शुक्रवार, 29 मार्च 2013

राजाओं और बाद्शाहो का इतिहास (असली वाला)


बचपन से आज तक हमें जो भी इतिहास पढाया या बताया जाता है वो राजाओं और बाद्शाहो का इतिहास बताया गया है, वो कुछ इस तरह होता था की महान अशोक ये था, अकबर वो था, औरंगजेब ऐसा था ,राणा प्रताप वैसा था और सारे इतिहास में जनता के योगदान का कही जिक्र नहीं होता . अगर बारीकी से देखा जाए तो इन राजाओं और बादशाहों ने आपस में जो लड़ाईया लड़ी वो अपने राज्य के विस्तार और अपने स्वार्थ के लिए ही थी। जो भी राजा ज्यादा सैन्य क्षमता रखता था वो आप पड़ोस के राजाओं को अपने मातहत रखकर उनसे वसूली के लिए कहता था, अगर दूसरा राजा मान जाए, तो सही, नहीं तो युद्ध शुरू हो जाता था। आज के समय में भी अगर आप साम्रज्यवादी देशो की विदेशनिति को देखे तो वे लोग अरब देशो में अपने कब्जे को लेकर अपने ही देश में विरोध को झेलते है , तमाम गरीब देशो में शोषण, अराजकता और आतंकवाद फैलाने की वजह से खुद अपने ही देश में जनता उनका मुखर विरोध करती है लेकिन फिर भी वो अपने पिट्ठू मीडिया, सूचना तंत्र और फिल्मो के द्वारा इसे राष्ट्रभक्ति से जोड़कर दिखाते है और जनता के आक्रोश को कम करने की कोशिश करते रहते है। ठीक इसी तरह सामंतवाद के जमाने में राजा महाराजा  और बादशाहो के सभी युद्ध अपने राज्य की विस्तारवादी नीतियों और आर्थिक फायदे के लिए लड़े जाते थे , जिन्हें बाद में हमारे इतिहासकारों ने कुछ इस तरह से दर्शाया की जैसे वो देशभक्ति से ओतप्रोत जनयुद्ध की घटनाएं हो . आपको किसी भी इतिहास की किताब में मेहनतकश जनता के योगदान और युद्ध के बाद  आये आर्थिक संकट को दूर करने के लिए जनता के दुर्दांत शोषण और उनपर लगाए जाने वाले करो का कोई विवरण नहीं मिलेगा . इतिहासकारों द्वारा सामन्ती युग का बहुत ही सतही तौर से वर्णन किया जाता है जिससे की वो सिर्फ एक राजा विशेष की शौर्य गाथा लगती है , की फलां बहुत वीर था , उसके पास बहुत बड़ी सेना थी , उसने उस राजा को हराया, लेकिन इन्ही राजाओं के द्वारा की जाने वाली ऐय्याशिया , धोखाधड़ी, छलकपट, व्यभिचार, जनता के शोषण की कोई भी कथा आपको इतिहास में नहीं मिलेगी। आपको इतिहास में राजाओं की इमारतों , मकबरों और हथियारों और युद्ध की गाथाये तो मिलेंगी लेकिन किसी भी रियासत में जनता के लिए शिक्षा , चिकित्सालय और अन्य सुविधाओं का ब्योरा नादारद मिलेगा। बाद में सांप्रदायिक मानसिकता के चलते भिन्न भिन्न राजनितिक दलों से सम्बंधित बुद्धिजीवियों ने अपने अपने हिसाब से हिन्दू और मुस्लिम राजाओं की भलमानुसता की गपोड़ कथाये लिख डाली .
भारत पर राज करने वाले अधिकतर रियासतों के राजाओं ने मुगलों के आने पर पहले तो उनका विरोध किया और काफी हद तक उन्हें रोकने में सफल भी हुए , परन्तु मुगलों की विराट सैन्य क्षमता के चलते सर्वप्रथम उन्होंने सुदूर पश्चिमोत्तर प्रान्तों पर कब्जा किया , फिर भारत के राजाओं ने खुद अपने स्वार्थ के लिए उनसे समझौते किये या फिर उनसे कुछ शुरूआती प्रतिरोध के बाद उनके मातहत राज करने के समझौते किये। और ये सिलसिला उस हद तक गया जहा पर परिणाम स्वरुप  14-15वी सदी के अंत तक भारत की लगभग सभी बड़ी बड़ी जागीरो पर मुसलिम बादशाहों का कब्जा हो गया . जैसे की दिल्ली ,रामपुर,लखनऊ , हैदराबाद , जूनागढ़ , मैसूर ,बंगाल, जयपुर , आगरा आदि आदि।
17वी शताब्दी के शुरूआत तक आधौगिक क्रांति के चलते ब्रितानी सभ्यता लगभग पूरी तरह मशीनों के निर्माण और उपयोग में पारंगत हो चुकी थी, बन्दूक , हथियार , मशीनों से चलने वाले जलयान , कपडा, लौह अयस्क और अन्य चीजे मशीनों से बनाने में वो लोग दुनिया में सबसे विकसित वर्ग के रूप में थे, इसी शक्ति के चलते उन्होंने विश्व के बाकी अविकसित देशो को कच्चे माल की लूट के लिए अपना उपनिवेश बना शुरू कर दिया . जब वे लोग भारत में प्रवेश किये तो यहाँ के कच्चे माल के भण्डार और प्राक्रतिक संसाधनों से भरपूर राज्यों को देखकर उनकी बांछे खिल गयी . भारत में राज करने वाले हिन्दू और मुस्लिम राजा और उनकी प्रजा अभी भी सामन्ती उत्पादन व्यवस्था में ही जी रहे थे और मशीनों से उत्पादन में कई सौ साल पीछे थे , सभी प्रकार का उत्पादन पूरी तरह हस्तकला पर आधारित था। सोने पर सुहागा ये था की सारे हिन्दू-मुस्लिम राजा आपस में ही अपने अहम् और छोटी छोटी बातो पर लड़ते रहते थे , लड़ाई की मुख्य वजहे राज्य विस्तार की महत्वाकांक्षाये होती थी ...या फिर "औरत" . अंग्रेजो ने इसी कमजोरी का फायदा उठा कर सभी राजाओं को आपस में लड़ना शुरू कर दिया , एक दुसरे के मतभेदों का फायदा उठाया और किसी एक राजा को सैन्य सहायता और बन्दूक, बारूद से चलने वाले हथियार देकर उसी के भाई या पडोसी राजा से लडवाया और बाद में दोनों राज्यों का नियंत्रण अपने हाथ में ले लिया। भारत में राज करने वाले राजाओं और बादशाहों ने भी अपने ढीले चरित्र और लालच के चलते अंग्रेजो से हर प्रकार के समझौते किये।  यहाँ तक की 1857 के विद्रोह के बाद जब अंग्रेज हुकूमत बहुत डर गयी थी, तब भी खुद भारत के कई हिन्दू और मुस्लिम राजाओं ने अंग्रेजो को भारत में अपने अपने राज्यों में वापस आकर व्यापार करने का निमंत्रण दिया,उनके जान माल की सुरक्षा और जनप्रतिरोध दबाने की गारंटी भी दी .और आपको आश्चर्य होगा की ये काम इतनी बड़ी बड़ी रियासतों के राजाओं ने किया ,,जिनके वंशज आज भी भारत की राजनीती में अहम् मुकाम रखते है .(ये दिखता है की भारत की जनता आज भी किस तरह सामन्ती मानसिकता में जी रही है ) .
1857 का विद्रोह ही ऐसा पहला संयुक्त विद्रोह माना जा सकता है जिसमे कई रियासतों के राजाओं ने एकसाथ मिलकर अंग्रेजो को भारतीय संस्कृति के प्रति शोषणकारी रवैय्ये को पहचान कर उसके खिलाफ विद्रोह किया था। लेकिन ये विद्रोह भी खुद भारत के ही कई गद्दार राजाओं और नवाबो की वजह से अंग्रेजो द्वारा कुचल दिया गया . 1857 से लेकर 1947 तक का काल कई जन विद्रोहों का काल रहा था जिसमे जनता ने खुद ही शोषणकारी शक्तियों के खिलाफ मोर्चा खोला जिसमे बिरसा मुंडा का विद्रोह, संथाल विद्रोह और तेलंगाना और तेभागा का किसान आन्दोलन प्रमुख रहे है ,ज्ञात रहे की ये विद्रोह हर तरह के देशी और विदेशी शोषण के खिलाफ हुए थे . इस काल में जनता और समाज में आमूलचूल परिवर्तन हुए और हमें भगत सिंह और साथियो का अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ भी विद्रोह देखने को मिला, जो की पूरी तरह से शोषण पर आधारित सिस्टम को ख़तम करने के लिए था . भगत सिंह, आज़ाद, बिस्मिल ,अशफाक  और उनके तमाम साथी साम्रज्यवादी लूटेरो और उनके (देशी) हमदर्दों को अच्छी तरह से पहचान चुके थे इसीलिए वो देशी और विदेशी पूंजीपतियों के शोषण से मुक्त एक सच्चा जनतंत्र चाहते थे . लेकिन इस काल खंड के बीच अगर आप देखे तो इन तथाकथित राजाओं और नवाबो का आजादी की लड़ाई में योगदान लगभग शून्य था, इसके उलट ये लोग ब्रितानी हुकूमत की सहायता करते रहे , क्रांतिकारियों को पकडवाने के लिए मुखबरी करते रहे। जिसके एवज में ब्रितानी लोगो ने इनकी पेन्सन और ऐय्यशियो के लिए सुविधाए दी, या ज्यादा से ज्यादा इन्होने अंग्रेजो का विरोध किया भी तो सिर्फ और सिर्फ अपने सुविधाओं को कायम रखने के लिए। सम्पूर्ण एतिहासिक कालखंड में अगर सबसे ज्यादा किसी का शोषण हुआ तो वो भारत की आम जनता थी! लेकिन जिसने अंग्रेजो और बाकी शोषण कारी शक्तियों के खिलाफ संघर्ष शुरू किया वो भी जनता ही थी। उत्पादन और खेती को जिन लोगो ने उन्नत बनाया वो भी जनता ही थी, राजाओं ,नवाबो और अंग्रेजो ने जनता को सिर्फ और सिर्फ लूटा. जनता के हितो को ताक  पर रखकर अपने स्वार्थ और भोगविलास के लिए सारे समाज को अशिक्षा और अवैज्ञानिक सामन्ती संस्कारों से निकालने के लिए न ही किसी राजा ने कोशिश करी और ना ही अंग्रेजो ने।
इसलिए हमें ये समझना चाहिए की ये सारा समाज दो वर्गों में विभाजित रहा है ,,,एक वो वर्ग जिसका सत्ता और उत्पादन और कब्जा होता है , और दुसरा वो जो की इन उत्पादन के साधनों पर काम तो करता है लेकिन ये सत्ताधारी वर्ग उसे हड़प लेता है .
येही सत्ताधारी वर्ग पहले राजा नवाब और अंग्रेज हुआ करते थे,,,,और आज के समय में नेता , राजनितिक दल और पूंजीपति होते है। इसलिए किसी भी देश या समाज के इतिहास की सही व्याख्या करनी हो तो उसमे हमें जनता के योगदान को देखना ही पड़ेगा ....वरना ये राजा और नवाबो के किस्से कहानिया बच्चो को सुनाने और अपने आप के झूठे अहम् को पोषित करने के लिए तो अच्छी है। लेकिन ये इतिहास की अधूरी कपोल कल्पित कथाये समाज के समग्र विकास में हमेशा रोड़ा बनी रहेंगी 

