी भी देश / राज्य में कम्युनिस्ट के साशन में सबसे जायदा शोषित वर्ग मजदुर ही रहा, उनको हमेशा अपने हक के लिए संगर्ष करना पड़ा परन्तु किसी भी कम्युनिस्ट नेता ने उनके हालात को सुधारने के लिए कोई प्रयास नहीं किया.. ..."************************************************
सबसे पहली बात ये मानव समाज के बदलने के या एक अवस्था से दूसरी अवस्था में जाने के कुछ नियम होते है,,,इन नियमो को मार्क्स ने बताया था जिस वजह से इनका नाम मार्क्सवाद पड़ा,
कहने का मतलब ये है की मार्क्सवाद एक विज्ञान है जिसके द्वारा हम मानव समाज के परिवर्तित  होते रहने के नियमो को समझ कर उसे सुधार सकते है, ठीक उसी प्रकार जैसे की "हमें पता है की पानी गुरुत्वाकर्षण के कारण नीचे की ओर बहता है,,,तो हम उसे रोक कर डैम बनाकर बिजली का उत्पादन करते है।......तो जबकि ये विज्ञान है और जब आप किसी विज्ञान के सिद्धांतो के आधार पर कोई प्रयोग करते है तो उसमे आप कभी सफल होते हो,,और कही असफल और कभी आंशिक रूप से आपको सफलता मिलती है। इस स्थिथि में आप विज्ञान के नियमो को दोष नहीं ,,दे सकते,,बल्कि आपका प्रयोग का गलत तरीका आपको असफलता दिलाता है।
इसीलिए अगर चीन में या रूस में समाजवाद / कम्युनिस्म विफल होता है तो इस हार की  जिम्मेदारी वह के कम्यूनिस्टो की है,,,, पर  "ये कम्युनिस्म विचारधारा या मार्क्स के सिद्धांतो की हार नहीं है"

तो आपकी इस बात से मैं सहमत हूँ की ...."किसी भी कम्युनिस्ट नेता ने उनके हालात को सुधारने के लिए कोई प्रयास नहीं किया"...
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2 - दिनेश त्रिपाठी जी.....आपने कहा -
"'नतीजन पूंजीवाद का पलायन या कम्युनिस्ट विचारधारा को त्याग कर पूंजीवाद के शरण में जाना..आज रूस/चाइना एक पूंजीवाद देश के रूप में उभर रहे हैं.. यह वोही देश हैं जहां लेनिन / माओ के विचार ने देश के अधिकांश लोगो को शोषित होने पर मजबूर कर दिया.""
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यहाँ पर ऐसा कुछ भी नहीं है की किसी को किसी सिस्टम की शरण में जाना पड़ा,,,,,,,,,,अगर आपने मार्क्सवाद का Historical Materialism पढ़ा  हो तो शायद आप ये समझ पायेंगे की मार्क्स ने मानव समाज की   "एतिहासिक द्वंदवाद या Dialectical Materialism" के हिसाब से व्याख्यया की है, ,,इसके अनुसार मानव समाज में जो भी व्यवस्था ज्यादा ताकतवर होती है वो दूसरी व्यवस्था पर हावी हो जाती है,,,,ठीक इसी तरह जैसे की हमारे शरीर में जब तक पॉजिटिव सेल ज्यादा एक्टिव या जिन्दा रहते है ,,तब तक हमारा शरीर भी जिन्दा रहता है,,,और जब नकारात्मक रेजिस्टेंट पावेर हावी हो जाती है तो हम मर जाते है,,,या बीमार हो जाते है। आज रूस या चीन में अगर वहा की सरकार या कुछ विशेष पूंजीवादी गुट आज ताकतवर हो गए है तो इसका सिर्फ एक मतलब है की वह पर कम्युनिस्म को लागू करने वाली शक्तिया कमजोर हुई है /या हो गयी थी /या उन्होंने गलतिया करी थी।,,जिस वजह से पूंजीवादी उत्पादन सिस्टम दोबारा से ताकतवर बन कर उभर कर वापस आ गया।,,जिस दिन क्रांतिकारी शक्तिया उनसे ताकतवर हो जायेंगी ,,वो पूंजीवाद को दोबारा उखाड़ फेकेंगी,,,और ऐसा होकर ही रहेगा,,,,,क्योंकि ये भी मार्क्सवाद का ही नियम है जैसे की मानव समाज ने कबीलाई अवस्था को पार करके सामंत वादी/ राजशाही  स्टेज में प्रवेश किया और फिर पूंजीवाद ने सामंतवाद या राजशाही  को उखाड़ कर फेक दिया था,,,,,,,इसी प्रकार पूंजीवाद से अगली स्टेज समाजवाद है जिसका आना पक्का है,,,,आज या कल ,,,या फिर 50-100,, या 150 साल बाद।
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3 - दिनेश त्रिपाठी जी आपने कहा -
""पूंजीवादी देशों मे मज़दूरों को संगठन बनाने और हड़ताल का अस्त्र प्राप्त था और है भी.मज़दूरों का यह अधिकार कम्युनिस्ट देशों में तुरन्त समाप्त किया गया. अपनी सुविधाओं और वेतन में वृद्धि के लिए पूंजीवादी देशों में मज़दूरों का हड़ताल पर जाना एक आम बात है, लेकिन कम्युनिस्ट देशों में मज़दूर ऐसा सपने में भी नहीं सोच सकता. ''"
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शायद आपको पता होगा की  पूंजीवादी समाज में हड़ताल होने का मुख्या कारण होता है की बाजार में चीजो की माग के अनुसार अपना मुनाफा मेंटेन करने के लिए निजी मालिकाने वाले मिल मालिक उत्पादन को घटाते या बढाते रहते है ,,,और बाजार में दुसरे competition  जिसकी वजह से उन्हें मुनाफा ज्यादा से ज्यादा करने के लिए कभी कभी छटनी , मजदूरों से ओवर टाइम , और उनका शोषण करना होता है,,,,,,,,जिस वजह से मजदूर वर्ग हड़ताल और "बंद " जैसे रास्ते अपनाता है.
समाज वादी उत्पादन व्यवस्था में निजी मुनाफे को बढाने के लिए ऐसी कोई भी चीज नहीं होती और उत्पादन जनता की जरूरतों के हिसाब से होता है ..........इसीलिए हड़ताल की कोई गुंजाइश नहीं बचती।

