विप्लव ! Vishvnath Dobhal
बेल्चे लाओ, खोलो ज़मीन की तहें !! हम कहाँ दफ़न है, कुछ पता तो चले !! उसको मज़हब कहो या सिआसत कहो!! खुद्कुशी का हुनर तुम सिखा तो चले!
मंगलवार, 22 नवंबर 2022
नेहरू (एक आलोचनात्मक लेख )
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एक बार युवा चंद्रशेखर आज़ाद को किसी तरह नेहरू जी से मिलने का मौक़ा मिला।
चंद्रशेकर आज़ाद उस समय नेहरू से समाजवादी रूस ( लेनिन नीत अक्टूबर क्रान्ति ) की नीतियों के तहत उसने भारत में सम्पूर्ण क्रान्ति का ज़िक्र कर बैठे।
स्वाभाविक है क्रान्ति का स्वरुप जो उन्होंने नेहरू के सामने रखा वो पूरी तरह ब्रिटिश सरकार के तख्ता पलट और सत्ता पर बलपूर्वक कब्ज़े के बाद शोषणरहित समाज की स्थापना का था।
जिस आदमी के साथ आज़ाद नेहरू से मिलने आये थे , उस आदमी से नेहरू ने कहा - की इस लड़के को समझाओ , ये कैसी अतिउत्साहवादी बातें कर रहा है ?
शायद ये ब्रिटेन के साम्रज्य्वादी फैलाव और उसकी मशीनी सभ्यता की ताकत को नहीं जानता ?
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साम्रज्य्वाद के फैलाव और मशीनी सभ्यता को सबसे पहले अपना चुके ब्रिटेन द्वारा तीसरी दुनिया में उपनिवेश बनाने के घटनाक्रम को जो भी इंसान वैज्ञानिक तरीके से समझता है ,,,वो कभी भी नेहरू या गांधी की वैचारिकी के आलोचनात्मक पहलू से अलग नहीं हो सकता।
गांधी नेहरू की पूरी विचारधारा साम्राज्यवादी ताकतों के सामने आत्मसमर्पण और शांतिपूर्ण सहयोग की रही थी। और इसके उनका पूरा जोर इस बात पर रहा की स्वतंत्रता के संघर्ष को वैज्ञानिक राह ना मिल पाए और भारत का क्रांतिकारी संघर्ष चीन में चलाये जा रहे जनयुद्ध और रशियन अक्टूबर क्रान्ति की शिक्षाओं से अनभिज्ञ ही रहे (वो दौर 1910 से लेकर 1950 तक जब पूरी दुनिया में नवजनवादी व् समाजवादी क्रांतियों के लिए संघर्ष/जनयुद्ध चल रहे थे ) .
ज़ाहिर है की शताब्दी के पहले हाफ में ब्रिटेन और बाद में अमेरिका सबसे बड़ी औपनिवेशिक ताकत थे , जिनके हाथ में दुनिया का अधिकतर कच्चा माल था ( उपनिवेशिक देशों के रूप में ) और लेकिन दोनों विश्वयुद्धों के तहत दुनिया एक एक बहुत बड़ा मार्केट रशिया और उसके संघीय देशो के रूप में अलग हो चुका था। और उसके बाद चीन भी समाजवादी क्रान्ति के तहत चीन भी इनके हाथ से जा चुका था।
इसलिए ब्रिटेन की सबसे बड़ी कोशिश ये थी की भारत में किसी भी हालत में चीन जैसी नवजनवादी क्रान्ति ना होने पाए।
अंततः हुआ ये की चालीस के दशक के बाद से डोमिनियन स्टेटस , वेलफेयर स्टेटस और तथाकथित रूप से समाजवादी मॉडल की सरकार बनाने की ड्रामेबाजी शुरू हुई। ताकि रूस , चीन और पूर्वी यूरोप जैसे समाजवादी मॉडल्स को पनपने से रोका जा सके।
इसलिए भारत के स्वतंत्रता संघर्ष की दिशा असल में क्या होनी चाहिए थी ये सवाल अब भी चिंतन योग्य है, और ये भी की नेहरू गांधी पटेल साहेब की साम्रज्य्वादियो के साथ परस्पर सहयोग से इसको किस दिशा में मोड़ दिया गया।
अगर मैं ये कहूँ की नेहरू ने साम्रज्य्वादी ब्रिटेन के डोमिनियन स्टेट को स्वीकार कर गलत किया तो तुरंत ये सवाल भी उठता है की अगर ऐसा नहीं होता तो फिर भारत में कौन सी ऐसी पार्टी थी जो की एक लम्बे जनयुद्ध या जनसंघर्ष चलाकर एक सम्पूर्ण क्रान्ति के लिए तैयार थी या संघर्षरत थी ?
