सोमवार, 22 जून 2020

उड़द- राजमा की दाल पर तैरता हुआ "देशी घी"

उड़द- राजमा की दाल पर तैरता हुआ "देशी घी"
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दादी और उनके बाद फिर मम्मी दूध उबालने के बाद मलाई निकाल देतीं थी।  फिर हफ्ते दस दिन में उसे मथ कर सफ़ेद मक्खन और फिर कढ़ाई में घी तैयार होता था। 
उसके बाद घी अलग और फिर कढ़ाई में घी की की खुरचन को रोटी पर डाल दिया जाता था।  उसमे चीनी लगा के रोटी का घी रोल बना के खातें थे। 
बचपन में जो दाल या सब्जी पसंद नहीं आती थी वो भी घी डालने के बाद दिव्य स्वाद की सीमा पर होती थी।  टिंडे लौकी और मलका  ऐसे ही खिलाई जाती थी। 
घी निकालने के बाद उन्हें शीशे या स्टील के मर्तबान में रख दिया जाता था जिसपर मम्मियों की जागीरदारी होती थी , थाली में खाना डालने के बाद मम्मियां ही चम्मच से सबके खाने में घी डालतीं थी। 
घर के सदस्यों की संख्या के हिसाब से घी देने का गणित ऐसे प्रोग्राम होता था की डिब्बा ख़तम होने से दो दिन पहले ही रोज जमा की हुई मलाई अगल घी बनाने के लिए तैयार रहती थी। 
कभी कभी अपने आप भी घी डाल लिया जाता था।  लेकिन बच्चो द्वारा घी की ये चोरी एकमात्र ऐसी शरारत थी जिसपर कोई सज़ा नहीं हुआ करती थी।
मंडुवे , मक्के, बेसन और ज्वार की रोटी में देशी घी डाल लिया जाए तो सिर्फ नमक मिर्च की चटनी हो या फिर कोई साग , ऐसी हर डिश जो आज की जेनेरेशन को अजीब लग सकती है लेकिन आज भी  दादा दादी या पापा के सामने अगर ये कॉम्बिनेशन आ जाए तो वो अपने "ब्लड प्रेशर , शुगर , यूरिक ऐसिड बीमारियों " को दो गाली देते हुए तोड़ के देशी घी की रोटी का आनंद लेते हैं।

बचपन में किसी के घर अगर आप घी में चुपड़ी रोटी या दाल कम खाओ या आधी छोड़ दो तो आपका उपहास बनने और शारीरिक रूप से कमजोर होने का लांछन लगने की पूरी संभावना रहती थी। 
मांसाहरियों की बात की जाए तो उस समय (और आज भी ) मीट खाने वालो का देशी घी को लेके अपना अलग ही टशन होता था। 
हमारे चाचा, ताऊ , मौसा जी लोग पैंट शर्ट उतार के निक्कर बनियान पहन के अपनी हिलती हुई तोंद और पूरी तैयारी के साथ देशी घी का चिकन या बकरा बनाने का प्रोग्राम चलाते थे ।  और साथ में अपनी पाक कला की खुद ही तारीफें और दबादब लम्बी लम्बी छोड़ी जाती थी. बीच बीच में नए नए जवान हो रहे लौंडो को देशी घी के फायदे आँख मार के गिनवाए जाते थे। बड़े लेवल के फेंकू लोग तो यहाँ तक भी बोल देतें थे की " बेटे जवानी में तो मैं एक किलो घी पी जाया करता था ". लेकिन ये सच है की कुछ पहलवान टाइप लोग ऐसे  होतें भी थे। छोटे शहरों और गाँवों में किसी की भी सम्पन्नता का पैमाना उसके घर में हो रहे देशी घी की उपभोग की मात्रा से तय हुआ करता था।  लोग शान से बताते थे की - "भाईसाब हमारे घर में रोज का एक किलो से ज्यादा का देशी घी लगता है"  
बहरहाल इन किस्सों में जितनी भी सच्चाई हो लेकिन ये बात पक्की है की उस समय देशी घी ताकत,अच्छे स्वास्थ्य ,हिम्मत,सम्पन्नता, चपलता ,तेज दिमाग और अच्छी आदतों का प्रतीक था। 