अधिकतर लोगो को शायद  ये जानकारी नहीं होती है की कम्युनिस्ट देशो में उत्पादन का तरीका क्या होता है और उत्पादन के साधनों (कारखानों, फार्म हाउस , खनिज और कोयले लोहे की खाने ..etc .) पर किसका अधिकार होता है ,
आपकी जानकारी के लिए बता देता हूँ की समाजवादी उत्पादन व्यवस्था में उत्पादन के साधनों पर जनता का हक़ होता है और कोई भी उत्पादन निजी मुनाफे के लिए नहीं होता है,,,,,,,,इसीलिए वहा पर उत्पादन व्यवस्था में मजदूरों का शोषण , कम मजदूरी, छटनी , जैसी कोई भी चीज नहीं होती और जनता को रोजगार देना और पूरी मजदूरी देना सरकार की जिम्मेदारी होती है, ..तो ऐसी व्यवस्था में "हड़ताल " की कोई संभावना नहीं रह जाती,,,क्योंकि मजदूर वर्ग को पता होता है की अगर उनकी नौकरी चली भी जाएगी तो भी उनका घर और जीवन चलाने के लिए उन्हें सरकार से भत्ता मिलता रहेगा ,,,जबकि पूंजीवाद में ऐसा नहीं होता है।
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4 - दिनेश त्रिपाठी जी आपने कहा  -- 
"जब अमेरिका ने मास्को में अमेरीकी मज़दूरों के जीवन पर एक प्रदर्शनी का आयोजन किया तो रूस के मजदूर आश्चर्यचकित रह गए ,जब उन्होंने देखा कि उनकी तुलना में अमेरिका के मज़दूरों को न केवल सुख-सुविधाएं ही अधिक हैं, उनका जीवन-स्तर भी ऊंचा है."****************************************************************
मुझे पता है की आपने ये पूरा लेख और "फिल्म" वाला प्रकरण "विपिन कुमार सिन्हा "के ब्लॉग से कोपी किया है , जो की प्रवक्ता. कॉम में लिखते रहे है....... ..बनिस्बत इसके की उन्हें मार्क्सवाद की कोई समझ ही नहीं है फिर भी वो भोली भली जनता को बरगलाने के लिए कई सालो से कम्युनिस्म के खिलाफ लिखते रहे है ,,,,,,इसमें कोई नयी बात नहीं है 
ऐसी कोई भी फिल्म कभी नहीं दिखाई गयी,,,और अगर दिखाई भी गयी होगी तो वो सिर्फ एक समाजवादी व्यवस्था को बदनाम और पूंजीवादी सिस्टम को कायम करने के लिए किया गया हथकंडा होता है .........क्योंकि 1950 से लेकर 1990 तक शीत युद्ध के दौरान रूस में बाहरी मीडिया के आने पर प्रतिबन्ध था और कोई भी अमेरिकी मीडिया कभी भी रूस में घुस ही नहीं पाया .
और रूस में मजदूरों की क्या स्तिथि थी इसे जानना हो तो आप किसी ऐसे व्यक्ति से मिलिए और बात करिए जिसने कभी 80 के दशक में रूस की यात्रा करी हो,,,,तो आपको पता चल जायेगा की साम्यवादी रूस जब अपने टूटने की कगार पर था तब भी वह के मजदूर दुनिया के बाकी मजदूरों से बेहतर हालात में थे .
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5 - दिनेश त्रिपाठी जी .... आपने कहा -
"आज भारत में कम्युनिस्ट का नया रूप माओवाद ने ले लिया, कम्युनिस्ट आज भी मार्क्स / एन्ग्लेस / लेनिन के विचारधारा को समझने में नाकाम..  
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"आज भारत में कम्युनिस्ट का नया रूप माओवाद ने ले लिया",,,,,,,,,ये आपने खुद लिखा है या कही से कोपी किया है ...मैं नहीं जानता ,,,,लेकिन जहा तक मैं समझ पा रहा हूँ आप शायद ये कहना  चाहते है की "आज भारत में कम्युनिस्म का रूप माओवाद ने ले लिया है",......
अगर ऐसा है तो आप बिलकुल सही कह रहे है ,,,,,,,,क्योंकि जिसे मार्क्सवाद की जरा भी समझ है वो ये जानता है की मार्क्सवाद एक सतत विकसित होते रहने वाला विज्ञान है ,,,,कार्ल मार्क्स ने अपने जीवन में सिर्फ पूंजीवाद तक ही बता पाए थे क्योंकि उनके जीवित् रहते तक  साम्र्ज्यावाद अपने शिशु अवथा में ही था,,,,20वी शताब्दी के शुरू होने तक साम्रज्यवाद ( Imperialism ) फैलना शुरू हो गया था,,,,,,,तब मार्क्स और अन्गेल्स की मृत्यु के बाद लेनिन ने मार्क्स वाद को  उसमे नए सिद्धांत जोड़े,,जिन्हें लेनिन वाद कहा गया , वो सिद्धांत थे (साम्राज्यवाद - पूंजीवाद की चरम अवस्था) Imperialism – A highest stage of Capitalism .

इस्सी प्रकार कामरेड माओत्सेतुंग ने साम्राज्यावादी सम्माज में लेनिनवाद को आगे बढाते हुए - जनयुद्ध और सांस्कृतिक क्रांति को चलाकर पूंजीवाद और नव-उपनिवेशवाद से लड़ने और साम्यवाद की तरफ बढ़ने के नए नियम दिए ....जिन्हें माओवाद कहा गया,
इस प्रकार "लेनिनवाद और माओवाद " का विचाराधार और अंतिम लक्ष्य वोही है जो मार्क्सवाद कहता है।,,,,,,,इसीलिए लेनिनवाद और माओवाद और कुछ नहीं बल्कि मार्क्सवाद का ही एक विकसित  रूप है,...........अगर कल आप इन सिद्धांतो में कुछ और सिद्ध्हंत जोड़ देते है तो वो भी "दिनेश त्रिपाठी-वाद" या मार्क्सवाद ही कहलायेगा।
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6 - दिनेश त्रिपाठी जी .... आपने कहा -
"वोह अपने बच्चे/पत्नी के साथ एक ही छत के नीचे रहते हैं...ओर कई कम्युनिस्ट मंदिर/गिरजाघर का चक्कर आये दिन सुबह शाम लगाते हैं.. आज देल्ही में शिला दीक्षित ने ६०० रूपए मासिक आय तय किया ५ जनों के परिवार के लिए. क्या कम्युनिस्ट कभी ६०० रूपए में गुजरा कर पायेगा ?? उनको कितना मासिक आय तय करना चाहिये ५ जनों के परिवारों के लिए ??? कहाँ गया कम्युनिस्ट भारत में ??? कहीं नज़र आये तो जरूर बताइयेगा , एक बार देखना चाहूँगा की वोह दिखने में कैसे होते हैं."
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भारत में मार्क्सवाद की खाल ओढ़े बैठे इन नकली कम्यूनिस्टो के बारे में आपकी ये बात बिलकुल सही है,,,,,,मैं भी आपकी इसस बात से सहमत हूँ।
लेकिन आज भी भारत में हजारो क्रांतिकारी साथी मार्क्सवाद,लेनिनवाद,माओवाद के विचारों को अपनाकर व्यवस्था परिवर्तन के लिए संघर्ष कर रहे है,,,,,,,,,,अब ये आपके ऊपर निर्भर करता है की आप उन्हें पहचान पाते हो या नहीं।