यदि आपका जवाब सुभाष चंद्रा बोस की लाइन है तो शायद ये भी सवाल उठेगा की नेताजी की पूरी शक्ति जर्मन और जापान के तकनिकी सहयोग पर आधारित थी , और जो की खुद भी दूसरे साम्रज्य्वादी खेमें से लड़ रहे थे।
अब चूँकि नेताजी की भविष्य के लिए प्लानिंग थी ? ये जवाब मिलने से पहले ही वो दुर्घटना में कालग्रस्त हो गए थे , इसलिए ये बहस भी समाप्त हो जाती है।
तो उस समय के हिसाब से अगर डोमिनियन स्टेटस की थियोरी को सही माना जाए तो हम उस निर्णय के प्रगतिशील परिणाम के तौर पर इतना मान ही सकतें हैं की पूंजीवादी उत्पादन के शुरआत के लिए भारत के राजो रजवाड़ो वाले सामंती ढाँचे के खात्मे की शुरुआत करके आधा अधूरा ही सही लेकिन भारत को एक जनतांत्रिक देह देने में नेहरू पटेल अच्छा खासा योगदान रहा।
इसके साथ साथ शीतयुद्ध के दौरान और निकिता ख्रुश्चेव की शांतिपूर्ण संक्रमण के तहत नेहरू की सोवियत संघ के साथ नजदीकियां और सोवियत ढांचे की नक़ल के तहत पंचायती राज और सहकारी व् पब्लिक सेक्टर की संस्थाओ को बढ़ाने की कोशिश का भी भारत ठीक ठाक योगदान रहा , लेकिन ये ढांचा खुद रूस की संशोधनवादी पार्टी ( पोस्ट स्टालिन इरा ) के कार्यक्रम पर आधारित था इसलिए नेहरू के बाद की कोन्ग्रेस्स के समय इसका जो हश्र हुआ वो स्वाभाविक ही था।
नेहरू की तारीफ की जानी जितनी जरुरी है , उतना ही जरुरी ये भी है की हम उनकी नीतियों के आलोचनात्मक पहलू को भी सामने रखें।
इसलिए यदि आप संघी व्हाट्सअप्पस की मनोहर छाप कहानियों से इतर नेहरू का एक सही आलोचनात्मक पहलु देखना चाहतें हैं - अगर आपको नेहरू और गांधी की शिष्टपूर्ण तकनिकी तौर पर आलोचना सुननी हो तो आप किसी वामपंथी से मिलिए।
क्योंकि इन फासिस्टों से मुक्ति के बाद भी अगर आप नेहरू साब की मध्यमार्ग या लिबरल वेलफेयर राजनीती के पक्षधर हैं तो ये ध्यान में रखना होगा की मध्यमार्गी राजनीती के पूरे काल में फासिस्ट एक चेन से बंधे कुत्तों के सामान होतें हैं। जिनकी चेन खुलने की संभावना हमेशा बानी रहती है।
इसलिए नेहरू के गुणगान जरूर कीजिये , लेकिन निंदक नियरे जरूर रखिये।
थैंक्स
सोमवार, 22 जून 2020
उड़द- राजमा की दाल पर तैरता हुआ "देशी घी"
उड़द- राजमा की दाल पर तैरता हुआ "देशी घी"
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दादी और उनके बाद फिर मम्मी दूध उबालने के बाद मलाई निकाल देतीं थी। फिर हफ्ते दस दिन में उसे मथ कर सफ़ेद मक्खन और फिर कढ़ाई में घी तैयार होता था।
उसके बाद घी अलग और फिर कढ़ाई में घी की की खुरचन को रोटी पर डाल दिया जाता था। उसमे चीनी लगा के रोटी का घी रोल बना के खातें थे।
बचपन में जो दाल या सब्जी पसंद नहीं आती थी वो भी घी डालने के बाद दिव्य स्वाद की सीमा पर होती थी। टिंडे लौकी और मलका ऐसे ही खिलाई जाती थी।