गुरुवार, 28 मार्च 2013

अंधभक्ति



वो सब जानते है की सरकारे कैसे चलती है
कैसे सांसद ख़रीदे बेचे जाते है
कैसे देशी विदेशी पूँजी की दलाली होती है
कैसे खनन माफियाओं को खुल्ले सांड बनाया जाता है
कैसे दंगे प्रायोजित किये जाते है
कैसे जाती धर्म के नाम पर लड़ाया जाता है
कैसे झूठे आंकड़ो से अवाम को बेवक़ूफ़ बनाया जाता है
कैसे अपने लिए हर नाजायज काम को नैतिक बना लिया जाता है
वो सब जानते है की हर राजनितिक दल इसमें माहिर है ...

लेकिन जिस पार्टी के ये समर्थक है ,उसको  हमेशा पाक साफ़ बताना होता है .
ये कोई इन्हें नहीं सिखलाता, .
ये इनके अन्दर का लालच और अज्ञान इन्हें सिखाता है .


इस फितरत को सभ्य भाषा में "अंधभक्ति ".
और असभ्य भाषा में "कमीनापन" कहा जाता है.

मंगलवार, 19 मार्च 2013

आपकी पत्नी...आपकी सैलरी....और शोषण

(कार्ल मार्क्स द्वारा रचित दास कैपिटल और उनकी अन्य रचनाओं में उद्धृत  "बेशी मूल्य - अतिरिक्त मूल्य और श्रम के सिद्धांतो से प्रेरित " )

क्या आपने कभी सोचा है की आपकी सैलरी या पगार का निर्धारण कैसे होता है . मतलब की अगर आप 50 हजार रुपये पगार पाते है तो वो क्या ऐसी चीज है जिससे ये निर्धारित होता है की आपको 50 हजार रुपये मिलने चाहिए . कुछ लोग कहेंगे की एजुकेशन या एक्सपीरियंस है जिस वजह से सैलरी निर्धारित होती है ये बात कुछ हद तक ठीक है, लेकिन यदि आप नवीन जिंदल की सैलरी देखे जो की लगभग 7 करोड़ प्रतिमाह है तो शायद आप सोचेंगे की उसका तो एक्सपीरियंस और एजुकेशन तो अब्दुल कलाम आजाद से बहुत कम है फिर भी उसे इतनी सैलरी कैसे मिल रही है. इसका जवाब सिंपल है,,,क्योंकि नवीन जिंदल खुद अपनी कंपनी का मालिक है , वो अपनी और अपने जैसे तमाम खादिमो की सैलरी अपने हिसाब से निर्धारित कर देता है, येही बात अनिल अम्बानी , मुकेश अम्बानी , डॉक्टर त्रेहान , जगदीश खट्टर जैसे तमाम बड़े बड़े सैलरी पाने वाले लोगो पर लागू होती है .
लेकिन उपर दिए गए सारे मिसालो से ये अब भी साबित नहीं हो पाया की किसी इंसान की सैलरी कैसे निर्धारित की जाती है या की जा सकती है। इसके लिए हमें बहुत निचले स्तर से जाकर तफसरा करना पड़ेगा . पहले हमें ये समझना पड़ेगा की आखिर सैलरी होती क्या है , या तनख्वाह नाम की चीज है क्या ??
सैलरी या पगार वो " मूल्य " या "पूँजी"  का वो रूप होता है जो आपको अपना श्रम या मेहनत को बेच कर मिलता है। मतलब की आप अपने ऑफिस या काम पर जाकर जो भी अपनी शारीरिक और मानसिक मेहनत खर्च करते है उसके एवज में आपको जो पैसा मिलता है उसे सैलरी कहा जाता है . दूसरा सवाल ये है की  किसी की सैलरी या मेहनत के बदले में मिलने वाला पैसा आखिर क्यों मिलता है या "सैलरी" क्या होती है - ------
असल में सैलरी वो चीज होती है जिससे की हम अगले दिन काम पर जाकर दोबारा श्रम बेचने लायक ऊर्जा को इक्कठा कर सकने के लिए सुख सुविधाए जुटा सके और दोबारा रिचार्ज हो  अगले दिन मेहनत करने के लिये जा सके .