गुरुवार, 13 दिसंबर 2012

मेरा बचपन




बचपन की बाते और यादे कभी कभी हिलोरे मारती है तो मन में अजीब अजीब से ख्याल आते है ,,कभी जहन  में गुस्सा और कभी चेहरे पर मुस्कराहट फ़ैल जाती है, कभी कभी उन्ही वाक्यात को याद करके अपने को सुधरने की कोशिश करता हूँ,,तो कभी अपनी बेटी को देखकर सोचता हूँ की शायद मैं भी कभी इसी की उम्र का रहा होऊंगा और मेरा बचपन इससे कितना अलग था,,,,,,लेकिन फिर अपने माँ बाप का बचपन सोच कर प्रगतिवादी सोच को अपने ऊपर हावी कर लेता हूँ।।।की ये तो लगा धन्धा है ,,,चलता रहेगा शायद मेरे बच्चो के बच्चो का बचपन इनसे भी जुदा होगा, खैर बात अपनी चली है तो थोडा स्वार्थी बना जाँये ,,,और कुछ अपने ही बारे में क्यों ना लिखा जाए ....
शायद मेरे इस लेख को वो लोग अच्छे से समझ पायेंगे जिन लोगो का जनम आर्थिक उदारीकरण आने से बहुत पहले 1975 के आस पास (प्लस माइनस 5 साल)  बुनियाद, मालगुडी डेज , ,,,,या weston , Taxla ,और Uptron टीवी वाले जमाने में हुआ था .
ये वो टाइम था जब सन्डे को दीप्ती नवल या नसीरुद्ददीन शाह की पिक्चर आने का मतलब हम बच्चो के लिये एक बहुत बड़ा मानसिक आघात माना जाता था।  उस समय सिर्फ " अमिता बच्चन (not अमिताभ ), मिथुन्न और धरमेंदर की पिक्चरे ही स्वीकार्य होती थी।...और "नगीना" "वतन के रखवाले" ओर मर्द जैसी  पिक्चर को जिसने 4-5 बार से कम देखा हो उसे कोई भाव नहीं दिया जाता था।हम भी उन बच्चो में हुआ करते थे जो घर में मेहमानों के आते ही दुसरे कमरे के किसी कोने में दुबक के चुपचाप बैठ जाया करते थे.,,,और डरते थे की कही अंकल ने बुला कर नाम पूछ लिया तो क्या कहेंगे। कभी कभार मम्मी बाजार से सामान मंगवाती थी तो उसमे से एक दो रुपये की डंडी मार के अगले दिन स्कूल में छोले चावल खाया करते थे,,,और गलती से घर में पता चल जाए तो ,,सुतान पक्का। आजकल कई न्यूज़ आती है की फलां बच्चे ने एग्जाम में फेल होने पर ये कर लिया ,,,वो कर लिया,,,पर हमारी जमात तो फेल होने पर घर में पड़ने वाली डांट और पिटाई के लिए तैयार होने में बस दो चार घंटे ही लगाती थी।,,सजा के तौर  पर शायद शुक्रवार का चित्रहार नहीं देखने दिया जाता था,,,लेकिन वो भी अगले दिन दोस्त लोग बता देते थे की कौन कौन से गाने आये थे।वो जब सब लोग रात 9 बजे आने वाले एकमात्र सीरियल "इन्तेजार" का इन्तेजार करते थे, और पिक्चर साफ़ ना आने पर हम छत पर चढ़कर एंटीना हिलाया करते थे और छोटी बहने नीचे से चिल्लाती थी ,,भईय्या ...नई आ रहा ,,,नई आया ,,नई आया,,,,,,आ गया, आ गया,  आ गया, चलो निचे आ जाओ अब। ये वो समय था जब सलमा सुलतान और  शम्मी नारंग  8:40 के हिंदी समाचार पढ़ा करते थे।  क्रिकेट के खेल में कैप्टेन वोही बनता था जिसका बैट हुआ करता था ...ये वो समय था VCR  ओर VCP का मतलब एक हि होता था,,,,,और रेस्टोरेंट को सिर्फ होटल और मेन्यु को मीनू बोला जाता था.  शादियों के रिसेप्सन में सबसे ज्यादा भीड़ कॉफ़ी वाली मेज पर हुआ करती थी लोग काफी लेने के बाद भी उसके ऊपर काफी पाउडर डलवाने  के लिये इन्तेजार करते रहते थे . वो समय जब समाज नया नया "चाउमीन" नाम की डिश से अवगत हुआ था जो की उन दिनों हर  शहर के सिर्फ एक ही रेस्टोरेंट में मिला करती थी।और उसे कांटे से खाना एक बहुत बड़ी कला माना जाता था .कुछ ऐसे ही समय में वो ना भूलने वाला बचपन हमने बिताया है,,जब इटली के विश्वकप में फाइनल में हार के बाद माराडोना के साथ हम भी रोये थे। जब हम मिलकर उसे कोसते थे जिसने मैथ नामक विषय बनाया होगा ,,,और इम्तियान में मैथ वाले पेपर के दिन भूकंप या किसी प्राक्रतिक आपदा की कल्पना करते थे। वो दिन जब स्कूल में मास्स्साब कभी कभी कभी किसी बच्चे को इतना धून देते थे की उसकी आँख नाक से पानी निकल जाता था और हालत ऐसी हो जाती थी की जैसे कर्नल गद्दाफी अंत समय में विरोधियो के हाथो बदहवास फंसा पडा था।वो दिन जब विज्ञान के प्रक्टिकल में वर्नियर कलिपर्स की रीडिंग रट्टा  मार के ले जाया करते थे और लेक्लांचे सेल वाला प्रेक्टिकल हमें एटोमिक इन्जिनीरियंग का कोई फलसफा लगता था।...ओर हम यू पी बोर्ड वाले सेन्ट्रल स्कूल वालो को शारीरिक रूप और मानसिक रूप से कमजोर समझते थे ये ही वो समय होते है जहा पर निम्न माध्यम वर्ग के लोग अपने बच्चो की कमिय छुपाने या उनकी खूबिय दिखाने के लिए दूसरो के बच्चो लगभग नीचा दिखाने वाली फब्तिय उनके मुह के सामने , या भरी मेहमानों के बीच ही कर दिया करते थे
अरे ये तो बहुत कमजोर है पढने में,,
अरे इसके गाल इतने पिचके हुए क्यों है,,,,..यार इसके कान तो बिलकुल बंदर कि तऱ्ह है ...
भाई आपका लड़का तो कई सालो से इतने का इतने ही है,,,लम्बा ही नहीं हुआ।।।हमारा लौंडा देखो आप,,,,,,टाँड से चीजे बिना स्टूल लगाए ही निकाल देता है
 अर्रे इसकी हैण्ड  राइटिंग तो बहुत खराब है ...... छमाही में इतने कम नंबर,,,,,,भाई अब तो इसे बोर्ड का देना है,,,,कर पायेगा ये ,,
एक बार मेरे हाथ में कुछ ज्यादा ही चोट लग गयी,,,,तो पडोश के अंकल जी फटाफट आ गए ,,और बोले ,,अरे रे रे ,,जरा दिखाना भाई,,,,,,,अरे रे ,इसका तो लगता है की बोर्ड छुट जाएगा इस बार,,,कैसे लिखेगा ये इम्तियान में ..
कुछ अंकल लोगो की स्टाइल थी की अपने बच्चो की बस प्रशंशा करना ..और उसकी जिद्द को भी खूबी बना के पेश किया जाता था,,,,...जैसे कि - अरे साब  हमारा लड़का तो हजार रूपये से कम का जूता ही नहीं पहनता,,,,,,"ये वो दिन थे जब हम 75 रूपये के पी टी शूज या 125 रूपये के नेपाल से इम्पोर्टेड गोल्डस्टार  के जूते पहनते थे पहनते थे।" , भाई हमारा लड़का तो जब बाजार जाता है ...एक केम्पा  कोला जरूर पीता है,""' ,,,,और तब हम उनका मुह्ह देखते थे की हाय ,,,ये कितना खुशनसीब है,,,,हमें तो एक बार कोल्ड ड्रिंक पी लेते थे तो पूरे गर्मियों के सीजन दुसरे बच्चो को बताते फिरते थे,,,की भाई मेरे चाचा ने मुझे फलां दिन कोल्ड ड्रिंक पिलाई थी।
  .एक बार मैं किसी लोकल बस में था तो मेरे पीछे वाली सीट पर पड़ोस के अंकल बैठे हुए थे ,,वो अपने बच्चो की तारीफ के पुल बाँधने में लगे हुए थे।।।।आजी हमारे लड़के को देखो आप ,,,,मजाल है जो कभी वो आपको अपने कमरे से बाहर दिख जाए, हमेशा पढता रहता है।। ..ओर कभी उसे कहने कि जरुरत नही पडती ,,कि बेटा पढ ले , ओर साब इतना सिंसियर है की उसे कोई मतलब नहीं है खेलने से (ये वो समय था जब खेलना एक नीच और गुंडे लफंगों का काम माना जाता था) ,,,,कोई मतलब नहीं है दोस्तों से,,,..उसे सिर्फ अपनी पढ़ाई से मतलब है,,
अब आप लगा लो की।।। दसवी में फस्टटटट  ..(यहाँ  "ट " शब्द थोडा जोर से , फ़ोर्स लगा कर और आँखे बड़ी बड़ी करके बोला जाता था) ...ग्यारवी में फस्टटटट ....अब देखो बारवी में तो शायद टाप ही कर जाए,,, वो तो कहता है की पापा ...मैं तो बारहवी के बाद  सीधे बरेली जाउंगा ,,,कोचिंग करने,,, मैंने भी बोल दिया ,,बेटा ,,आप बस मेहनत करो,,,बाकी हम पर छोड़ दो।
और बीच में कभी हमारे पर नजर पड़ जाती थी तो फुल्ली ड़ोमिनेटिंग नजरो से पूछते थे,,,अरे तू डोभाल जी  का है ना ...,,,,इधर कहाँ  से तफरी मार के आ रहा है भाई तू (ये वोही अंकल है जो अपने लड़के को थोड़ी देर पहले तक "आप" आप"  कहकर संबोधित कर रहे होते थे)
और जिस किसी के भी रिश्तेदार दिल्ली में रहते थे ,,,तो उनका रुतबा किसी NRI से कम नहीं माना  जाता था,,,,कभी शाम को वोही अंकल जी अपने उन तहेरी बहन के पतीदेव दिल्ली वाले रिश्तेदार को शाम को कालोनी घुमाते हुए मिलते थे तो,,,,,वो दिल्ली वाले रिश्तेदार साहब कमर के पीछे हाथ बाँध कर सड़क के लगभग बीचोबीच खड़े होकर कालोनी और उसके लोगो को ऐसे देखते थे की जैसे प्रिंस चार्ल्स को जिला मुरैना के "गुरैइईया खेड़ा" गाँव में लाकर खड़ा कर दिया होगा,,,,,,,,और गाहे बगाहे जुमला भी मार दिया करते थे,,,,,भाई " डेलही (दिल्ली) में तो मोस्टली हम लोग जल्दी ही डिनर कर लेते है " अरे यहाँ अभी दूरदर्शन ही चलता है,,,,डेलही में तो अब सिर्फ केबल ही चलता है ,,..वापस जाने के समय बस अड्डे में पहुचने के बाद मांग हमेशा डीलक्स बस की ही होती थी।। और ये डेल्ही डेल्ही भी बस तब तक ही चलता था,,,जब तक की वापस छोड़ने के बाद रोडवेज बस मुरादाबाद के आगे तक नहीं पहुच जाती थे,,,उसके बाद तो बस उनके लिए भी दिल्ली ही हो जाता था.
वैसे और पास पडोस के अंकल लोग भी उन रिश्तेदार को भाव चडाने में कोई कोर कसार नहीं छोड़ते थे, भाई आप ठहरे  दिल्ली वाले,,,और ऊपर से सेन्ट्रल गवर्मेंट वाले,,,,,,,,हम यु,पी, वाले तो बस राज्य सरकार के भरोसे है,..और ना चाहते हुए भी ज्यादा से ज्यादा अंग्रेजी के शब्द बोलने की कोशिश करते थे,,..... नहीं जी अब देखिये ये तो कामन सेन्स की बात होती है ....,,,या,,,,भाई वी पी सिंह ने तो ग्रास रूट लेबल पर जाकर काम किया है ....या ,, अरे भाई हमारे सगे फूफा जी के साले साहब आपके ही दिल्ली में रहते है,सेवा नगर में,,,जनवरी में गए थे हम लोग वहा ,,,,भाई आप दिल्ली वाले लोग तो बड़े बीजी रहते है सारे दिन,,,,हमारे बस की तो नहीं है हा हा हा हा हा .
आपकी दिल्ल्ली ,,आपकी दिल्ली ऐसे बोला जाता था की जैसे वाकई दिल्ली उन्ही की होगी,,,, और वो अंकल भी "आपकी दिल्ली' सुनकर ऐसे भाव बनाते थे की जैसे दिल्ली उन्ही की रियासत है और सेवा नगर उनकी दिल्ली रियासत का एक कोई कम जाना पहचाना पिछड़ा दलित  इलाका है।।।...,,,,,,फिर बाद में ,,नहीं हम लोग तो सफदरजंग एन्क्लेव में रहते है।।।यु नो ,,कनाट  प्लेस के पास ही है ..(पास,,,,,,,1० किलोमीटर) . और वो अंकल भी,,हा हा हा ,,याद है मुझे ,,देखा था शायद बस में से ..