घी निकालने के बाद उन्हें शीशे या स्टील के मर्तबान में रख दिया जाता था जिसपर मम्मियों की जागीरदारी होती थी , थाली में खाना डालने के बाद मम्मियां ही चम्मच से सबके खाने में घी डालतीं थी।
घर के सदस्यों की संख्या के हिसाब से घी देने का गणित ऐसे प्रोग्राम होता था की डिब्बा ख़तम होने से दो दिन पहले ही रोज जमा की हुई मलाई अगल घी बनाने के लिए तैयार रहती थी।
कभी कभी अपने आप भी घी डाल लिया जाता था। लेकिन बच्चो द्वारा घी की ये चोरी एकमात्र ऐसी शरारत थी जिसपर कोई सज़ा नहीं हुआ करती थी।
मंडुवे , मक्के, बेसन और ज्वार की रोटी में देशी घी डाल लिया जाए तो सिर्फ नमक मिर्च की चटनी हो या फिर कोई साग , ऐसी हर डिश जो आज की जेनेरेशन को अजीब लग सकती है लेकिन आज भी दादा दादी या पापा के सामने अगर ये कॉम्बिनेशन आ जाए तो वो अपने "ब्लड प्रेशर , शुगर , यूरिक ऐसिड बीमारियों " को दो गाली देते हुए तोड़ के देशी घी की रोटी का आनंद लेते हैं।
बचपन में किसी के घर अगर आप घी में चुपड़ी रोटी या दाल कम खाओ या आधी छोड़ दो तो आपका उपहास बनने और शारीरिक रूप से कमजोर होने का लांछन लगने की पूरी संभावना रहती थी।
मांसाहरियों की बात की जाए तो उस समय (और आज भी ) मीट खाने वालो का देशी घी को लेके अपना अलग ही टशन होता था।
हमारे चाचा, ताऊ , मौसा जी लोग पैंट शर्ट उतार के निक्कर बनियान पहन के अपनी हिलती हुई तोंद और पूरी तैयारी के साथ देशी घी का चिकन या बकरा बनाने का प्रोग्राम चलाते थे । और साथ में अपनी पाक कला की खुद ही तारीफें और दबादब लम्बी लम्बी छोड़ी जाती थी. बीच बीच में नए नए जवान हो रहे लौंडो को देशी घी के फायदे आँख मार के गिनवाए जाते थे। बड़े लेवल के फेंकू लोग तो यहाँ तक भी बोल देतें थे की " बेटे जवानी में तो मैं एक किलो घी पी जाया करता था ". लेकिन ये सच है की कुछ पहलवान टाइप लोग ऐसे होतें भी थे। छोटे शहरों और गाँवों में किसी की भी सम्पन्नता का पैमाना उसके घर में हो रहे देशी घी की उपभोग की मात्रा से तय हुआ करता था। लोग शान से बताते थे की - "भाईसाब हमारे घर में रोज का एक किलो से ज्यादा का देशी घी लगता है"
बहरहाल इन किस्सों में जितनी भी सच्चाई हो लेकिन ये बात पक्की है की उस समय देशी घी ताकत,अच्छे स्वास्थ्य ,हिम्मत,सम्पन्नता, चपलता ,तेज दिमाग और अच्छी आदतों का प्रतीक था।
जब हम टीन-ऐजर हुए तो फ़ुटबाल बॉक्सिंग और जिम का शौक चर्राया , उस समय प्रोटीन, कार्बोहायड्रेट फ़ैट को गिन गिन के खाने के दिन नहीं थे। प्री -वर्कआउट , पोस्ट-वर्कआउट, BCAA , ग्लूटामाइन जैसे फ़लसफ़े मार्केट में लूट नहीं मचा रहे थे।
चने, बादाम ,काजू मौसम्मी का जूस , दूध दही ,मीट ही सबकुछ थे। लेकिन देशी घी तब भी सबका सिरमौर था।