साधारण शब्दों में अगर कहा जाए तो - हमें अपने को लगातार ऊर्जावान बनाये रखने के लिए जिन चीजो की जरुरत होती है उन सुख सुविधाओं, खान पान, और तमाम चीजो को खरीदने के लिए मिलने वाला पैसा ही हमें हमारी सैलरी के रूप में मिलता है .
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तभी हम देखते है की एक साधारण मजदूर जो की सिर्फ शारीरिक श्रम करता है और दिन भर में ४-५ उत्पाद पैदा करता है उसकी सैलरी एक बड़े मैनेजर से काफी कम होती है क्योंकि एक बड़े वैज्ञानिक या मैनेजर की दिमागी मेहनत एक मजदूर से ज्यादा मूल्य का उत्पाद पैदा करती है और उस वैज्ञानिक को अपना दिमागी स्वास्थ्य और स्तर चलायमान और ऊर्जावान रखने के लिए एक मशीन पर काम करने वाले मजदूर से ज्यादा सुख सुविधाओं की जरूरत होती है .
(हालाँकि मजदूरी और श्रम के मूल्य को समझाने के लिए ये सभी उद्दरहण अपने आप में पर्याप्त नहीं है लेकिन जिस दिशा में मैं ये लेख को ले जा रहा हूँ उसके लिए ये भूमिका काफी है. )
तो आधारभूत सिद्धांत ये है की सैलरी वो होती है जिसे हम अपनी ऊर्जा को वापस पाने में खर्च करते है ,
अब देखने वाली बात ये है की जब आप काम से वापस आते हो और घर पर अपनी ऊर्जा को वापस लाने या अपने को रिचार्ज करने के लिए आराम , सुख सुविधाए को भोगना और खाना खाते हो ,,,तो उस काम में किसकी मेहनत लगती है ,,,या ऐसे कहे की आपको पुनः काम करने लायक बनाने के लिए जो आपको तैयार करता है वो कौन है .....?????
निश्चित रूप से वो एक औरत ही होती है , किसी घर में पत्नी के रूप में , किसी घर में बहन या माँ के रूप में .कुछ लोग जो अभी अविवाहित है वो भी कुछ एक साल बाद अपनी आजीविका के लिए जरुरी श्रम को रिचार्ज करने के लिए किसी न किसी औरत पर ही निर्भर होंगे . यहाँ अगर मैं सिर्फ आपकी पत्नी की बात करू तो येही वो औरत है जो आपको दोबारा से शक्ति संचय में करने में सहायता करती है जिससे की आप अगले दिन काम पर जा सको. आपके खाने से लेकर , भावनाए साझा करने और आपको शारीरिक और मानसिक संतुष्टि देने के लिए आपकी पत्नी ही वो मुख्य किरदार है जिससे की आप पूरे महीने ऊर्जावान रहकर सैलरी पाते हो.
तो अगर इंसान अपनी पगार को सही से विश्लेषित करे तो  उसकी सैलरी में से वो सिर्फ आधे का ही हकदार है ,और उसकी आधी सैलरी असल में उसकी पत्नी या घर की औरत की होती है /होनी चाहिए .
(यहाँ मैं ब्रोड पर्सपेक्टिव में बात कर रहा हूँ, मीन मेख निकाल कर या किसी स्तिथि विशेष के उद्दहरण देकर इनकी तुलना ना की जाए )
आज अगर इस नजरिये से देखा जाए तो औरत दोहरे नहीं बल्कि तिहरे शोषण का शिकार है।
# पहला वो शोषण जो उसे सामंती व्यवस्था वाले सामाजिक परिवेश से झेलना पड़ता है .
# दूसरा वो शोषण जो उसे खुद अपने घर में पुरुष सत्तात्मक समाज के लक्षणों से दो चार होते हुए झेलना पड़ता है .
# तीसरा शोषण वो है जो पूंजीपति एक मजदूर को कम मजदूरी देकर करता है, क्योंकि वो जब एक मजदूर को कम मजदूरी देता है तब वो एक औरत का अप्रत्यक्ष रूप से शोषण कर रहा होता है .वो औरत जो की पुरुष को अगले दिन काम करने की शक्ति अर्जित करने लायक बनाती है और उसे उसका पूरा मूल्य नहीं मिल पाता।
इसलिए आज हर कामगार इंसान को चाहे वो एक मजदूर हो या मनेजर, ये सोचना पडेगा की क्या ये व्यवस्था हमारे साथ न्याय कर पा रही है , क्या वो हमारे श्रम का हमें उचित मूल्य दे पा रही है , क्या आज हर मजदूर को उसके श्रम का उचित मूल्य मिलता है जिससे की वो अपने और अपने परिवार को ऊर्जावान और खुश रख सके, क्योंकि श्रम के शोषण का सीधा सीधा  मतलब औरत का शोषण होता है. आज ये उत्पादन व्यवस्था पूरी तरह निजिकरण पर टिकी हुई है जिसमे पूंजीपति का उद्देश्य सिर्फ और सिर्फ अपना मुनाफा बढ़ाना होता है जिसके लिए वो उन्नत मशीने लगा कर , मजदूरो की छटनी करता है या फिर उन्हें कम मजदूरी देकर और ज्यादा उत्पादन करवा कर अपना मुनाफा बढ़ता है। जिसका मतलब ये है की वो मजदूर ही नहीं वरन मजदूर के घर की औरतो का भी शोषण करता है .
औरतो के शोषण के खात्मे के लिए उत्पादन व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए की जिसमे मजदूर को उसके श्रम का सही मूल्य मिले और औरत को घर से बाहर निकाल कर सीधे सीधे उत्पादन व्यवस्था से जोड़ा जाए,  जिससे की वो मानव्  समाज की प्रगति और उत्पादन में भागिदार बने, उसे भी उसके श्रम का सही मूल्य मिले .वरना जब तक वो घर में रहेगी वो सिर्फ एक टूल बन कर रह जायेगी,,,,वो टूल जिससे की आप अपने को रिचार्ज करते हो ,,,अगले दिन काम पर जाने के लिये.
हमें इस निजी मुनाफे पर टिकी इस अर्धसामंती अर्धऔपनिवेशिक व्यवस्था को उखाड़ना पड़ेगा जो की औरतो को अपना माल बेचने के लिए इस्तेमाल करके ये भरम फैलाना चाहती है की आज औरते मर्दों के साथ कंधा से कंधा मिला कर चल रही है , दो चार सुनीता विलियम्स, ऐश्वर्या रॉय  और इंदिरा नूयी जैसी महिलाओं के उद्दाहरण देकर लोगो को भ्रमित किया जाता है की ये व्यवस्था संभावनाओं से भरी है और औरतो को आगे आना चाहिए . पर ये इक्का दुक्का उद्दहरण उन औरतो के है जो या तो खुद शोषक वर्ग से आती है या जो की उच्च माध्यम और उच्च वर्ग से सम्बंधित है .वो किसी भी प्रकार से आम जनता और समाज में रह रही महिला के शोषण और उत्पीडन से कोई सरोकार नहीं रखती .ना ही ये वो महिला वर्ग है जो सुबह 5 बजे उठकर किचन में जाती है और फिर दिन भर घर में पिसने के बाद रात को 11-12 बजे तक सबके सोने के बाद घर के बर्तन मांज कर और अगले दिन सुबह नाश्ते के लिए सब्जिया काट कर , फिर सोने जाती है .इसी समाज में हर रोज अनगिनत रेप , घरेलू हिंसा और सम्पूर्ण अफ्रीका महादीप में वेश्याव्रत्ति में शामिल महिलाओं की कुल संख्या से भी ज्यादा सेक्स वर्कर्स की भारत में मौजूद महिलाओं की संख्या इस व्यवस्था की पोल खोलने के लिए काफी है .   जिस तरह मानव समाज पुरुष और स्त्री के बराबर अनुपात से बनता है , उसी तरह व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई में औरतो की बराबर भागीदारी के बिना ये इन्किलाब भी पूरा नहीं हो सकता . व्यवस्था परिवर्तन की इस लड़ाई और हर प्रकार के शोषण से मुक्ति के लिए औरतो को क्रांति में ज्यादा से ज्यादा भागीदार बनाना ही एकमात्र उपाय है .
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अंत में कात्यायिनी जी की कविता की चंद लाइन ---

नहीं पराजित कर सके जिस तरह
मानवता की अमर-अजय आत्मा को
उसी तरह नहीं पराजित कर सके वे  हमारी अजेय आत्मा को,

आज भी वह संघर्षरत है ,नित-निरंतर उनके साथ
जिनके पास खोने को सिर्फ़ ज़ंजीरें ही हैं ,बिल्कुल हमारी ही तरह !






सबसे भुक्खड़ लोग



पंचतारा होटल में हजारो रुपैईय्ये  की सलाद की कुछ फांके खाने वाले ..
किसानो कर्मचारियों और मजदूरो के खून से सनी सभ्यता का लबादा डाले ..
ये शालीनता से कम खाने वाले  ....... दुनिया के सबसे  भुक्खड़ लोग है .

आसमा को चूमती इमारतों की तामीर करने की होड़ में ..
मजदूरी के पसीने से सींची इमारतों के नींवो की तामीर में ..
ये विदेशी इत्रों की खुशबू से लबरेज ......दुनिया के सबसे बदबूदार लोग है .

औरत को बराबरी का झांसा देकर दर हद तक इस्तेमाल करने वाले ..
नारी को ढोल बता कर ...शोषण को धर्मग्रंथो में जायज ठहराने वाले ..
ये शोषण की चीखो को धर्मोपदेश से ढकने वाले  ... दुनिया के सबसे हरामी लोग है .

सोमवार, 11 मार्च 2013

चुल्लू भर पानी में डूब मरो !