ये थी कुछ बाते हमारे बचपन  की ,ये बाते आज से पच्चीस तीस साल पहले की कहानी बयान करती है,,,लेकिन कभी कभी गहराई से देखता हूँ तो लगता है की कुछ ख़ास नहीं बदला हमारा समाज .
आज जबकि हम बड़े हो चुके है तो लगता है की अभी भी सब कुछ वैसा ही है  ,,,हमारे शहरो ने तकनिकी और पहनावे में तो तरक्की करी है लेकिन लोगो की अर्ध सामंती अर्ध्ह पूंजीवादी मानसिकता में कुछ ख़ास परिवर्तन नहीं आया है। अपने विवेक से आज हम अपने बच्चो पर हाथ उठाना गलत मानते है ,,,,,,,,लेकिन अपने और दूसरो के बच्चो में फिर भी कभी कभी कमिया ढूंढ लेते है. लेकिन अच्छा है की हम कोई भी काम करने के बाद या पहले थोडा सोच ही लेते है,लेकिन समाज आज भी उस स्तर तक नहीं पंहुचा है की जहा बच्चो को देश की धरोहर माना जाए और हर बच्चे को सामान दृष्टि से देखा जाए,,,शायद ये अंतर पूंजीवादी समाज में ख़तम होना भी नामुमकिन है .आज भी हम अपने बच्चो को अच्छे से अच्छे स्कूल में पढ़ाने के वावजूद उनकी उन्ही की क्लास के दुसरे बच्चो से तुलना करने लगते है,,,,की फलां तो इतना तेज है पढने में,,,,और ये भेदभाव 4-5 साल की उम्र से ही शुरू हो जाता है,,जहा बच्चा दुनिया में अपने अस्तित्व का कारण शायद "खाना,पीना,सोना,टीवी , माँ पापा का प्यार  और खेलने से ज्यादा कुछ भी नहीं समझ पाता होगा" .रही बडे लोगो कि बात तो वो भी  सभ्य होने का पैमाना सिर्फ अपने हित और सुविधा के हिसाब से की गयी बाते समझते है ,,,और अपने कम्फर्ट जोन से बाहर निकलते ही इंसान दूसरोको गाली देना शुरू कर देता है .
अपना रुतबा दिखाना ,,दूसरो की खुशियों से चिढना, और ना जाने तमाम तरह की असमानताए आज भी घनघोर रूप से समाज में फैली हुई है .
आर्थिक असमानता, वर्गों में विभाजित और मुनाफे के सिद्धान्तो पर  आधारित मानव समाज में संस्कार शायद ऐसे ही फलते फूलते है,

शुक्रवार, 7 दिसंबर 2012

अरविन्द केजरीवाल - "क्रांतिकारी" या जनता के गद्दार

अरविन्द केजरीवाल  - "क्रांतिकारी" या जनता के गद्दार 

पूंजीवादी शोषण के खिलाफ जब जब जनता ने एक साथ मिल कर आंदोलनो कि शुरुआत करी है ,  तब तब शाशक वर्ग ने उसे तोड़ने  के नये नये तरीके ईजाद  किये है और काफी हद  तक सफल भी रहा है।
ये तरीके कई तरह के हो सकते है , पर अधिकतर ऐसे आन्दोलन को कुचलने का सबसे सस्ता और आसान रास्ता होता है फसिस्म , जिसमे जनता शोषक वर्ग के खिलाफ एकजुट होने से पहले ही उसे जात पात , रंग, नस्ल, धर्म क्षेत्रवाद के नाम पर आपस में अंतर्विरोध करके लड़ा दिया जाता है,जनता अपने सामयिक फायदे के लिए कसी भी एक राजनेता या पार्टी के साथ हो लेती है ,और  पूँजीवादी लुटेरे के खिलाफ लड़ने की बजाय आपस में ही लडती रहती है
इसके आलावा गन्दा कल्चर भी एक मुख्य हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है जिसका टारगेट मुख्यतः युवा वर्ग होता है जिसमे उसके सोचने समझाने की शक्ति को कुंद करके उपभोक्तावादी बना दिया जाता है, तब युवा वर्ग देश और जनता की समस्याओं के बारे में सोचने की बजाय नशे बाजी , डिस्को कल्चर ,KFC बरिस्ता जैसी जगहों पर बैठना अपनी शान समझाने लगता है ,या फिर अंध राष्ट्रभक्ति  पैदा की जाती है जिसमे लोग क्रिकेट जैसे खेल को देखते हुए किसी दुसरे मुल्क को गालिया देते हुए, रंग दे बसंती ओर साडा हक एत्थे राख जैसे गाने  गाते हुये उसे देशभक्ति समझ बैठते है।
लेकिन इन सबसे खतरनाक और दुर्दांत हथियार भी होता है। जिसका 20-21वी शताब्दी में सबसे ज्यादा इस्तेमाल हुआ है जनता की क्रांतिकारी ताकत को तोड़ने के लिए। उसे समझने के लिए हमें थोडा रुकना पड़ेगा।