कारण बहुत ही आसानी से समझ में आने वाला था - क्योंकि किसी भी परिवार के आर्थिक हालात कैसे भी हों , चाहे आमदनी बस कमाने और खाने भर की हो , लेकिन घी हर घर में मौजूद रहता था।
शहरों की बात करें तो हर घर में तीनो खाने ( नाश्ता , लंच और डिनर ) में घी अफोर्ड करने वाले लोग संपन्न की श्रेणी में गिने जा सकते थे। धीरे धीरे गाँव या घर का घी मिलना कम होता गया और दैनिक दिनचर्या की व्यस्तता की वजह से मॉर्डन मम्मियों ने दूध से घी निकालने की कला को एक झंझट मान छोड़ दिया।
फिर भी कभी कभार गाँव जाना होता या कोई रिश्तेदार गाँव से आता तो देशी घी की डिमांड सर्वोपरि होती थी।
शहरों में देशी घी के सस्ते ठग भी बहुत मशहूर हुए , जो की अपने बर्तन में ऊपर देशी घी की परत दिखा के नीचे डालडा घी भर देते थे। उन ठगों ने शहर की महिलाओं को खूब बेवक़ूफ़ बनाया। मजेदार था जब दिन में वो ठग मम्मी को घी बेच जाता था और रात को पापा खूब हँसते और मम्मी की मज़ाक उड़ाते थे।
90 के दशक के बाजारीकरण की शुरुआत के बाद अच्छी आमदनी वालो ने घर के घी की बजाय मार्केट से डिब्बाबंद (अमूल घी,सपन आदि के ) घी खरीदने शुरू कर दिया , हालाँकि ये शंशय हमेशा बना रहा की ये घी नकली होता है। लेकिन फिर भी स्वाद तंत्रिकाओं तक वो देशी घी की महक देने तक तो काम चला ही देता था।
लेकिन कम आमदनी वाले घरों की मम्मी दादियों और अम्मा ने दूध की मलाई से घी निकालने की परम्परा को अभी तक खींच के रक्खा है।
शहरों के बनिस्बत गाँवों में आर्थिक हालत घी को अफोर्ड करने और खाने पर कोई फरक नहीं डाल पाया। गाँवों में सिर्फ देशी घी ही एक ऐसी चीज है जो आज भी एक कम आमदनी वाले परिवार को संपन्न होने का एहसास दिलाता है।
गाँव देहातों के नुक्कड़ पर आज भी बकैतों की टोली आपको मिल जायेगी जो अपनी मर्दानगी के किस्से बताते हुए उसका जिम्मेदार या तो देशी घी को बताएँगे या फिर अंडे की पीली ज़र्दी को।
उसके बाद भारतीय समाज ने नयी सस्राब्दि में प्रवेश किया और देशी घी पर हर तरफ से हमले होने शुरू हो गए , ये लगभग 2005 तक चला। लेकिन असली बरबादी सुचना क्रांति इंटरनेट के रफ़्तार पकड़ने के बाद शुरू हुई , 2005-2010 तक से ही टीवी और इंटरनेट पर हेल्थ एक्सपर्ट और स्वघोषित डाक्टरों और कोचों की भीड़ पैदा हो गयी। इन हरामखोरो ने सबसे पहले देशी घी को सबसे बड़ा कल्प्रिट घोषित कर डाला। सलमान खान, जॉन अब्राहिम का उद्भव और "ॐ शान्ति ॐ" फिल्म में शाहरूख के सिक्स पैक के हल्ले ने देशी घी को हाथ तक ना लगाने की सलाह दे डाली ।
यहां मैं सभी डॉक्टर्स को गलत नहीं कह रहा , क्योंकि लोगो को भी अपनी जीभ पर कंट्रोल नहीं था , खूब डिब्बाबंद घी खातें थे लेकिन शारीरिक काम काज या एक्सेर्साइज़ करनी हो तो बस एडिडास या नाइकी के जूते खरीदने तक ही सारा मोटिवेशन फुर्र हो जाता था , तो ज़ाहिर है ऐसे हालात में डॉक्टर आपसे पैसा खींचने के लिएऔर अपनी बुद्धिजीविता का प्रदर्शन करने के तहत आपको देशी घी और मक्खन से बचने की सलाह दे डालते थे।