तमाम शोशल साइट्स पर पिछले 10 दिनों में डी.एस.पी जिया उल हक़  की शहादत के बाद जो बेशर्मी का खेल खेला गया वो ये बताने के लिए काफी था की इस मुल्क के हालत कभी नहीं सुधरने वाले और हम लोग यकीनन जिन हालातो में जी रहे है उन्ही हालातो में जीते रहेंगे। जैसा की पहले मैंने लिखा था की भारतीय अवाम अपने सामंती बन्धनों में इतनी बुरी तरह जकड़ी हुई है की वो समाज में घटने वाली हर घटना को पहले जाती धरम के नजरिये से देखती है , और हर मसले में गैर जरुरतन  हिन्दू मुस्लिम दलित सवर्ण दलगत राजनीती के मुद्दे डाल कर आपस में नूरा कुश्ती शुरू कर देती है . चूँकि ऐसे लोगो में खुद मानवीय संवेदनाये नहीं है इसलिए वो जिया उल हक़  की बेवा  परवीन आज़ाद की भावनाओं को समझने में नाकाम रहे, बल्कि उन भावनाओं का अपनी कुत्सित मानसिकता से मनगढ़ंत अर्थ निकाल कर एक बेवा के बारे में ऐसी घ्रणित बाते शुरू कर दी जिसे पढ़ कर शायद फ़रिश्ते भी शर्मशार हो जाए।
ये बात सही है की परवीन आज़ाद ये चाहती हैं की उन्हें डी.एस.पी की  ही पोस्ट मिले . लेकिन लोगो ने इन बातो का अर्थ कुछ ऐसा निकला की जैसे ये कोई बड़ी ही सरकारी मलाईदार पोस्ट है जिसे पाकर  परवीन आज़ाद मालामाल हो जायेंगी। तकनिकी रूप से शायद ये संभव नहीं की उन्हें ये पोस्ट मिल पाए , क्योंकि PPS (Provincial police service) की परीक्षा पास करने के बाद एक लम्बी प्रक्षिक्षण प्रक्रिया से गुजर कर ही "सी.ओ" या डी.एस.पी की पोस्ट मिलती है , जिसके लिए शायद परवीन आजाद शायद क्वालिफाइड नहीं हैं . लेकिन भावनातमक उफान के चलते और चंद महीनो पहले हुई शादी और अपने शौहर को शहीद होने का दर्द शायद उनकी भावनाओं को नहीं रोक पा रहा है .और उन्होंने इस पोस्ट की मांग रखी ! परवीन आज़ाद ये पोस्ट चाहती थी की शायद वो इस व्यवस्था में कुछ सुधार ला सके , शायद वो उस आतंक के पर्याय बने एक सड़  चुके सामन्ती समाज के पैरोकार एक तथाकथित सामंती नवाब के आतंक को चुनौती दे सके। परवीन आज़ाद ये पोस्ट चाहती थी की शायद वो इस प्रकार के हादसात को रोक सके या कम कर सके , परन्तु अगर आप आज भी उनके सारे टीवी इंटरव्यू को खंगाले तो आपको कंही भी ऐसा नहीं लगेगा की वो किसी लालच में आकर ये पोस्ट चाहती है , वो सिर्फ एक भावनात्मक जिद के चलते ये मांग कर रही है उन्होंने इस खोखली व्यवस्था के प्रति अविश्वास जताते हुए उस सीबीआई टीम के लोगो की जांच करने वालो के बायो डाटा भी देखने की मांग राखी ताकि बिना कसी पक्षपात के दोषी को बचने का मौका न मिल सके ,,,इसमें कुछ भी गलत नहीं है , हां ये बात अलग है की सरकारी नियमो के तहत ऐसा करना शायद संभव नहीं है .
उनकी मानसिक हालत कुछ ऐसी ही है जैसे की किसी इंसान के पिता को कोई गुंडा मार दे तो वो कानून , समाज और अपनी जान की परवाह किया बिना ये चिल्लाता है की मैं उस खूनी को सरे आम मार डालूँगा ! हालाँकि परवीन ये नहीं कह रही है क्योंकि वो एक पढ़ी लिखी महिला है लेकिन कमतर जिन्द्गाई तजुर्बे और गाँव वालो की सलाह के चलते शायद वो इस प्रकार की मांग रख रही है।
मगर मसला यहाँ परवीन की मांग का नहीं बल्कि उन लोगो की मरणासन्न हो  चुकी अपने स्वार्थ की सडांध मारती सामंती मानसिकता का है जो इस मसले में भी हिन्दू मुस्लिम का नजरिया रखते है और जिया उल हक की शहादत को शहीद हेमराज से तुलना करके परवीन आज़ाद के चरित्र हनन और उनके बारे में गन्दी गन्दी बाते कर रहे है। जिया और हेमराज दोनों भारत के ही सपूत थे , दोनों शहीद हुए और दोनों के परिवारों ने दुःख झेला . शहीद हेमराज की विधवा पत्नी ने भी रोते रोते अपने लिए उचित मुआवजे की मांग रखी थी और पेट्रोल पंप देने की बात कही थी . और बात दीगर की है की उन्हें राज्य सरकार , केंद्र सरकार ओए सेना की तरफ से अब तक 46 लाख रुपये मिल चुके है , पेट्रोल पंप मिलने का काम प्रक्रियाधीन है और गाँव में पक्की सड़क और उनके नाम पर स्कूल भी बनाया जाएगा . तो क्या हम ये कहे की शहीद हेमराज  विधवा  ख़ातून अपने पति की लाश की मार्केटिंग कर रही थी ....जी हां येही वो हर्फ़ है येही वो शब्दावली है जो आजकल के तथाकथित विद्वान् लोग परवीन आज़ाद के लिए कर रहे है.
आज इन्टरनेट और गूगल पर हर जगह परवीन आज़ाद के नाम की हजारो सूचनाये मिल रही है,,,,,लोगो ने इसका ठीकरा भी परवीन के सर ही फोड़ डाला , जैसे की इसके लिए भी वोही जिम्मेदार है . राजनितिक दलों के नेता उनसे मिलने और अपनी संवेदना प्रकट करने जा रहे है ,,,इसमें भी परवीन आज़ाद को मुसलमान होने का दंश झेलना पड़  रहा है. कुछ मुस्लिम धर्म गुरु भी अपने नंबर बनाने और राजनितिक फायदे के लिए वहा पहुच गए,,इसका जवाब भी परवीन से ही माँगा जा रहा है . परवीन लाश की मार्केटिंग कर रही है , मौत की ब्लैक मेलिंग , परवीन सेलेब्रेटी बनाना चाहती है वैगेहरा वैगेहरा .
ऐसा कहने और करने वाले ये इंसानी जज्बातो से महरूम वो लोग है जिन्हें ये तक एहसास नहीं की जिस औरत का तीन दिन पहले सुहाग उजड़ा हो , जिसके पति को एक जानवर से भी बुरी मौत नसीब हुई हो वो इतना दिमाग कहा से लाएगी और क्यों लाएगी , वो लड़की जिसने तीन दिन  एक अन्न का दान खाए बिना रोते रोते विक्षिप्त और लगभग बेहोशी की हालत में गुजारे हो वो क्या ऐसे वक़्त में इतना सोच सकती है की मेरे लिया क्या पोस्ट चाहिए और क्या नहीं, लेकिन जैसा की मैंने कहा की वो एक भावनात्मक जिद के चलते ऐसी मांग रख रही है जिसके पीछे की सोच ये है की अगर उन्हें ये पोस्ट मिल जाए तो वो शायद इस जुल्मो दहशत के कारोबार को शायद कुछ कम कर सके . यकीनन ये अमली तौर पर सही नहीं है लेकिन बिना किसी की परिस्तिथि और जज्बात समझे बिना शोशल साइट्स पर ऐसी भद्दी भद्दी बाते लिखना जितना शर्मनाक है उतना ही अमानवीय भी है . अमानवीय मैंने इसलिए लिए कहा क्योंकि एक शहीद की बेवा बन चुकी परवीन के चरित्र तक पर लोग उंगली उठाने शुरू हो गए है .
इन लोगो का मानसिक दिवालियापन यहाँ भी नहीं रुका, इससे बढ़कर ये लोग उस इंसान के सपोर्ट में खड़े हो गए जिसका पूरा इतिहास ही आपराधिक गतिविधियों से भरा पड़ा है , जिसने अपने व्यावसायिक और राजनितिक फायदे के लिए खुद अपनी राजपूत जाती ही नहीं बल्कि अपने खानदान तक के लोगो से जमकर लड़ाइया करी है। बीजेपी के नेता पूरण सिंह बुंदेला और अपनी ही एक रिश्ते की बहन रत्ना सिंह के साथ जिसकी खुनी दुश्मनी है , जो एक और इमानदार पोलिस ऑफिसर आर एस पाण्डेय के क़त्ल के केस में सीबीआई के शक के घेरे में है , इस ऑफिसर ने इस तथाकथित राजा के घर में रेड़  मारी थी .
इतने पर भी कुछ लोगो द्वारा इसका साथ देने का कारण ये है की  , ये लोग उसी  सामंती गुलामी से भरी मानसिकता के गुलाम है जिसमे हर इंसान सही गलत को भुला कर सिर्फ और सिर्फ अपने जातिगत ,आर्थिक और धार्मिक फायदे  को देखता है और अपनी इसी सहूलियत के हिसाब से अपना पक्ष चुन लेता है .
अगर शहीद होने वाले का नाम "जिया सिंह चौहान" होता तो येही लोग फिर शायद इस राजनितिक रंग देकर इन्हें समाजवादी पार्टी के होने की सजा के तौर पर खुद के कर्मो की सजा बताते, या फिर शायद दोनों राजपूतो में से ज्यादा रसूख रखने वाले का साथ देते .
अगर शहीद होने वाले का नाम "जिया लाल त्रिपाठी" होता तो शायद ये लोग इसे राजपूत और ब्राह्मण के नाम पर लड़ते .
अगर शहीद होने वाले का नाम " जिया लाल वाल्मीकि" होता तो ये लोग शायद उच्च जात और नीची जात के नाम पर लड़ते .