ये सब जानते है की मानव समाज में जनता ही मुख्य कारक होती है जो किसी भी सामाजिक बदलाव के लिए जिम्मेदार होती है, बिना जनता के साथ के कोई भी राजनेता , क्रांतिकारी या धर्म गुरु आपने आचरण या प्रक्टिस से समाज को थोड़े समय के लिए प्रभावित तो कर सकता है लेकिन  से समाज को नहीं बदल सकता. इतिहास गवाह है जब जब जनता ने अपना असली रूप दिखाया है तब तब इतिहास बदला है। ये जनता की ही ताकत थी की रूस की जनसेना ने रेड आर्मी के साथ मिलकर हिटलर को जर्मनी के बर्लिन में घुस कर मार दिया था। येही वो ताकत है जिसके तहत दुनिया की सबसे ताकतवर और तकनिकी रूप से उन्नत अमेरिकी सेना को वियतनाम की जनता  ने अपनी ठोकरों पर उड़ा  कर रख दिया था।
जनता के शोशण मुक्त समाज कि स्थापना के लिए पहला कदम एक सफल नवजनवादी क्रांति का होना जरुरी कदम है, कोई भी सुधारवादी आन्दोलन सिर्फ सुधार या कुछ नियम  कानून या संशोधन ही करवा सकता है लेकिन पूँजी की इस दुर्दांत लूट और इसे बनाए रखने वाले लोगो को पूरी तरह हटाना ऐसे आंदोलनों से कतई संभव नहीं है . और जब जब ये पूंजीवादी लूट पाने चरम पर पहुचती है तब जनता सच्चे क्रांतिकारी नेतृत्व में आक्रोशित होकर सडको पर उतर आती है ,
भारत की जनता भी  आज ऐसी ही साम्रज्यवादी लूट के मकडजाल में फंसी हुई है। राजनितिक अस्थिरता, महंगाई , गरीबी और आर्थिक असमानताओ के चलते  और एक सम्पूरण क्रांति की संभावनाए प्रबल है , जनता में आक्रोश भी है और देश के अलग अलग इलाको में आन्दोलन भी चलते रहते है।
लेकिन येही संघर्ष रत जनता के आन्दोलन में वो  बिंदु होता है जहा पर  कुछ गलत लोग लोग एंट्री करते है और पूरे आन्दोलन को एक सुधारवादी आन्दोलन में बदल डालते है .
तो जनता की ताकत को तोड़ने का सबसे अच्छा और सुरक्षित उपाय  होता है की दुश्मन खुद ही जनता के बीच में शामिल हो जाए,बिलकुल उनके जैसा ही बन जाए. और उनके जनान्दोलनो में हिस्सा ले ,उनके साथ सडको पर उतरें , पुलिस के डंडे भी खाए ,जेल भी जाएँ ,उनके बीच गहरी पैठ बना लें , और धीरे धीरे सारे आन्दोलन को अपने हाथ में लेकर अंतिम समय में पूरे आन्दोलन को अप्रत्यास्चित रूप से किसी और दिशा में मोड़ दे।
ये लोग अपनी तार्किक शक्ति और व्यक्तित्व से जनता को बरगलाने में कामयाब होते है ,और उन्हें समझाते है की किसी हिंसा की जरुरत नहीं है , किसी व्यवस्था परिवर्तन की भी जरुरत नहीं है, बकाया इस सिस्टम में भी अभी गुंजाईश ही सुधरने  कि , बल्कि हम खुद इसी व्यवस्था में सुधार करके या जनता का दवाब बनवा कर सत्ता वर्ग को कुछ नियम कानून बनवाने में मजबूर कर सकते है ,या आंदोलनों के जरिये हम भरष्ट नेताओं को न्याय्लायाय के जरिये सजा दिलवा सकते है, संक्षेप में बस ऐसा समझ लीजिये की जो जनता सम्पूर्ण व्यवस्था परिवर्तन के लिए लड़ाई लड़ रही होती है उस समय ये लोग उसे एक सुधारवादी आन्दोलन में तब्दील कर देते है .तो अंत में जनता इस सुधारवादी आन्दोलन को अपनी जीत मान कर खुश हो जाती है लेकिन पूँजीपतियो के द्वारा जनता का शोषण बदस्तूर चलता रहता है. अंततः ये  भोली भाली  जनता के साथ किया गया सबसे जघन्य अपराध होता है.
अरविन्द केजरीवाल और उनके साथ उनकी पूरी टीम इस प्रकार के आंदोलन करवाने और जनता के गद्दारों में नंबर एक स्थान पर है। 
ये काम कैसे और किस उद्देश्य के लिए करते है ये हम बाद में देखेंगे पहले थोडा उनके बारे में जान लेते है।
पहले इंजीनियरिंग की पढ़ाई और फिर बाद में सिविल सर्विस  की परीक्षा पास करने के बाद  अरविन्द का कैरियर काफी स्मूथ रहा  और लगभग कोई भी बड़ी आउट ऑफ़ दा बॉक्स सफलता से भरा नहीं रहा है, वो 1991 में IRS - Indian Revenue Service में नियुक्त हुए और फिर अगले साल भी कोशिश करने पर वो IPS के लिए रैंक सुधार नहीं पाए और फिर IRS नियुक्त हुए, जो की सरकारी हलको में एक बड़ा मलाईदार पद माना जाता है .
10 साल की शांति पूर्वक सर्विस के बाद जनवरी 2000 में उन्होंने अवकाश लेकर एक NGO परिवर्तन की स्थापना करी और फ़रवरी 2006 में परमानेंट नौकरी छोड़ कर पूरी तरह परिवर्तन के लिए काम करने लगे,,ज्ञात रहे की उन्होंने नौकरी एकदम मग्सेसे पुरूस्कार मिलने का पक्का होने के बाद ही छोड़ दी .शायद वो इ के इन्तेजार में थे। बहरहाल। उन्हें अवार्ड मिला Ramon Magsaysay Award for Emergent Leadership(2006). .
फोर्ड फाउंडेशन वोही संस्था है जो की रमन मग्ससे पुरूस्कार को फंडिंग करती है,  तभी से उनके उठाये हर कदम और आन्दोलन में फोर्ड फाउंडेशन का हाथ है जो की मग्सेसे अवार्ड की आर्थिक पितृ संस्था है .
फिर अरविन्द ने एक और मग्ससे अवार्ड विजेता मनीष शिशोदिया के साथ मिलकर 1999 में  "कबीर" नामक संस्था की भी स्थापना करी जिसे अब तक निम्न लिखित राशि फोर्ड फाउंडेशन से प्राप्त हो चुकी है।
2005-2006     -   Rs . - 43,48,036/-
2006-07               Rs.3205970
2008-09               $1,97000
फिलहाल निचे मैं वो राशी दे रहा हूँ जो की खुद " कबीर " ने घोषित कर रखी है
Sl NoYearTotal amount of FC received
1        2005-06         4374117*
2       2006-07          3205970
3       2007-08         0
4        2008-09        7973078
5       2009-10         6075149
6      2010-11          573578
7     2011-12           0
8      2012-13          0
विश्व क्रांतियो के इतिहास में एक भी क्रांतिकारी ऐसा नहीं मिलेगा जो किसी विदेशी संस्था से जनसेवा के लिए पैसा लेता था और अपने देश में क्रांति को अंजाम तक पहुंचा पाया , और फोर्ड फाउंडेशन , हेनरी फोर्ड के द्वारा स्थापित संस्था है जो की पूरे विश्व में सामाजिक कार्यो के लिए फंडिंग करती है. लेकिन असल में वो अपने एजेंटो  के द्वारा  विश्व के हर कोने में पनपने वाले क्रांतिकारी आंदोलनों को भटकाने का काम करती है या कहे की उन्हें मात्र सुधारवादी आन्दोलन में तब्दील करने का काम करती है .जाहिर है इस काम के लिए वो उन लोगो को चुनती है जो उसी देश , भाषा ,शक्ल और रंग वाले हो,,,,इसके लिए पहले वो उन्हें मग्ससे जैसे पुरुस्कारों से नवाजती है और फिर जनता के बीच उतार देती है उनके आंदोलनों को हाई जैक करने के लिए .ज्ञात रहे की 2 साल पहले अन्ना के आन्दोलन से शुरुआत करने वाले अरविन्द और बाकी टीम के सदस्यों को मिला कर कुल 5 लोग मग्ससे पुरूस्कार विजेता रहे है. जिनमे से अब कुछ लोग शायद अलग हो चुके है .