इंटरनेटिये डॉक्टरों ने घी को तो लगभग एक अपराधी ही घोषित कर दिया। मतलब एक चम्मच घी को उन्होंने एक दिल का दौरा करार दे दिया। ये वो समय था जब रिफाइंड आयल ने देशी घी और सरसों के तेल को हाशिये पर पहुंचा दिया।
घर घर में पूरियां , मीट ,परांठे और लगभग हर चीज रिफाइंड आयल में बनने लगी। टीवी पर से देशी घी के विज्ञापनों का नामो निशाँ मिटा दिया गया।
फ़ूड माफियाओ ने गाँव देहातों के दूध पर पूरी तरह कब्जा करके दूध के हर हिस्से को अलग थलग कर उसे अनगिनत व्यवसायों में इस्तेमाल करना शुरू कर दिया। टोन्ड दूध , डबल टोन्ड दूध , फुल क्रीम दूध , फ्लेवर्ड दूध , फ्लेवर्ड लस्सी ना जाने क्या क्या उटपटांग कॉन्सेप्ट लोगो के सामने परोसे गए ,और आश्चर्जनक रूप से सफल भी हो गए। और कुछ ज्यादा पढ़ लिख गए लोग गाय और भैंस के दूध से बने घी पर लम्बी लम्बी बहस करने बैठ गए। लेकिन जब भी देशी घी सामे आता है तो बड़े बड़े विद्वानों को गाय या भैंस के दूध के घी की बहस की दार्शनिकता छोड़ अपने खाने में घी डालने की इन्तेजारी करते देखा है।
आज जब अपने शहर जाता हूँ तो स्टेशन से निकलते ही अपने सरदार अंकिल की डेयरी आज भी दिखाई देती है , लेकिन दुखद रूप से बचपन में वो एक बड़ी सी दूकान रुपी डेयरी एक छोटे से खोखे के सामान मालूम पड़ती है। बड़ी बड़ी दुकानों के बीच में दब चुकी डेयरी में आज भी सरदार अंकिल बैठे दिखाई देतें हैं , और उनके सामने वही चिरपरिचित बड़ा सा देशी घी का डेगचा रखा होता है। शायद गनिमत है की लोग आज भी उनकी दूकान के देशी घी की शुद्धता के चलते उनसे जुड़े हुए हैं।
फिलहाल आज भी भारत पकिस्तान के लड़को द्वारा यूट्यूब में चलाये जा रहे फ़ूड ब्लॉग्स को देखता हूँ तो देशी घी के प्रति प्यार उमड़ पड़ता है। पाकिस्तान के राणा हम्ज़ा सैफ , भारत के हरीश बाली , थाईलैंड के मार्क ट्वाइन , कनाडा के ट्रेवर जेम्स और अमेरिका के सोनी साइड कुछ ऐसे फ़ूड ब्लॉगर्स हैं जिनके फ़ूड वीडियो में आपको भारतीय उपमहाद्वीप में देशी घी के खाने के प्रति सम्मोहन अलग ही दिखाई देता है। है।
बहरहाल आज हालत ये है की विदेशो में घी को एक नए कॉन्सेप्ट के रूप में लोगो को खाने की सलाह दी जा रही है। यकीन मानिये जिस चीज को हम लोग हज़ारो सालों से खा रहें हैं वो लोग आज इस घी को अपने खाने में शामिल करने की कवायद में हैं।