नाम कोई भी हो पर ये तय है की इस घटना को ये धरम और जात के नजरिये से देखकर लड़ते जरूर , शायद येही इस समाज की सामंती फितरत और हिन्दुत्ववादी संस्कारों का दोगला जैविक गुणधर्म है जिसकी वजह से सैकड़ो सालो तक शोषणकारी शक्तियां भारत की जनता को लूटती रही, आज भी लूट रही है.... और आगे भी लूटती रहेंगी !

बुधवार, 6 मार्च 2013

गणेश जी ने दूध पीया !.. "ज़िया -उल-हक़" शहीद हो गए !


शीर्षक देख कर आप चौक गए ना ?  लेकिन यकीन जानिए की गणेश जी के दुग्धपान करने और डी एस पी "जिया उल हक़ " की शहादत वाली घटना में अद्भुत समानता है .
हुआ यूँ की आज से लगभग 20 साल पहले अमेरिकी साम्राज्यवादियो ने एक एक्सपेरिमेंट करा था , उस एक्सपेरिमेंट का उद्देश्य ये जानना था की भारत की जनता अंधविश्वास के कितने गहरे गर्त में डूबी हुई है , और ये इसलिए किया गया की उन्ही दिनों भारत साम्राज्यवादियो द्वारा चलाये गए अभियान के तहत आर्थिक उदारीकरण और मुक्त बाजार व्यवस्था  के लिए हमारे देश को लूटने के लिए विदेशियों को आमंत्रित करना शुरू कर चूका था ! जैसा की ये सर्वविदित है की किसी भी देश में जब पूँजी की लूट शुरू होती है तो उसके खिलाफ संघर्ष भी शुरू हो जाता है, इसलिए उसी संघर्ष को दबाने के लिए जनता को जात पात धरम के नाम पर तो बांटा ही जाता है लेकिन साथ साथ ये भी जानना जरूरी होता है की उस देश विशेष के लोगो का बुद्धि का स्तर कितना है,,,क्या वो लोग हमारी लूट को समझ पायेंगे , या फिर उस लूट को किसी तरह हम इन दुर्बुद्धि लोगो को जायज ठहरा पायेंगे ?इसी साजिश के तहत 21 सितम्बर 1995 को अमेरिका के एक इन्टरनेशनल  मंदिर इस्कोन से एक अफवाह उडाई गयी की "भारत का एक भगवान् आज सुबह से दूध पी रहा है " और इस खबर को किसी तरह भारत में पंहुचा दिया गया . सबसे पहले दिल्ली के एक मंदिर में इस खबर पर मोहर लगाई की हांजी आज भगवान् दूध पि रहे है ,बस फिर क्या था चाँद ही मिनटों में ये खबर भारत के कोने कोने फ़ैल गयी और लोग अंधे होकर हाथो में दूध का लोटा लेकर मंदिरों में इकठ्ठा होना शुरू हो गए .भगवान् ने दूध पिया या नहीं पिया या क्यों पीया ये सब तो अलग बहस की बाते है , लेकिन हां ये प्रयोग की सफलता देख कर साम्राज्यवादी शक्तियों की बांछे खिल गयी . उनके लिए तो ये ऐसा ही था जैसे की कोई चोर किसी घर में चोरी करने के लिए घुसा और उसने देखा की घर के सभी लॊग अफ़ीम खाकर टुन्न बेसुध हुए पड़े है ...और चोर ने बड़े आराम से घर में लूट मचाई और चलता बना।
इस घटना के बाद पूँजी की लूट के माठाधीषों को ये समझ में आ गया की दुनिया की सबसे बड़ी मंडी बनाने जा रहा भारत के लोग पहले से ही अफीम के नशे में डूबे हुए है, और इन्हें लूटने में कोई परेशानी नहीं आने वाली .

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कट ------  कट ------ कट ...... सीन चेंज..............
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जगह - उत्तर प्रदेश
तहसील- कुंडा , गाँव- वलीपुर
घटना - पुलिस डी एस पी "जिया-उल-हक़ " की कुछ लोगो ने ह्त्या कर दी
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इस दुर्घटना का बैक ग्राउण्ड आपको मालूम ही है ,तो मैं सीधे इस घटना के बाद के माहौल पर कुछ रौशनी डालता हूँ। ये घटना और इससे जुडी कुछ बाते बड़ी पेंचीदा थी,,,,,,,जैसे की "मरहूम जिया-उल-हक़ एक मुसलमान थे, ह्त्या करने वाले और उनके आका लोग राजपूत थे , घटना के मुख्य आरोपी के खैरख्वाह राजा भैय्या राज्य सरकार में मंत्री थे , राज्य सरकार जो कुछ ही महीने पहले चुन कर आई है उनकी जीत में मुस्लिम समुदाय का बड़ा योगदान था, सरकार के विपक्ष में एक दल बीजेपी है जो की मुस्लिम विरोधी माना जाता है ,....वगैहरा .. वगैहरा . जिया-उल-हक़ की शहादत के बाद अगले दो दिन तक तो सभी लोग दिमाग और संयम की हद में रहे लेकिन तीसरे दिन के बाद से सब लोग तहजीब के दायरे से बाहर निकल कर कबड्डी खेलना शुरू कर दिए और गाहे बगाहे फिर से शोषण कारी शक्तियों को ये सन्देश दे डाला की हम लोग सुधरने वाले नहीं है और सारी  जिन्दगी आपस में लड़ते रहेंगे. ये कैसे हुआ ..आइये देखते है .


इस घटना के बाद सबसे पहले सभी लोग एकमत से ये मान कर चल रहे थे की ये घटना एक दबंग की गुंडई का परिणाम है जिसमे एक इमानदार ओफ्फिसर को अपनी जान गवानी पड़ी .और खुद सपा के समर्थक भी राज्य प्रशाशन  की इस ढील पर नाराज होते दिखे . कुछ बीजेपी और हिन्दूवादी देशभक्त लोग बुझे मन से इस घटना की निंदा तो करते रहे लेकिन मरने वाला एक मुसलमान था इसलिए एक दो कमेन्ट डाल कर जल्दी से इतिश्री कर डाली. और मुस्लिम समुदाय के लोग अपनी बेचारगी पर अफ़सोस जताते हुए दिखे . और वो दिल्ली में दामिनी की ह्त्या के बाद हुए प्रतिरोध जताने के लिए बाकी देशवासियों की तरफ हसरत भरी निगाहों से देखते रहे . लेकिन असली कहानी शुरू हुई तीन दिन बाद, जब सब लोग हमाम में नंगे होने शुरू हो गए.  # सबसे पहले सपा और मुलायम सिंह समर्थक लोग इस घटना से घबराने लगे की कही जिया की ह्त्या से सपा का मुस्लिम वोट बैंक न खिसक जाए , क्योंकि पिछले चुनावों में मायावती की हार का मुख्य कारण येही था की उसके मुस्लिम वोटो का ध्रुवीकरण मुलायम जी की तरफ हो गया था, ठीक वैसे ही जैसे 2007 में मायावती ने मुलायम को इसी मुस्लिम धुर्विकरण के तहत पराजित किया था। क्योंकि मायावती का दलित वोट कभी भी उनके आलावा कंही और वोट नहीं देता और उनकी जीत को सुनिश्चित करने वाले मुस्लिम वोट ही होते है .