अब देखते है की भारत में जनता की क्रांतिकारी ताकत को कुंद करने में अरविन्द केजरीवाल का क्या रोल है । आज जबकि जनता का मोह कांग्रेस से भंग हो चूका है और बीजेपी भी कांग्रेस की ही तरह है भ्रष्टाचार डूबी हुई है ,तब जनता को ऐसे राजनितिक दल या इंसान की जरुरत है जो की  ये आस जगा सके की अभी भी देर नहीं हुई है, और हम लोग है जो इनसे अलग कुछ कर सकते है . और अगर कुछ भी न कर सके तो समीकरण तो बिगाड़ ही सकते है जिससे की किसी भी दल की सरकार बहुमत से ना बन पाए और हमारा दल भी उसी भीड़ में शामिल होकर संसद पहुच जाए, ताकि जनता अगले 5 साल और इन्तेजार करे की शायद अगली बार अरविन्द जी एंड पार्टी  और मजबूती से उभरेंगे और तब इस व्यवस्था में सुधार शुरू हो जाएगा। और बीच बीच में किसी न किस राजनेता या अम्बानी टाइप के ओलोगो की पोल खोल करते हुए जनता के सामने अपनी छवि बरकरार राखी जा सके।  लाँकि इस प्रकार के खुलासे से कुछ ख़ास नुक्सान नहीं होता।  जैसे कि अगर वो कोई राजनैतिक दल का नेता है तो उसकी बलि चढ़ जाती है या फिर कुछ समय के लिए निलंबित हो जाता है,या फिर उस पार्टी पर से कुछ लोगो का विश्वास उठ जाता है, या ज्यादा से ज्यादा  वो उसे वोट न देकर दुसरे लुटेरी पार्टी को चुन लेता है (मतलब अंत में जनता ही बेवक़ूफ़ बनती है)
और अगर वो कोई पूंजीपति है तो उसका तो कुछ बिगड़ ही नहीं पाता, आज भी हमारे सामने केजरीवाल , अदानी ग्रुप, वाड्रा और अम्बानी  का उद्दरहण सामने है जिनका केजरीवाल के खुलासे से शायद कोई नुक्सान हुआ है। और अम्बानी का नुक्सान हुआ भी होगा तो वो अगले शेयर बाजार में उतरते ही उस नुक्सान को पूरा कर लेंगे।इसी क्रम में केजरीवाल कभी भी इनफ़ोसिस के अधिकारियो का नाम नहीं लेंगे क्योंकि नारायण मूर्ति खुद उन्हें फंडिंग करते है फोर्ड के माध्याम से .

तो आज के युवा वर्ग को चाहिए की वो सिर्फ भावनाओं में आकर या अरविन्द केजरीवाल के  सिंपल और आम आदमी जैसे व्यक्तित्व से प्रभावित ना होते हुए हमें उनकी प्रक्टिस का गहन अध्यन करें। की आखिर उनका ग्राउंड वर्क क्या है ? अरविन्द जैसे इंसान जो की प्रशाशनिक सेवा में रह चूका है, और इस सिस्टम को अच्छे  से देखा है उसके लिए किसी भी भ्रष्ट राजनेता या उद्योगपति के खिलाफ सबूत इकट्ठे करना कोई बड़ी बात नहीं है। और आजकल जबकि अरविन्द के समर्थन में भी कुछ लोग है तो वो जंतर मंतर पर उनका खुलासा करके हलचल भी पैदा कर सकता है,लेकिन जरा गहराई से देखा जाए तो ये बाते तो भारत के हर इंसान को पहले से ही मालूम होती है,क्या आपको लगता है की भारत में किसी भी इलाके में विधायक या सांसद का चुनाव जितने के बाद सबसे पहले जनता के पैसे की लूट शुरू होती है , सरकारी ठेकों की बन्दर बाँट और राजकोष के धन को फर्जी तरीके से लूटने के लिए। ये बात शायद भारत के कोने कोने में बच्चा भी जानता होगा की हिन्दुस्तान के हर शहर और कसबे में सिर्फ कुछ रसूखदार और चुनिन्दा लोग ही बार बार विधायक या सांसद बनते है, एक दो अपवादों को छोड़कर .

तो जबकि ये व्यवस्था पूरी तरह सड़  चुकी हैं और इसमें सुधार की कोई भी गुन्जाइश करना सिर्फ और सिर्फ शोषक वर्ग को सहायता करना जैसा ही है, तो सिर्फ इसलिये उसका साथ देना  कि वो बीजेपी और कांग्रेस जैसा नहीं है और वो हर भरष्ट आदमी की पोल खोलता है अरविन्द की प्रक्टिस को सही ठहराने के लिए काफी नहीं है। बल्कि इसका मतलब आप भी बीजेपी या कांग्रेस के समर्थको  जैसी ही मानसिकता रखते हो जो कहते है की बीजेपी भी भ्रष्ट है लेकिन कांग्रेस जितनी नहीं और उसे मौका दिया जा सकता है। और आप कहते हो की अरविन्द तो भ्रष्ट ही नहीं है बल्कि वो तो भ्रष्टाचारियो की पोल खोलता है।।इसलिए उसका साथ दो. लेकिन अंत में ये देखिये की ये तीनो किस व्यवस्था को सपोर्ट करते है, कभी ये सोचा जाए तो बेहतर होगा,
क्या आज तक अरविन्द ने ईस मुनाफे वाले उत्पादन सिस्टम को उखाड़ फेकने की वकालत करी ? शायद नहीं, क्या आज तक उन्होंने विदेशी पूँजी निवेश पर रोक लगाने की बात करी ? बिलकुल नहीं।  वो सिर्फ  बात करते है की भ्रष्टाचार रोको, लोकपाल लाओ, ये कानून बनाओ, वो कानून मत तोड़ने दो, इनके भ्रष्टाचार को रोको, नेताओं के आपस में तालमेल को बेनकाब करो आदि आदि।और वो संसद में जाकर भी येही करने वाले है।
असल में जब भी कोई राजनितिक पार्टी सत्ता में आती है तो वो सबसे पहले पूंजीपतियों के पास जाकर उन्हें राज्य या देश के संसाधनों की लूट करने के दरवाजे खोलती है, जिसके लिए उन्हें मोटा माल मिलता है,या कह सकते है की वो कसी विशेष पूँजी गुट की सिर्फ दलाली करते है। पूंजीपति को इससे कोई फरक नहीं पड़ता की सत्ता में कौन है, कोई भी सत्ता में रहे वो अपनी पूँजी की लूट को चालू रखने के लिए सरकारे बनाते और बिगड़ते रहते है। या यू कहे की राजनितिक दल खुद उनसे पैसा मांगते है की हमें सांसद या विधायक खरीदने के लिए पैसा चाहिए. और जब् पूंजीपति ये पैसा दे देता है तो फिर सरकार बनाने के बाद वो सरकार उसके बिजनेस को बढाने के लिए पालिसी बनती है , या फिर उसे उसके उद्योग लगाने के लिए कोडियो के भाव संसाधन उपलब्ध करवाती है। और ये सब दुनिया की कोई भी शक्ति बंद नहीं करवा सकती जब तक की इन्टर नेशनल लेवल पर मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था में भारत अपनी स्वीकृति 20 साल पहले ही भर चूका है .तो ऐसे सड़ चुके सिस्टम को संसद में जाकर कैसे ठीक किया जा सकता है ये आज तक अरविन्द और उनकी NGO कंपनी नहीं बता पाई .
आगे चलें तो अरविंद RTI और RTR जैसे कानूनों की वकालत करते है .जिससे ये सन्देश जाता है की सिस्टम तो ठीक है और इसमें वो सारे प्रावधान भी है जिनका उपयोग करके आप देश की समस्याओं का समाधान कर सकते हो,लेकिन इसे चलाने वाले लोग खराब है .और जनता को ये बताने की कोशिश करते है की इस अधिकार का प्रयोग करो, और भ्रष्टाचार को रोको ,लेकिन क्या किसी भी RTI या RTR जैसे कानून से ये पता लगाया  जा सकता है की अंबानी, वेदांता ग्रुप या स्टरलाईट कंपनी ने भारत की खानों को खरीदने के क्या क्या तिकड़म भिडाये है ,या वाल मार्ट और टेस्को ने राजनितिक पार्टियों से क्या सौदेबाजी की है उनके भारत में प्रवेश करने के लिए .और अगर पता भी चल जाए तो अरविन्द का ग्राउंड वर्क क्या है की वो इसे रोक लेंगे? सिवाय जंतर मंतर पर एक दो दिन भीड़ इकठी करने और किसी एक नेता की पोल खोलने के आलावा ?
अब इस सिस्टम को तोड़ने के लये आप सम्पूर्ण क्रांति  करना चाहेंगे या फिर एक सुधारवादी आन्दोलन करके दो चार नेताओं या पूंजीपतियों को जेल करवा कर ,सिर्फ दिल को खुश करने के लिए सामयिक राहत ,फैसला आपके हाथ है।
भारत की जनता बहुत भोली और अतिउत्साह्वादी है, वो किसी भी चकाचौंध में बड़ी आसानी से फंस जाती है , इसका सबसे बड़ा उद्दाहरण  आमिर खान है,जिसे सत्यमेव जयते प्रोग्राम के बाद मैंने कई सोसल साइट्स पर लोगो को उसे प्रधानमन्त्री बनाने की वकालत करते हुए सुना। अरविन्द केजरीवाल और उनके भ्रम जाल में उलझी जनता का हाल भी कुछ ऐसा ही है. ये मानसिकता शायद व्यक्तिगत स्तर तक तो ठीक है लेकिन एक राष्ट्र के लिए बहुत घातक है जहा पर कई धर्म जात के 120 करोड़ लोग रहते है। और जिनमे से 70 करोड़ लोग मात्र 20 रूपये प्रतिदिन पर अपना गुजारा करते है वो और उनकी नस्लें किसी सुधारवादी आन्दोलन से नहीं एक सम्पूर्ण व्यवस्था परिवर्तन के लिए की गयी क्रांति के बाद ही पनप पाएंगी।