मैं अब यहाँ आपको देशी घी की न्यूट्रीएंट्स वैल्यू और उसमे शामिल पोषण की गिनती करा के बोर नहीं करूंगा , वो आपको इंटरनेट पर मिल जायेगी . लेकिन एक कम्पटीटिव एथलीट होने के नाते अपने अनुभव के तौर पर कह सकता हूँ की आज भी देशी घी खाने से कोई नुक्सान नहीं है। अगर आप किसी ऐसे खेल में हैं जिसमे वजन का बहुत महत्त्व है ( जैसे की बॉडीबिल्डिंग , मैन्स फिजिक , छोटे वेट कैटेगिरी की बॉक्सिंग , कुश्ती इत्यादि ) तो घी की मात्रा का ख्याल रखें। लेकिन यदि आप बड़े वेट कैटेगिरी (कुश्ती , पावर लिफ्टिंग , वेट लिफ्टिंग) में खेलते हैं तो घी खाने का कोई नुक्सान नहीं है। इसके उलट ये आपके हेल्थी फैटी एसिड की कमी को अच्छे से पूरा करता है।
सारे गुणा भाग का सार ये है की एक दो चम्मच देशी घी खा लो तो किसी को कोई भी नुक्सान नहीं है। और अगर नुकसान हुआ तो अपने बाकी के कुकर्म चेक करिये (स्मोकिंग , फास्टफूड या दारूबाजी ) नुक्सान का असली कारण वहीँ मिलेगा।
मैं लगभग रोज एक-दो चम्मच देशी घी खा लेता हूँ। उड़द- राजमा की दाल पर तैरता हुआ देशी घी मिझे स्वर्गिक आनंद की अनुभूति देता है। इसके आलावा साग , कोई भी दाल , मंडुवे , मायके चावल की रोटी जैसे कॉम्बिनेशन देशी घी के साथ खाने के लिए मैं उससे एक दिन पहले 5 -10 किलोमीटर की रनिंग भी मारनी पड़ जाए तो मुझे कोई परेशानी नहीं होती। जिस दिन अच्छी एक्सेर्साइज़ हो जाए या अच्छी रनिंग हो जाए तो मैं खुद को एक रिवार्ड के तौर पर देशी घी खाने की इज़ाज़त देता हूँ।कभी चाय में आधा चम्मच देशी घी डाल के पीजिएगा - ना मज़ा आ जाए तो कहना ?
तो मजे से देशी घी खाइये , कोशिश करिये की कहीं गाँव देहात से सही और शुद्ध देशी घी का इंतजाम हो सके। हर दो महीने ने एक-दो किलो का डिब्बा उठा लीजिये , गाँव वालो की भी आमदनी हो जायेगी।
देशी घी के मजे लेने हों तो आप इसके ऐवज में अपने खाने में चीनी कट कर दीजिये , परांठे और पूरी से परहेज कीजिये , कम तेल में खाना बनाइये , और इन सबके इनाम स्वरूप सब्जी दाल रोटी में देशी घी डाल के खाइये।
हैप्पी ईटिंग
एन्जॉय
बुधवार, 3 अगस्त 2016
विकसित सभ्यता
असल में ये माना जा चुका है की
दुनिया में सभ्यताएं अलग अलग चरणों में है
और परिपक्व हैं।
सबसे सभ्य होने वाले सरदार बन बैठे हैं।
सभ्यता के पायदान पर सबसे आगे वाले और उनके पिछलग्गू दोनों में होड़ है
के तुम महान हो और हम भी बस तुम्हारे आस पास ही हैं
लेकिन ढोर चराने वाले और कच्चा मांस खाने वाले
अब तक इस धरती पर बोझ माने जाने लगे हैं
हरामी रण्डी मादरचोद से भी नीचे जाकर शब्दो की खोज शुरू हुई है
कोई तो शीर्षक देना पडेगा इन इंसानों की खाल में इन पिछड़े जंगलियों को।
असल में ये माना जा चुका है की सभ्यता के विकास की ये अंतिम स्थली थी
बस अब यही रहेगी
बस अब इसे ही भोगो
और ये तब तक होगा
जब तक कोई और अरबो साल अगड़े विकसित गोले के लोग
अपने आसमानी सैर सपाटे के दौरान
हमें कीड़े मकोड़ो की तरह कुचल कर
आगे ना बढ़ जाए
असल में धरती की इन विकसित सभ्यताओं को तब शायद ये एहसास हो जाएगा