लेकिन मुस्लिम भाइयो के बार बार विरोध के कारण घबराहट के तहत सपा समर्थक मर्यादा में तो रहे लेकिन अंततः उनका सब्र का बाँध टूटा और वो खुल कर पार्टी के बचाव में आकर सीधे सीधे आक्रामक होकर कहने लगे. " रजा भैय्या को निष्काषित कर दिया है , जिया के घर वालो को 50 लाख और नौकरी दे दी गयी है , और सीबीआई की जांच होगी,,,,और आपको क्या चाहिए ????"

# दूसरी जमात में वो लोग आते है जिन्हें इस घटना के "राजपूत" प्रेम जाग उठा और वो राजा भैया के राजपूत होने की वजह से खुलकर उसका साथ देने लगे .
इन साथियो ने सही गलत को समझने की कोशिश करे बिना ही रजा भैय्या को शेर बता कर खुल्ले आम उनका साथ दिया, ये प्रेम शायद इसलिए भी है की जातिगत कम्पेटिबिलिटी और दबंगई की वजह से रघुराज प्रताप सिंह बीजेपी में एंट्री पाने के लिए परफेक्ट है . उन्हें सपा छोड़ने तक की सलाह दे डाली , कुछ ने कहा की सपा तो आज है , कल नहीं रहेगी लेकिन राजा भैय्या का जलवा तो कल भी था और आने वाले कल में भी रहेगा .इनके तर्क के अनुसार जिस किसी ने "राजा" पर उंगली उठायी ये उसे न्याय पालिका की दुहाई देकर उसे जज ना बने की सलाह देने लगे , कुछ भाई तो यहाँ पर भी नहीं रुके और धमकी भरे अंदाज में लोगो को ऐसे हड़काना शुरू कर दिया की जैसे वो राजा के साथ रहने वाले लठैत हो , और धमकी भी ऐसी  "की बेटे घर से उठा लिए जाओगे" ...भले ही उन्होंने आज तक  " राजा " को देखा भी ना हो . मतलब उन्होंने अपनी पूरी राजपुताना शूरवीरता यहाँ पर दिखा दी।

# तीसरी जमात में इस मुल्क के सबसे बड़े देशभक्त आरएसएस और हिन्दू ह्रदय सम्राट श्री नरेन्द्र मोदी के भक्त लोग आते है , जिन्होंने सीधे सीधे इस घटना को हिन्दू मुस्लिम से जोड़ मारा , "जिया"  की ह्त्या की वजह या इस अराजकता पर सवाल उठाने की बजाय वो ये सिध्ह करने में लग गए की , मरने वाला एक मुसलमान था , मुसलमान था ,मुसलमान था.उनके महान तर्क कुछ इस प्रकार थे.  "जब कुम्भ मेले में लोग मरे तो इतना बवाल क्यों नहीं हुआ "

"बाटला हाउस में शर्मा जी शहीद हुए तो उनके लिए इतना हल्ला क्यों नहीं हुआ "
"ये मुसलमान था इसलिए इसे इतना भाव क्यों दिया जा रहा है ,,,,बांग्लादेश में हिन्दुओ की ह्त्या पर लोग क्यों नहीं बोल रहे है ..""
और एक देशभक्त हिन्दू ने तो यहाँ तक कह डाला ..."ठीक हुआ यार एक और मुल्ला कम हुआ इस धरती से"

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खैर "जिया-उल-हक़ " शहीद हो चुके है , पुलिस में प्राथमिकी दर्ज हो चुकी है और सियासत में हर राजनितिक दल इस घटना से अपने अपने फायदे को देख कर टिपण्णी दे रहे है।
लेकिन जो बात दीगर की है वो ये है की पूंजीवादी लुटेरो , उनके एजेंट राजनितिक दलों और पूंजीवादी शोषण को सही ठहराने वाले बुद्धिजीवी कलम घसीटो को ये घटना एक बहुत बड़े प्रयोग के तौर पर दिखी .प्रयोग ये की आप भारतीय समाज में जनता के बीच कोई भी ऐसी घटना करवा दीजिये, और फिर जनता उस घटना में से धर्मं ,जात, राजनितिक रुझान, क्षेत्रवाद जैसे मुद्दे  खुद-ब़ा -खुद ढूंढ़ कर आपस में ही जूतम पैजार शुरू कर देगी . लगभग ऐसे ही जैसे की दो अफीम के नशे में धुत्त इंसान सड़क पर आपस में लड़ते है और नशा उतर जाने के बाद फिर एक एक अफीम की गोली खाकर अपनी लड़ाई दोबारा चालू कर देते है। और इस बीच एक अफीम बेचने वाला पहले उन्हें ये नशा करवाता है और उनकी लड़ाई के दौरान उनके घर में घुस कर लूट पाट करके कल्टी हो लेता है .
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गणेश जी को पिलाया दूध आज भी नालियों में बह रहा है और जिया उल हक़ अपनी शहादत के 5 दिन बाद भी अपने मुल्क की जनता का ये हाल देख कर दुखी है। और जनता हमेशा की तरह एकजुट होकर व्यवस्था से लड़ने की बजाय जात, पात धर्मं , राजनैतिक दल, क्षेत्रवाद के पल्लू से चिपकी आपस में लड़ रही है. ठीक इसी समय पूंजीपति और उनके चाकर राजनैतिक दल इस दुर्भाग्यपूर्ण घटना को एक प्रयोग मान कर जश्न मना रहे है ! वैसे ही जैसे 1995 में गणेश जी के दूध वाले एक्सपेरिमेंट की सफलता के बाद मनाया था .इस स्वतः निर्मित प्रयोग की घटनाए अभी भी मुकरर्र है और आने वाले दिनों में इसके नए नए आयाम देखने को मिलेंगे

 बहरहाल ..
जात, पात ,धरम, क्षेत्र , अंधभक्ति और किसी भी स्वार्थ से परे  दिन रात शोषण  में पिसती भारत की मेहनतकश जनता की ओर से अपने भाई अपने दोस्त "ज़िया -उल-हक़ " को अश्रु  पूर्ण श्रधांजली।