जब हम टीन-ऐजर हुए तो फ़ुटबाल बॉक्सिंग और जिम का शौक चर्राया , उस समय प्रोटीन, कार्बोहायड्रेट फ़ैट को गिन गिन के खाने के दिन नहीं थे।  प्री -वर्कआउट , पोस्ट-वर्कआउट, BCAA , ग्लूटामाइन जैसे फ़लसफ़े मार्केट में लूट नहीं मचा रहे थे। 
चने, बादाम ,काजू  मौसम्मी का जूस , दूध दही ,मीट ही सबकुछ थे। लेकिन देशी घी तब भी सबका सिरमौर था। 
कारण बहुत ही आसानी से समझ में आने वाला था - क्योंकि किसी भी परिवार के आर्थिक हालात कैसे भी हों , चाहे आमदनी बस कमाने और खाने भर की हो , लेकिन घी हर घर में मौजूद रहता था। 

शहरों की बात करें तो हर घर में तीनो खाने ( नाश्ता , लंच और डिनर ) में घी अफोर्ड करने वाले लोग संपन्न की श्रेणी में गिने जा सकते थे। धीरे धीरे गाँव या घर का घी मिलना कम होता गया और दैनिक दिनचर्या की व्यस्तता की वजह से मॉर्डन मम्मियों ने दूध से घी निकालने की कला को एक झंझट मान छोड़ दिया। 
फिर भी कभी कभार गाँव जाना होता या कोई रिश्तेदार गाँव से आता तो देशी घी की डिमांड सर्वोपरि होती थी। 
शहरों में देशी घी के सस्ते ठग भी बहुत मशहूर हुए , जो की अपने बर्तन में ऊपर देशी घी की परत दिखा के नीचे डालडा घी भर देते थे।  उन ठगों ने शहर की महिलाओं को खूब बेवक़ूफ़ बनाया। मजेदार था जब दिन में वो ठग मम्मी को घी बेच जाता था और रात को पापा खूब हँसते और मम्मी की मज़ाक उड़ाते थे। 
 90 के दशक के बाजारीकरण की शुरुआत के बाद अच्छी आमदनी वालो ने घर के घी की बजाय मार्केट से डिब्बाबंद (अमूल घी,सपन आदि के ) घी खरीदने शुरू कर दिया , हालाँकि ये शंशय हमेशा बना रहा की ये घी नकली होता है।  लेकिन फिर भी स्वाद तंत्रिकाओं तक वो देशी घी की महक देने तक तो काम चला ही देता था। 
लेकिन कम आमदनी वाले घरों की मम्मी दादियों और अम्मा ने दूध की मलाई से घी निकालने की परम्परा को अभी तक खींच के रक्खा है। 
शहरों के बनिस्बत गाँवों में आर्थिक हालत घी को अफोर्ड करने और खाने पर कोई फरक नहीं डाल पाया। गाँवों में सिर्फ देशी घी ही एक ऐसी चीज है जो आज भी एक कम आमदनी वाले परिवार को संपन्न होने का एहसास दिलाता है। 
गाँव देहातों के नुक्कड़ पर आज भी बकैतों की टोली आपको मिल जायेगी जो अपनी मर्दानगी के किस्से बताते हुए उसका जिम्मेदार या तो देशी घी को बताएँगे या फिर अंडे की पीली ज़र्दी को। 