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इन्किलाब जिंदाबाद

बुधवार, 5 दिसंबर 2012

बरबाद ईतिहास की बरबाद नस्लें !



मैं तुम्हारे इन सारे फेसबुक और सोसल साइट्स के नफरत से भरे संदेशो को सहेज लूँगा।
मैं तुम्हारे इन नफरतो से भरे  राम, अल्लाह ,हिन्दू मुस्लिम ,धरम और जात की बहस वाले सफ्हो को लोहे के पन्नो में गोद दूंगा।।।
और फेंक दूंगा उन्हें किसी दरिया की गहराई में ..... या गाढ़ दूंगा हर घर की नींव में ...

और जब आज से पांच सौ ,हजार साल बाद नयी नसलें जनम लेंगी,,,,,,
और खोदेंगी नफरत से भरी तहजीब की तहे,,,,,,,,,

तब बेनकाब हो जायेंगी तुम्हारे इतिहास की सारी हराम-गर्दियां.

मैं चाहूँगा की वो मुस्तकबिल  की नसलें जोर-जोर से हँसे तुम्हारी  बेवकूफी पर ,,,,
और फिर वो अपनी अगली नस्लों को सुनाये कहानियाँ  तुम्हारे मूर्खता की .......
और कोसें अपने माँझी  की बर्बाद नस्लों को।।।।।

मंगलवार, 4 दिसंबर 2012

फिल्म समीक्षा - चक्रव्यूह

कामरेड ..........पिछले साठ साल से इ सरकार हमको धोखा देत है ........


मार्क्सवाद के अनुसार जब तक उत्पादन के साध्नो पर मुठ्ठी भर लोगो का कब्जा रहेगा तब तक शोषण मुक्त समाज कि कल्पना करना बेमानी है  ...लेकीन पून्जीवादी  विद्वान ओर मीडिया इसे सही ठेहरता है ,,,,उनके अनुसार पुंजीपती ही विकास कर सकते ही जिससे उनके मुनाफे से बची पुंजी रिस रिस कर नीचे जनता तक पहुचेगी ओर जनता का विकास होगा .......जबकी हकीकत मे विकास का मतलब संसाधानो का राष्ट्रीयकरण करके उनका विकास जनता के लिये करना होता है , न कि मुनाफा कामाने के लिये. विकास के लिये देश के संसाधानो को बडे बिजनेस घरानो ओर विदेशी कम्पनियो को बेचने से सिर्फ शोषण ही बढता है , लेकिन जनता का विकास नही होता. लोगो को इस भ्रम जाल को समझना पडेगा कि आधौगिक विकास सरकार खुद भी कर सक्ती ही ...बशर्ते  कि सरकार की नियत मे खोट न हो .
इन्ही विरोधो ओर झन्झावतो से पनपे नक्सलवाद संघर्ष पर आधारित है  प्रकाश झा कि फिल्म "चक्रव्यूह"
फिल्म पर चर्चा करने से पहले थोडा उसकी कहानी ओर पात्रो पर एक नजर डाल लेते है.
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आदिल (अर्जुन) ओर कबीर (अभय) दोनो पुलिस अकादमी  मे साथ साथ ट्रेनिंग लेते है लेकीन अपने अतिवादी स्वभाव के कारण अभय ट्रेनिंग छोड कर चला जाता है ,,बाद मे दोनो की  मुलाकात तब होती है जब अर्जुन मध्य प्रदेश के एक नक्सली इलाके नंदिघाट मे पोस्टेड होता है . अभय उसकी हेल्प के लिये छदम तरीके से नक्सलियों  के दल मे भरती हो जाता है और  उसके लिये मुखबरी शुरू कर देता है , इधर राज्य सरकार आधौगिक ग्रुप महानता को फायदा पाहुचाने के लिये आदिवासियो कि जमीन कब्जना चाहती है ओर अर्जुन को सरकार के दवाब में महानता ग्रुप के फायदे के लिये आदिवासियो के विरोध का दमन करना पडता है ...... इधर अभय देओल नक्सलियों के  साथ रहते हुये आदिवासियो के लिये काम करते हुये विचारधारा के प्रभाव मे अन्ततोगोत्वा  नक्सल बन जाता है   ........ओर महानता ग्रुप  और सरकार कि नितियो के खिलाफ आदिवासियों का साथ देते हुये अर्जुन के सामने आ जाता है. अंत में  खुनी संघर्ष मे  अभय एक नक्सली के रूप आदिवासियों के हक़ की लड़ाई लड़ते हुए शहीद हो जाता है।

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फिल्म मे  लगभग सभी किरदार,और घटनाये असल मे 1970 से 2012  तक के नक्सली मुवमेंट से लिये गये है ,
फिल्म मे  ओम पुरी कोबाड घांडी बने है , तो मनोज बाजपेयी ने किशन जी के चरित्र को छुंआ है,,,अभय देओल  को  कामरेड आजाद (चेरी राजकुमार - आजाद) बनाया गया है.ओर अर्जुन रामपाल को के.विजय.कुमार का किरदार दिया गया है. (ये वोही IPS विजय है  जीन्होने वीरप्पन को मारा था ओर आजकल इन्हे नक्सलीयो  के खिलाफ पोस्ट किया गया है)
ओर आखिर मे वेदान्ता ग्रुप को महानता ग्रुप के नाम से दिखाया  है।
आप यु ट्यूब में कोबाड घांडी के असली विडियो को देख सकते है जिसमे पुलिस कस्टडी में भगत सिंह जिंदाबाद के नारे लगाते हुए जा रहे है,,,फिल्म में ये द्रश्य हुबहू दिखाया गया है .
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फिल्म का प्लॉट यकीनन ॠषी केश मुखर्जी कि "नमक हराम" फिल्म से लिया गया है , लेकीन अब भी प्रकश झा वर्ग चरित्र ओर वर्ग संघर्ष के उस बिंदू तक नही पहुच पाये जहा पर ॠषी केश मुखर्जी पहुचे थे...........नमक हराम मे जहा राजेश खन्ना और अमिताभ तमाम सम्वेद्नाओ  के वावजूद अपने वर्ग चरित्र से चिपक कर मार्क्सवाद को सही सिद्ध करते दिखाई देते है , वही चक्रव्यूह मे अभय और अर्जुन एक ही वर्ग से आने  के वावजूद मात्र अपने स्वभाव के कारण अपने रस्ते चुनते है ..जो कि थोडा मुम्बईया टाईप लगता है