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सोमवार, 4 मार्च 2013

नक्सलवाद - समस्या और विश्लेषण

नोट - ये लेख सिर्फ एक समस्या को समझने का प्रयास मात्र है, सिर्फ समस्या का विश्लेषण है , इसे समझने के लिए आपका विवेक जरुरी है !
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पिछले दिनों  Facebook  !!
पोल खोल!! " बोल .. की लब आज़ाद है तेरे " ग्रुप में नक्सलवाद पर काफी कुछ डिस्कस हुआ, कई दोस्तों ने इसके बारे में नेट से जानकारिय छाप छाप कर यहाँ पर पेस्ट करी .और अपने अपने विचार रखे ! अमूमन होता यही है , हम सभी लोग किसी भी बात पर बहुत जल्द यकीन कर लेते है, खासकरके जब वो हमारे पक्ष में या हमरी विचारधारा के हित में की गयी हो .
फिलहाल बात यहाँ की हो रही है नक्सलवाद की , तो इसे समझने के लिए हमें पहले सतही बातो से उठकर कुछ गहराई से सोचना पड़ेगा की ये समस्या क्या है .
इस बात की जड़ छुपी है शब्द "स्वतन्त्रता " में . इस शब्द को अगर हम ध्यान से देखे तो ये दो शब्दों से मिल कर बना है। "स्व और तंत्र " यानी की स्वयं के द्वारा बनाया गया तंत्र या अंग्रेजी में कहे तो सेल्फ मेड सिस्टम . तो आज भारत में प्रमुखतः दो प्रकार के लोग बसते है , एक वो जो भारत को 1947 से एक स्वतंत्र मुल्क मानते है , और दुसरे वो लोग जो ये मानते है की 1947 की घटना एक "स्वतंत्रता "नहीं बल्कि सिर्फ राजनितिक शक्ति का हस्तांतरण था.
स्वतंत्रता शब्द की कसौटी पर अगर हम देखे तो हमारा भारत देश किसी भी द्रष्टि से स्वतंत्र नजर नहीं आता, यहाँ का बजट , यहाँ की सेना , पुलिस और साड़ी नौकरशाही सिर्फ और सिर्फ एक विशेष वर्ग के हितो के लिए काम करती है , ना की आम जनता के लिए,और सिर्फ कहने के लिए जनता को वोट देने का अधिकार, संगठन बनाने और भाषण देने का अधिकार दिया हुआ है जिसे डेमोक्रेसी के रूप में दिखाया जाता है, लेकिन ये भी सिर्फ तब तक ही प्रयोग में रहता है की जब तक आप इस सिस्टम के लिए खतरा नहीं बन जाते, जैसे ही आप इस व्यवस्था के खिलाफ उठ खड़े होते है या सवाल करना शुरू कर देते है तो आपको "सिस्टम के लिए खतरा और यहाँ तक की आतंकवादी या देशद्रोही भी घोषित किया जा सकता है।
कहीं ये लोग वोही तो नहीं जो इस सिस्टम के मुह्ह पर बोलते है की ये मुल्क स्वतंत्र नहीं बल्कि परतंत्र है ..............चलिए शायद लेख के अंत तक ये निष्कर्ष निकल ही जाए।।।देखते है।
जैसा की मैंने कहा की कुछ लोगो मानते है की हमारा भारत देश किसी भी द्रष्टि से स्वतंत्र नजर नहीं है , उनके हिसाब से यहाँ का बजट , यहाँ की सेना , पुलिस और सारी नौकरशाही सिर्फ और सिर्फ एक विशेष वर्ग के हितो के लिए काम करती है, तो आखिर ये कौन सा वर्ग है जिसके लिए साड़ी सेना , नौकरशाही , पोलिस और सत्तारूढ़ पार्टी और विपक्षी पार्टिया काम करती है , और क्यों करती है . और क्या कारण है की वो इस व्यवस्था को बनाए रखना चाहती है .
इन लोगो के हिसाब से 1947 में स्वतंत्रता नहीं बल्कि सिर्फ सत्ता का हस्तांतरण हुआ था, जिसमे अँगरेज़ साम्राज्यवादी अपनी स्टेट भारत को दो टुकडो में बाँट कर अपने लिए काम करने वाले को सौप कर चले गए थे, लेकिन आर्थिक , राजीतिक और उत्पादन व्यवस्था में कोई भी परिवर्तन नहीं हुआ था। अंग्रेजो का यहाँ आना और यहाँ पर अपना राज कायम करने का प्रथम उद्देश्य हमें गुलाम बनाना नहीं बल्कि यहाँ के संसाधनों और सस्ते श्रम की लूट था, जिसके लिया यहाँ की जनता अगर आराम से तैयार हो जाती तो बल प्रयोग की कोई जरुरत नहीं थी और अगर नहीं होती तो वो लोग डंडे से शाशन करने को भी तैयार और अभ्यस्त थे, भारत में उन्हे जब जिसकी जरुरत हुई उन्होने वो तरीका इस्तेमाल किया
तो उस समय भारत में इस व्यवस्था का विरोध करने के लिए दोनों प्रकार के संघर्ष चल रहे थे, एक तरफ वो लोग थे जो इस देश को किसी भी दुसरे के बनाए तंत्र (सिस्टम) से मुक्त करके इसे सच्ची स्वतंत्रता दिलाना चाहते थे, और एक तरफ वो लोग थे जो बिना किसी आर्थिक और उत्पादन व्यवस्था के मालिको को बदले बिना की सिर्फ सत्ता पर कब्जा चाहते थे अंग्रेजो के साथ सहयोग करते हुए . और अंत में 1947 में क्या हुआ ये सबको पता है।
खैर अंग्रेज तो चले गए परन्तु उनका बनाया सिस्टम (उत्पादन व्यवस्था और राजनितिक तंत्र) ज्यो का त्यों बरकरार रहा।और हमारे राजनितिक दल उसके प्रति वफादारी से काम करते रहे 15 अगस्त का साल दर साल जश्न मनाते हुए .
लेकिन इन सबके वावजूद वो क्रांतिकारी वर्ग अब भी ज़िंदा था जो की संघर्ष चलाये रखना चाहता था और सच्ची स्वंत्रता के सपने देखा करता था। इस प्रकार की समझ रखने वाले लोग सबसे ज्यादा भारत की कम्युनिस्ट पार्टी में थे , जिन्होंने अपने निचले कार्यकर्ताओं को ये समझाया की " कोई बात नहीं अब हम भारत में बने हुए इसी संसदीय रस्ते से चलकर सत्ता में पहुच कर अपना स्वयम का तंत्र बनायेंगे और जनता को सच्ची आजादी का सुख देंगे, लेकिन 60 के दशक के अंत तक पार्टी के काम काज और प्रक्टिस को देख कर कई कार्यकर्ताओं के मन में ये शक पैदा होने लगा की ये पार्टी वोही सारे हथकंडे अपना रही है जो की बाकी सभी पार्टिया अपना रही थी जैसे की पूंजीपतियों से पैसे लेकर चुनाव लड़ना और उनके हितो के लिए काम करना , आदि आदि।
इस प्रक्टिस के विरुद्ध कुछ लोगो ने आवाज उठायी और पार्टी से सवाल किया की इस प्रकार आप पूंजीपतियों और शोषणकारी ताकतों के बनाए संसदीय मार्ग से चल कर कैसे व्यवस्था को स्वतंत्र बनायेंगे ?? ये तो फिर एक नयी गुलामी की तैयारी हो रही है जिसमे पूंजीपति वर्ग को ही फायदा होगा ?? आम जनता की स्वतंत्रता के लिए जो जमीनी काम होना चाहिए वो तो आज तक आपने शुरू ही नहीं किया।।??? इस प्रकार के सवालों से भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी घबरा गयी और उन कार्यकर्ताओं का बहिस्कार शुरू कर दिया।
तब उन्ही बहीस्कृत कार्यकर्ताओं ने पार्टी से नाता तोड़ कर पश्चिमी बंगाल से अपना अलग आन्दोलन शुरू किया। इस प्रकार भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से अलग हुए कार्यकर्ताओ "चारू मजूमदार" "जंगल संथाल" और कनु सान्याल के नेतृत्व में बंगाल के तीन गांवो "खाडीबाडी , फांसीदेवा ओर नक्सलबाड़ी नाम के गांव से आन्दोलन की शुरुआत हुई ...जो की आगे चलकर "नक्सलवादी आन्दोलन" कहलाया और इसके कार्यकर्ता "नक्सली" कहलाने लगे।चूंकि ये आन्दोलन उत्पादन व्यवस्था को किसी भी निजी फायदे से अलग रखने में यकीन रखता था और राज्य (नौकरशाही, आर्मी ,पोलिस, और न्यायलय) को सिर्फ इसके रक्षक के रूप में स्थापित करना चाहता था, लेकिन बहुत छोटे स्तर और स्टेट के द्वारा लगाये गये तमाम दवाबो और प्रतिबन्धो के चालते पहले चरण मे भूमि सुधार आन्दोलन चलाया गया जिसके तहत बड़े बड़े जमींदारों से उनकी जमीन लेकर सामूहिक खेती और उत्पादन को बढ़ावा दिया गया, जाहिर है की इसमें जमींदार आसानी से राजी नहीं हुए और राज्य द्वारा कानूनी और गैरकानूनी तरीको से नक्सलियों के खिलाफ हिंसात्मक प्रतिरोध करना शुरू किया ,जिसका नक्सालियो को पहले से ही अंदाजा था और उन्होंने भी इसके लिए अपनी मिलिशिया तैयार करी हुई थी, जिसका उन्होंने जमींदारों की ही भाषा में जवाब दिया । मार्क्स और एंगेल्स के द्वारा लिखित कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो के सिद्धांतो के आधार पर उतपादन के साधनों का राष्ट्रिय करण