उसके बाद भारतीय समाज ने नयी सस्राब्दि में प्रवेश किया और देशी घी पर हर तरफ से हमले होने शुरू हो गए , ये लगभग 2005 तक चला।  लेकिन असली बरबादी सुचना क्रांति इंटरनेट के रफ़्तार पकड़ने के बाद शुरू हुई , 2005-2010 तक से ही टीवी और इंटरनेट पर हेल्थ एक्सपर्ट और स्वघोषित डाक्टरों और कोचों की भीड़ पैदा हो गयी।  इन हरामखोरो ने सबसे पहले देशी घी को सबसे बड़ा कल्प्रिट घोषित  कर डाला।  सलमान खान, जॉन अब्राहिम का उद्भव और "ॐ शान्ति ॐ"  फिल्म में शाहरूख के सिक्स पैक के हल्ले ने देशी घी को हाथ तक ना लगाने की सलाह  दे डाली । 
यहां मैं सभी डॉक्टर्स को गलत नहीं कह रहा , क्योंकि लोगो को भी अपनी जीभ पर कंट्रोल नहीं था , खूब डिब्बाबंद घी खातें थे लेकिन शारीरिक काम काज या एक्सेर्साइज़ करनी हो तो बस एडिडास या नाइकी के जूते खरीदने तक ही सारा मोटिवेशन फुर्र हो जाता था , तो ज़ाहिर है ऐसे हालात में डॉक्टर आपसे पैसा खींचने के लिएऔर अपनी बुद्धिजीविता का प्रदर्शन करने के तहत आपको देशी घी और मक्खन से बचने की सलाह दे डालते थे।   
इंटरनेटिये डॉक्टरों ने घी को तो लगभग एक अपराधी ही घोषित कर दिया।  मतलब एक चम्मच घी को उन्होंने एक दिल का दौरा करार  दे दिया।  ये वो समय था जब रिफाइंड आयल ने देशी घी और सरसों के तेल को हाशिये पर पहुंचा दिया। 
घर घर में पूरियां , मीट ,परांठे और लगभग हर चीज रिफाइंड आयल में बनने लगी।  टीवी पर से देशी घी के विज्ञापनों का नामो निशाँ मिटा दिया गया। 
फ़ूड माफियाओ ने गाँव देहातों के दूध पर पूरी तरह कब्जा करके दूध के हर हिस्से को अलग थलग कर उसे अनगिनत व्यवसायों में इस्तेमाल करना शुरू कर दिया। टोन्ड दूध , डबल टोन्ड दूध , फुल क्रीम दूध , फ्लेवर्ड दूध , फ्लेवर्ड लस्सी ना जाने क्या क्या उटपटांग कॉन्सेप्ट लोगो के सामने परोसे गए ,और आश्चर्जनक रूप से सफल भी हो गए। और कुछ ज्यादा पढ़ लिख गए लोग गाय और भैंस के दूध से बने घी पर लम्बी लम्बी बहस करने बैठ गए। लेकिन जब भी देशी घी सामे आता है तो बड़े बड़े विद्वानों को गाय या भैंस के दूध के घी की बहस की दार्शनिकता छोड़ अपने खाने में घी डालने की इन्तेजारी करते देखा है। 

आज जब अपने शहर जाता हूँ तो स्टेशन से निकलते ही अपने सरदार अंकिल की डेयरी आज भी दिखाई देती है , लेकिन दुखद रूप से बचपन में वो एक बड़ी सी दूकान रुपी डेयरी एक छोटे से खोखे के सामान मालूम पड़ती है।  बड़ी बड़ी दुकानों के बीच में दब चुकी डेयरी में आज भी सरदार अंकिल बैठे दिखाई देतें हैं , और उनके सामने वही चिरपरिचित बड़ा सा देशी घी का डेगचा रखा होता है। शायद गनिमत है की लोग आज भी उनकी दूकान के देशी घी की शुद्धता के चलते उनसे जुड़े हुए हैं। 
फिलहाल आज भी भारत पकिस्तान के लड़को द्वारा यूट्यूब में चलाये जा रहे फ़ूड ब्लॉग्स को देखता हूँ तो देशी घी के प्रति प्यार उमड़ पड़ता है।  पाकिस्तान के राणा हम्ज़ा सैफ , भारत के हरीश बाली , थाईलैंड के मार्क ट्वाइन , कनाडा के ट्रेवर जेम्स और अमेरिका के सोनी साइड कुछ ऐसे फ़ूड ब्लॉगर्स  हैं जिनके फ़ूड वीडियो में आपको भारतीय उपमहाद्वीप में देशी घी के खाने के प्रति सम्मोहन अलग ही दिखाई देता है। है। 