की वो अब भी जंगली अवस्था में ही थे।
मार्क्सवाद के अंतिम सूत्र शायद तब भी लिखे जाएंगे।
दुनिया में सभ्यताएं अलग अलग चरणों में है
और परिपक्व हैं।
सबसे सभ्य होने वाले सरदार बन बैठे हैं।
सभ्यता के पायदान पर सबसे आगे वाले और उनके पिछलग्गू दोनों में होड़ है
के तुम महान हो और हम भी बस तुम्हारे आस पास ही हैं
लेकिन ढोर चराने वाले और कच्चा मांस खाने वाले
अब तक इस धरती पर बोझ माने जाने लगे हैं
हरामी रण्डी मादरचोद से भी नीचे जाकर शब्दो की खोज शुरू हुई है
कोई तो शीर्षक देना पडेगा इन इंसानों की खाल में इन पिछड़े जंगलियों को।
असल में ये माना जा चुका है की सभ्यता के विकास की ये अंतिम स्थली थी
बस अब यही रहेगी
बस अब इसे ही भोगो
और ये तब तक होगा
जब तक कोई और अरबो साल अगड़े विकसित गोले के लोग
अपने आसमानी सैर सपाटे के दौरान
हमें कीड़े मकोड़ो की तरह कुचल कर
आगे ना बढ़ जाए
असल में धरती की इन विकसित सभ्यताओं को तब शायद ये एहसास हो जाएगा
की वो अब भी जंगली अवस्था में ही थे।
मार्क्सवाद के अंतिम सूत्र शायद तब भी लिखे जाएंगे।
रविवार, 31 जनवरी 2016
तानाशाह
तानाशाह असल में तानाशाह नहीं होते
वो सर्वोच्च अथॉरिटी नहीं होते।
तानाशाह भी पाले जातें है , उनके भी मालिक होते हैं।
तानाशाह देखा जाए तो पालतू कुत्ते होते हैं
एक बंधुआ नौकर की तरह
तानाशाह सवालो का जवाब नहीं देते
वो सवालो का जवाब दे भी नहीं सकते
उन्हें मालिको के लिए नीतियां लागू करवानी होती हैं।
इसके विरोध में जो भी आवाज उठाये उसे दबाना होता हैं
इसलिए उन्हें सिर्फ भौकने और काटने का आदेश होता है।
तानाशाह अक्सर अपने सर में गोली मार लेते हैं
या अंत में जनता उन्हें सड़को पर घसीट के मारती हैं
बिलकुल कुत्ते की मौत मरते हैं वो।
वो सर्वोच्च अथॉरिटी नहीं होते।
तानाशाह भी पाले जातें है , उनके भी मालिक होते हैं।
तानाशाह देखा जाए तो पालतू कुत्ते होते हैं
एक बंधुआ नौकर की तरह
तानाशाह सवालो का जवाब नहीं देते
वो सवालो का जवाब दे भी नहीं सकते
उन्हें मालिको के लिए नीतियां लागू करवानी होती हैं।
इसके विरोध में जो भी आवाज उठाये उसे दबाना होता हैं
इसलिए उन्हें सिर्फ भौकने और काटने का आदेश होता है।
तानाशाह अक्सर अपने सर में गोली मार लेते हैं
या अंत में जनता उन्हें सड़को पर घसीट के मारती हैं
बिलकुल कुत्ते की मौत मरते हैं वो।
बुधवार, 29 जुलाई 2015
मास्टर ऑफ़ पपेट्स
ये अपनी चालो में पूरी तरह से कामयाब जा रहा है ,
हम इसकी हर चाल में फंस रहे है।
हम का मतलब सिर्फ विरोधी ही नहीं।
इसके भक्त भी इसकी हर चाल में फंस रहे है।
ये दोनों को नचा रहा है।
आवाम को उलझा कर मुल्क को बेचने का हुनर है इसके पास
तभी तो इसे चुना गया है।
आँखे खोलो। ……दिमाग खोलो।
और अगली चाल का इन्तेजार करो
इसका हर गेम , हर चाल ..