और निजी मुनाफे के सिस्टम को ख़तम करने जैसे पवित्र उद्देश्यों को लेकर जब ये आन्दोलन आगे बढ़ा तो सारे देश के युवा वर्ग ने इसे हाथो हाथ लिया और तमाम विद्यार्थी वर्ग भी इसमें कूद पडा,कहा जाता है की उस समय कलकत्ता और दिल्ली और देश के कई बड़े शहरो के सभी रेलवे स्टेशनों पर पुलिस बल लगा दिया गया था जो हर आदमी से खासकरके अगर वो युवा है तो पूरी पड़ताल करने के बाद ही बंगाल जाने वाली गाडियों में जाने की इजाजत देता था। परंतू ये आन्दोलन बजाये कम होने के और विकराल रूप धारण करता गया , उस समय इस आन्दोलन को करीब से देखने वालो से बात करने पर पता चला की कलकत्ता के कई मेडिकल कॉलेज पूरे के पूरे ही खाली हो गए थे जिसके सारे स्टूडेंटस अपनी पढ़ाई बीच में छोड़कर आन्दोलन में शामिल हो गए और नक्सली बन गए। उस समय बंगाल की सरकार और जब पूरे राज्य की पुलिस आन्दोलन को रोकने में नाकामयाब रही तब केंद्र में सत्तारूढ़ इंदिरा गाँधी की सरकार से मदद मांगी गयी , और फिर शुरू हुआ आन्दोलन को कुचलने का एक विभत्स खेल। चूंकि ये वो समय था जब देश की बहुसंख्यक जनता दरिद्रता के दलदल में फंसी हुई थी और राजनैतिक अस्थिरता की वजह से देश में इमरजेंसी के हालात बनने शुरू हो गए थे, जिस वजह से आन्दोलन को कुचलने में सारे नियम कानून को ताक पर रख दिया गया और बंगाल सरकार और केंद्र ने मिल कर दुर्दांत हिंसा का सहारा लेकर आन्दोलन को कुचलना शुरू किया . ये दमन कितना भयंकर था इस बात का अंदाजा आप लगा सकते है की बंगाल के कई गाँवों में उस समय किसी भी युवा वर्ग को जिसकी उम्र 14-15 साल से ज्यादा हो , ज़िंदा नहीं छोड़ा गया था।
इस प्रकार आन्दोलन के एक चरण में 1972 में कामरेड चारू मजूमदार को पकड़ लिया गया , और मात्र 12 दिन में जेल में उनकी म्रत्यु हो गयी (असल में उनकी ह्त्या हुई थी, वो दमे से पीड़ित थे और बिमारी की हालत में उनके मुहह से ओक्सीजन मास्क हटा दिया था ). इस घटना ने आन्दोलन को और भड़का दिया जिससे की वो बंगाल के आलावा और राज्यों में भी फ़ैल गया।
फिलहाल ज्यादा डीटेल में ना जाते हुए बस इतना समझ लीजिये की अंततः आन्दोलन को हिंसात्मक दमन के द्वारा बहुत कमजोर कर दिया गया और नक्सलियो की गतिविधिया बहुत हद तक रोक दी गयी या फिर एक क्षेत्र तक सिमित रह गयी। उसके बाद कई सालो तक खुद नक्सली पार्टी (CPIML) सिद्धांतो और आन्दोलन चलाने के तरीको के अंतरविरोधो के चलते आपसी अंतर्द्वंद में उलझी रही , जिसकी परिणिति ये रही की नक्सली पार्टी खुद कई सारे ग्रुप्स में बंट गयी और अपने अपने प्रभाव क्षेत्र में स्वतंत्र रूप से सामानांतर रूप से अपनी अघोषित शाशन व्यवस्था चलाने लगी।जिसमे 1975 से लेकर 1980तक कई गुट बने और बिगड़े और कई ग्रुप मजबूत भी हुए।अंततः 90 के दशक तक आते आते दो प्रमुख नक्सली पार्टिया सबसे मजबूत अवस्था में अपने को टिका के रह पायी, यें थी माओईस्ट कम्युनिस्ट सेंटर (एमसीसी) और भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) या पीपल्स वार ग्रुप (PWG) . MCC मुख्यतः बिहार और बंगाल में मजबूत थी और PWG आन्ध्र प्रदेश में आदिवासी के हको के लिए लड़ते हुए स्टेट से भी संघर्ष रत थी। लेकिन दोनों पार्टियों के जनता के बीच में काम करने और सिद्धांतो को लेकर अन्तर्विरोध था। और सन 2004 में दोनों पार्टी के नेताओं ने सैधांतिक मतभेदों को दूर करते हुए दोनों पार्टी के विलय के बाद नयी पार्टी की घोषणा करी। जिसका नाम रखा गया " भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी )" या CPI (Mao).
ये पार्टी आज भी भारत को देशी-विदेशी पूँजी का गुलाम मानती है और ये मानती है की जब तक उत्पादन के साधन और उसके वितरण का अधिकार पूंजीपतियों से छीन कर जनता को नहीं दिया जायेगा तब तक भारत की जनता गुलामी से मुक्त नहीं हो सकती। ये पार्टी मानती है की आज के भारत में सभी राजनितिक पार्टिया सिर्फ पूंजीपतियों के दलालों या एजेंटो के रूप में काम करती है , जो की निजी रूप से उनसे पैसा लेती है और सत्ता में आने के बाद कानूनी या गैरकानूनी रूप से भारत के संसाधनों को पूंजीपतियों को कौड़ियो के भाव में बेच देती है। उसके बाद पूंजीपति अपने मुनाफे के लिए जनता के सस्ते श्रम का फायदा उठा आकर अपना मुनाफा कमाता है और अपनी मर्जी के हिसाब से उत्पादन को घटता या बढाता रहता है , इस प्रक्रिया में बहुसंख्यक जनता को घोर गरीबी और बेरोजगारी का सामना करना पड़ता है , जिससे पूंजीपति को कोई सरोकार नहीं होता। और जब जनता इसी से त्रस्त आकर व्यवस्था के खिलाफ उठ कड़ी होती है तो येही पूंजीपति अपनी एजेंट सत्तारूढ़ पार्टी से जनता का दमन करवाता है , सरकार भी पहले तो जनता की ताकत को जाती, धरम और क्षेत्र के नाम पर तोड़ने की कोशिश करती है , लेकिन जब इससे बात नहीं बनती तो वो हिंसात्मक दमन पर उतर आती है .
इस प्रकार के आन्दोलन आज भारत के लगभग हर हिस्से में चलते रहते है लेकिन येही आन्दोलन भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी ) अपनी खुद की हथियार बंध सेना के साथ चलाती है जिसमे बहुसंख्यक रूप से आदिवासी और गरीब मजदूर लोग है। ये आन्दोलन अब तक भारत के 200 से ज्यादा जिलो में फ़ैल चूका है और इसमें लगभग 20 हजार से ज्यादा लड़ाके सशत्र रूप से संघर्षरत है (जो की भारत की थल सेना का लगभग 15-20% के बराबर है ). BBC की एक रिपोर्ट के अनुसार अगर नक्सली इसी संख्या में बढ़ते रहे तो 2050 तक ये लोग भारतीय स्टेट पर रूप से कब्जा कर सकते है, और खुद नक्सलियों के दिवंगत शीर्ष नेता किशन जी का दावा था की वो लोग 2050 से कहीं पहले ये काम को अंजाम दे सकते है .जाहिर है जब किसी ग्रुप के इरादे इतने पक्के और खरनाक हो तो सरकार उनसे एक साथ कई मोर्चो पर लड़ाई करती है , या ये कहे की माओवादी कोई इधर उधर के बहाने ना बनाते हुए सीधे सीधे इस तंत्र को बल पूर्वक उखाड़ फेंकने की बात करते है तो सरकार उन्हें रोकने कमजोर करने और नष्ट करने के लिए हर हथकंडे अपनाती है .
खैर सब अपने अपने दावे करते है - सरकार कहती है की ये लोग बेकसूरों को मारते है , पब्लिक प्रोपर्टी को नुक्सान पहुचाते है , और नक्सली कहते है की हम जनता के लिए लड़ने वाले खुद जनता को क्यों मरेंगे, क्योंकि हमारे लड़ाके और सैनिक तो खुद ही जनता है तो उन्हें मार कर हम कैसे उन्हें अपने साथ ला सकते है , इसलिए ये सरकार के हमें बदनाम करने का षड्यंत्र है। इन्हें रोकने के लिए सरकार कभी रणवीर सेना, सलवा जुदम जैसे राज्य पोषित और अपराधियों के सशत्र संगठन बनवाती है, और कभी खुद किसी फर्जी और तथाकथित नक्सली ग्रुप से जबरन वसूली, बलात्कार और बेकसूरों को मरवाकर नक्सलवादियो को बदनाम करने की कोशिश करती है।
निष्कर्ष के तौर पर ये कहा जा सकता है की ये सबके अपने अपने विवेक पर निर्भर करता है की वो नक्सलियों की प्रक्टिस को सही मानता है या गलत , सरकार को सही मानता है या गलत।
लेकिन आज भी ये सवाल हम सबके सामने मुह बांये खडा है की " क्यों आज तक की सरकारे आदिवासियों का विकास करके उन्हें नक्सलियों की जमात से बाहर नहीं खींच पायी, आखिर क्यों आज भी भारत के हर राज्य के कई क्षेत्रो में हजारो लोग सुबह सुबह जंगल जाते है और लकडिया बीन कर उन्हें बेच कर अपना घर बार चलाते है ,इन्हें आज भी 65 साल बाद आजादी का मतलब नहीं पता चल पाया . और 40 साल में हजारो नक्सलियों को मारने के बावजूद भी भारत में बनने वाली सरकारे आज तक नक्सली विचारधारा को गलत साबित क्यों नहीं कर पायी" जिसका सबूत ये है की आज भी नक्सली दिन-ब -दिन सत्ता और व्यवस्था के खिलाफ और मजबूत होते जा रहे है।