बहरहाल आज हालत  ये है की विदेशो में घी को एक नए कॉन्सेप्ट के रूप में लोगो को खाने की सलाह दी जा रही है।  यकीन मानिये जिस चीज को हम लोग हज़ारो सालों से खा रहें हैं वो लोग आज इस घी को अपने खाने में शामिल करने की कवायद में हैं। 
मैं अब यहाँ आपको देशी घी की न्यूट्रीएंट्स वैल्यू और उसमे शामिल पोषण की गिनती करा के बोर नहीं करूंगा , वो आपको इंटरनेट पर मिल जायेगी . लेकिन एक कम्पटीटिव एथलीट होने के नाते अपने अनुभव के तौर पर कह सकता हूँ की आज भी देशी घी  खाने से कोई नुक्सान नहीं है। अगर आप किसी ऐसे खेल में हैं जिसमे वजन का बहुत महत्त्व है ( जैसे की बॉडीबिल्डिंग , मैन्स फिजिक , छोटे वेट कैटेगिरी की बॉक्सिंग , कुश्ती इत्यादि ) तो घी की मात्रा का ख्याल रखें।  लेकिन यदि आप बड़े वेट कैटेगिरी (कुश्ती , पावर लिफ्टिंग , वेट लिफ्टिंग) में खेलते हैं तो घी खाने का कोई नुक्सान नहीं है। इसके उलट ये आपके हेल्थी फैटी एसिड की कमी को अच्छे से पूरा करता है। 
सारे गुणा भाग का सार ये है की एक दो चम्मच देशी घी खा लो तो किसी को कोई भी नुक्सान नहीं है। और अगर नुकसान हुआ तो अपने बाकी के कुकर्म चेक करिये (स्मोकिंग , फास्टफूड या दारूबाजी ) नुक्सान का असली कारण वहीँ मिलेगा। 
मैं लगभग रोज एक-दो चम्मच देशी घी खा लेता हूँ।  उड़द- राजमा की दाल पर तैरता हुआ देशी घी मिझे स्वर्गिक आनंद की अनुभूति देता है। इसके आलावा साग , कोई भी दाल , मंडुवे , मायके चावल की रोटी जैसे कॉम्बिनेशन देशी घी के साथ खाने के लिए मैं उससे एक दिन पहले 5 -10 किलोमीटर की रनिंग भी मारनी पड़ जाए तो मुझे कोई परेशानी नहीं होती। जिस दिन अच्छी एक्सेर्साइज़ हो जाए या अच्छी रनिंग हो जाए तो मैं खुद को एक रिवार्ड के तौर पर देशी घी खाने की इज़ाज़त देता हूँ।कभी चाय में आधा चम्मच देशी घी डाल के पीजिएगा - ना मज़ा आ जाए तो कहना ?

तो मजे से देशी घी खाइये , कोशिश करिये की कहीं गाँव देहात से सही और शुद्ध देशी घी का इंतजाम हो सके। हर दो महीने ने एक-दो किलो का डिब्बा उठा लीजिये , गाँव वालो की भी आमदनी हो जायेगी। 
देशी घी के मजे लेने हों तो आप इसके ऐवज में अपने खाने में चीनी कट कर दीजिये , परांठे और पूरी से परहेज कीजिये , कम तेल में खाना बनाइये , और इन सबके इनाम स्वरूप सब्जी दाल रोटी में देशी घी डाल के खाइये।

हैप्पी ईटिंग 
एन्जॉय