मुल्क की तिज़ारत पर खामोशी से पर्दा डाल रहा है।
चाल को समझो
या फिर अपनी साम्प्रदायिक कुंठा के चरमोत्कर्ष स्खलन का मजा लेते रहो
देश बर्बादी की और दौड़ रहा है.
हम इसकी हर चाल में फंस रहे है।
हम का मतलब सिर्फ विरोधी ही नहीं।
इसके भक्त भी इसकी हर चाल में फंस रहे है।
ये दोनों को नचा रहा है।
आवाम को उलझा कर मुल्क को बेचने का हुनर है इसके पास
तभी तो इसे चुना गया है।
आँखे खोलो। ……दिमाग खोलो।
और अगली चाल का इन्तेजार करो
इसका हर गेम , हर चाल ..
मुल्क की तिज़ारत पर खामोशी से पर्दा डाल रहा है।
चाल को समझो
या फिर अपनी साम्प्रदायिक कुंठा के चरमोत्कर्ष स्खलन का मजा लेते रहो
देश बर्बादी की और दौड़ रहा है.
रविवार, 30 नवंबर 2014
बच्चे
बच्चे सर्दियों की धुप की तरह होते है
बच्चो को अच्छे से महसूस करना जरूरी है
बच्चो को प्यार करना जरूरी है
हो सकता है की आपका बच्चा
पढ़ाई लिखाई या किसी कला में बहुत तेज हो
हो सकता है की वो इन सबमे साधारण हो
हो सकता है की आपका बच्चा इनमे से कुछ भी अच्छा ना करता हो
बच्चो से किसी भी अच्छे या साधारण की उम्मीद , या खराब करने का डर मत पालो
किसी भी पढ़ाई , खेलकूद या कला में निपुण हो जाने को प्यार का पैमाना मत बनाना
बच्चो को प्यार देने की हर शर्त , बेशर्त होनी चाहिए !
सोमवार, 21 अप्रैल 2014
सकल ताड़ना के अधिकारी
गुजरात में सात दिन पहले हेलोदर गाँव में सरेआम चौराहे पर ज़िंदा जला दी गयी दलित महिला के नाम *****************************
इसी तरह। अब चाहो तो तुम मेरे बारे में भी अपनी राय बना सकते हो .
हो न हो ये दलित औरत भी शर्तिया ही .... रही होगी कोई छिनाल, रण्डी ,चालू ,मुँहजोर ?
बिना जाने समझे
अब तक तुमने मेरे बारे में अपनी राय बना ली होगी।
जैसे बनायी थी एक सफ़ेद चलती बस में इज्जत लुटती उस लड़की के लिए।
चालू थी , वर्ना इतनी रात में क्या कर रही थी अकेले लड़के के साथ ?इसी तरह। अब चाहो तो तुम मेरे बारे में भी अपनी राय बना सकते हो .
या कुछ और नाम दे दो , जो भी तुम लोगो ने सीखा है अपनी महान संस्कृति से.
लेकिन भूलना मत ...
व्यवस्था, जात और रवायतों की तीन तीन परतों में लिपटे ..लेकिन भूलना मत ...
औरत के शोषण से भरे ग्रंथो के सूत्रों की जब बखियां उघेड़ी जाएंगी।
उस दिन तुम्हारी वर्णव्यवस्था के मर्दवादी होने की पोल भी खुल के रहेगी।
क्योंकि बख्शा तो तुमने सीता को भी नहीं था।
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