लेकीन आज के समय को देखते हुये मै प्रकश झा को कोई दोष  नही देना चाहुंगा,,,शायद व्यावसायिक मजबुरियो के कारण फिल्म का ऐसा प्लॉट रखना जरुरी था .रही बात फिल्म कि कहानी  कि ओर उसके संदेश कि......तो प्रकाश झा उसे जनता तक पहुचाने मे  प्रकाश कामयाब रहे है. प्रकाश ने बेहतरीन तरीके से दिखाया ही कि किस  तऱ्ह प्रशाषन, सरकार और  राज्य सरकार पून्जीपतियो के आगे नतमस्तक हो जाती है ...ओर उनके उधोगो और मुनाफे को बढाने के लिये देश ओर राज्यो के जल जंगल ओर जमीन कि लूट के लिये सारे नियम कानून ताक पर रख कर बिनावजह जनता के दमन पर उतर आती है ........ओर कोई विरोध करे तो फिर हिंसा - अहिंसा का पाठ जपने लगती है .....ओर विरोध करने  वालो को आतंकवादी तक करार दे देती है
फिल्म समाज में  फैले  विरोधाभास को भी दिखाती है कि  - आम आदमी विरोध करे तो वो हिंसा ओर अगर येही काम सरकार करे तो कानून,,,,,इस अंतर्द्वंद को मेडिया कैसे प्रस्तुत  करता है  ,,,ओर कैसे पढे लिखे लोग भी इस मुगालते मे जीते है,,,,,इसे दिखाने के लिये प्रकाश झा ने फिल्म मे अर्जुन रामपाल के किरदार का सहारा लिया है.  अर्जुन की प्रक्टिस और सोच के माध्यम से वो ये दिखाने मे कामयाब रहे है .....जो कि वो एक पोलीस ऑफिसर होने के बाद भी राज्य के द्वारा कि गयी हिंसा, दमन और वर्ग संघर्ष के लिये कि गयी हिंसा के बीच के अंतर को नही समझ पाता और जनता के दमन को देश भक्ती समझता है ,, और आदिवासियो कि लडाई को देशद्रोह.
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2010 में दांतेवाडा में CRPF - नक्सली संघर्ष में 75 जवानो की मौत के बाद सरकार के इशारे पर मीडिया ने नक्सलियों को आतंकवादी कहकर बदनाम करना  शुरु कर दिया ,,लेकिन मीडिया ने ये नहीं बताया की CRPF वाले लोग जंगल में नक्सलियों के साथ बीयर पार्टी करने नहीं बल्कि उन्हें मारने ही गए थे , और नक्सलियों के द्वारा किया गया हमला उसी का प्रतिकार था। मीडिया ने ये भी नहीं दिखाया की उस घटना के बाद लगभग 1000 से ज्यादा मासूम और निर्दोष आदिवासी गाँव वालो को पुलिस ने घरो से निकाल निकाल कर मारा था।
चक्रव्यूह फिल्म  इस घटना को भी ठीक से दिखाने में कामयाब रही है,,,लेकिन आपको इसे ध्यान से देखना पड़ेगा की इन दोनों हिंसात्मक कार्यवाहियों में असल गलती किसकी थी,,,,,,जिसे फिल्म में अभय देओल बताते है।
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प्रकाश झा अपनी व्यावसायिक मजबूरीयो के चलते इसे सिर्फ एक फिल्म के रूप में ही प्रचारित कर सकते है.....वो चाह कर भी ये नही बतला सकते कि असल में नक्सल समस्या सरकार की ही देन है....ये आपको फिल्म देख कर खुद समझना पडेगा....देश के वो लोग जिन्हे सरकार ने आजादी के बाद कभी पूछा तक नही ...वो हमेशा जंगलो के भरोसे अपनी जिंदगी चलाते रहे,,,जिस जंगलो  ने हजारो सालो तक इन आदिवासियो को पाला और अब सरकार इन्ही जंगल ,पहाडो ओर नदियो को बेच कर इन्हे प्रायवेट प्रोपर्टी बना कर इनमें आदिवासियो के घुसने तक पर प्रतिबंध लगा देना चाहती है। फिल्म मी राजनेताओं द्वारा आदिवासियो को येही संदेश देते हुये दिखाया गाय ही कि आप महानता ग्रुप का विरोध न करे,,,,ओर जब इससे भी काम नही बनता  तो महानता ग्रुप के मालिक का बेटा आदिवासि इलाको के दबंगो के द्वारा बनाई गायी प्रायवेट सेना को बल प्रयोग करके  जंगल खाली करने को कहता है .इसी के विरोध स्वरूप  नक्सली लोगो को एकजूट करके उन्हे सरकार के खिलाफ हथियार बंध होने  के लिये तैय्यार करते है।

प्रकश झा ने नक्सल वाद की सिद्धान्तिक गहराहियों में न उतर कर सिर्फ वर्तमान घटनाओं को लेकर फिल्म बनायी है ,,,जो की सही भी है,,,वरना ये फिल्म एक डाक्यूमेंट्री बन जाती, जो की एक आम आदमी की समझ से बाहर होती। अब ये हमारी जिम्मेदारी बनती है  कि फिल्म को हम किस नजरीये से देखे,,,,,अगर आप इस पूर्वग्रह से फिल्म देखने  जायेंगे कि नक्सली सिर्फ हिंसा करते ही तो बेहतर ही कि आप अपने पुर्वाभास में  ही  रहे ओर फिल्म देखने ना जाये.....,,,और  अगर आप ये समझाना चाहते ही कि नक्सली समस्या क्या है ,,,ओर कितनी प्रासंगिक ही ,,तो फिल्म जरूर देखे,,
फिल्म के द्वारा ये सन्देश सिया गया है की  नक्सलवाद का मतलब जंगल में बम पटाखे फोड़ना नहीं है  , नक्सलवाद का मतलब सिर्फ हिंसा नही है ........... ...नक्सलवाद का मतलब "हक के लिये लडाई है "...और हिंसा सिर्फ इस लडाई का प्रतिफळ है जिसके लिये नक्सलियों से ज्यादा सरकार जिम्मेदार है.
फिल्म अंत में इस संदेश के साथ ख़तम होती है कि,,,सदियो से दबे कुचले लोग दया कि भीख मांगने कि बजाय अपना हक छीनने के लिये हथियार भी उठा सकते है ,,,,इसी शोषण और जनता के एक बड़े हिस्से की अनदेखी  की वजह से भारत में एक अघोषित ग्रह युद्ध चल रहा है , जिससे भारत माता कि धरती खुद अपने हि बच्चो के खून से हर रोज लाल होती है ...ओर ये लडाई तक तक चलेगी जब तक इन्सान का इन्सान के द्वारा शोषण का ये "चक्रव्यूह" ख़तम नही हो जाता .

रविवार, 2 दिसंबर 2012

मैं एक नास्तिक हूं....

मुझे अपनी समझ से
दुनिया को समझने में
अपने हिसाब से
अपने रास्ते पर
चलने में
अपने लिए
अपने खयाल बुनने में
अपने विचारों को
अपनी ज़ुबान में
कहने में
अपनी मस्ती में
बहने
अपनी धुन में
रहने में
नहीं कोई दुविधा है....

मुझे सवाल पूछने
जवाब मांगने
तर्क करने
उंगली उठाने
सोचने समझने
गुत्थियां सुलझाने
अपने मानक
खुद तय करने
दोजख-नर्क के
भय के बिना
जीने और मरने
आवाज़ उठाने
और
तुम्हें मानने
या नकारने में
सुविधा है....

मेरे लिए
ज़ोर से हंस पड़ना
हर अतार्किक बात पर
व्यंग्य करना
तुम्हारे तथाकथित
अनदेखे
अप्रमाणित ईश्वरों पर
न जाना, न जताना
भरोसा
इन इबादत घरों पर
परमकृपालु ईश्वर
हमेशा मेहरबान खुदा
के नाम पर
तुम्हारे द्वारा
किए गए
अपमानों
दी गई गालियों
और हमलों का जवाब
मुस्कुराहट
से देना भी
एक कला है
विधा है.....

और हां
सच है तुम्हारा ये आरोप
ईश्वर के (न) होने
जितना ही
कि मैं
एक नास्तिक हूं.....
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मयंक जी की एक कविता - नास्तिको के ब्लॉग से साभार
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