मंगलवार, 29 जनवरी 2013

मेरी लघु कहानियाँ - मंटो को समर्पित


दिल को झकझोंर देने वाली लघु  कहानियों के बेताज बादशाह ...सआदत हसन मंटो को समर्पित 



मेरी लघु कहानियाँ 
 (कहानियो में घटनाएं और चरित्रों के नाम काल्पनिक है,,,,किसी से इनका मेल खाना मात्र एक इत्तेफाक होगा - लेखक जिम्मेदार नहीं है  )


{ एक }

काला कुत्ता  -

दादी को एक ज्योतिषी ने बताया की 11 दिन तक काले कुत्ते को लड्डू खिलाओ तो शनि का प्रभाव कम होगा ,
दादी मुझे पूजा का लड्डू देकर गली में काले कुत्ते को खोज कर उसे खिलने के लिए देती है,
और मैं अगली गली में जाकर नुक्कड़ की दूकान से बड़ी गोल्ड फ्लेक लेकर पीने लगता हूँ .

फिर पन्नी से लड्डू  निकाल  कर खाता हूँ,,
सॉरी  काले कुत्ते ,,,,,,,,,,,,,,सिगरेट के बाद माउथ फ्रेशनर भी जरुरी होता है न .

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{ दो }

गन्दगी -

त्रिपाठी और शुक्ला जी डीटीसी से ऑफिस जा रहे थे , तभी लक्ष्मी नगर से कुछ मुसलमान बस में चढ़े ,,,,,
शुक्ल टू  त्रिपाठी - यार त्रिपाठी जी ये साले मुल्ले इतने गंदे क्यों रहते है यार.
त्रिपाठी - हां शुक्ला जी हमेशा गन्दगी फैलाते रहते है साले.
बस ITO  फ्लाई ओवर पर पहुंची !
अरे त्रिपाठी जी ,,यार खिड़की तो खोलो ज़रा, कल घर में पूजा थी, पूजा का सामान और हवन की राख यमुना नदी में फेंकनी है .
शुक्ल जी ने पूरी ताकत से पॉली थीन में भरी राख यमुना में उछाल दी, आधी राख  सड़क पर गिरी और बाकी यमुना में .
शुक्ला त्रिपाठी और पास बैठे दो चार और लोगो ने हाथ जोड़ कर बोला . "जय यमुना मैय्या" .

बस के साथ साथ चलते साइड में एक बाइक वाले के कपड़ो पर राख गिर गयी ! वो बाइक साइड में रोक कर राख साफ़ करता हुआ बोल रहा था
""सारे कपडे खराब कर दिए भो * ड़ी वाले ने .""
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{ तीन }

रिवोल्युसन -

यार आजा ना
""नहीं यार आज नहीं,,,बहुत काम है""
अबे आजा ना यार,,,बहाने मत बना
"" यार मुश्किल है,,""
अबे आजा न,, बड़े सॉलिड सॉलिड माल आयेंगे ..कसम से
""ओके चल एक घंटे में मिलता हूँ ..""
ओके .

मम्मी मैं जा रहा हूँ।
""आज सन्डे को सुबह सुबह कहा जा रहे हो ..""
मम्मी "अन्ना " की रैली में रामलीला मैदान जा रहा हूँ ..
ठीक है ...ध्यान से रहना ...
""ओके बाय ......अतुल का कॉल आये तो बोल देना मैं निकल गया ...""

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{ चार }

इमोशनल अत्याचार -

इमोशनल अत्याचार का आखिरी सीन चल रहा था ..
प्रेमी ने अपनी प्रेमिका को रंगे  हाथो दुसरे लड़के के साथ पकड़ लिया,
आखिरी लड़ाई चल रही थी ..

मैं और मेरा दोस्त टीवी पर देख रहे थे .
दोस्त बोल  "हा हा हा हा ,,ये आजकल की लडकिया साली बहुत हराम होती हैं  ""
लास्ट में प्रेमी मुसलमान निकला और लड़की हिन्दू।।।

मेरा दोस्त बोला  -  "स्स्स्साला कटुआ ..............हिन्दू लड़की पटाता है ...मादर**"

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{ पांच }

फेसबुक डिस्कसन बोर्ड -

जयेश पटेल - जय मोदी राज, भारत माता की जय
शशांक मिश्रा - जय हिन्द , जय मोदी राज
अफ़रोज आलम  - मोदी जी ने अच्छा विकास किया है लेकिन मोदी जी को माफ़ी मांगनी चाहिए .
जयेश पटेल - साले मुल्ले ,,भाग यहाँ से ..
शशांक मिश्रा - साले कटुए को भगाओ यहाँ से ...खाते यहाँ की है और गाते वहाँ की है ..मारो साले को

दीपेन्द्र परमार  - सपा शायद ज्यादा सीटे ले आएगी 2014 में
राजेश चौहान - चुप साले मुल्ला-यम के पिल्ले
शशांक मिश्रा - साले मूल निवासी ..भाग यहाँ से,
हितेश राठौर - ये साला मूल निवासी नहीं अम्बेडकरिया है
राजेश चौहान - साले यहाँ भी आरक्षण मांगेगा क्या हा हा हा हा
शशांक मिश्रा - भगाओ इन हरामियो को यहाँ से।।
हितेश राठौर -जय मोदी राज , भारत माता की जय
राजेश चौहान - भारत माता की जय,,,,हिन्दू जगेगा देश जगेगा ..
जयेश पटेल - जय मोदी राज, जय जय मोदी राज

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{ छै : }

प्योर लेदर शूज  -

मेट्रो ट्रेन से  राजीव चौक पार हो चूका था ..

"' यार मुसलमानों को हिन्दुओ  की भावनाओं का ख्याल रखना चाहिए ..""
"" अब देख एक छोटी सी बात है,,,,जब हम लोग गाय की पूजा करते है उसे माँ मानते है .....तो साले ये लोग जान बूझ कर उसे काटते है,,,,,,अबे छोड़ नहीं सकते क्या , गाय नहीं खाओगे तो मर तो नहीं जाओगे।।""
अबे छोड़ ना यार,,,,तू भी क्या क्या सोचता रहता है ...

यार जूते बड़े सॉलिड लग रहे है,,,,,
"" हां यार कल ही खरीदे है लाजपत नगर सेन्ट्रल मार्किट से ...""
कौन सी दूकान से
"" रॉयल शूज से ख़रीदे,,,,भाई मैं तो वोही से लेता हूँ ...... " उसके जूते प्योर लेदर के होते है "
ग्रेट यार,,,मैं भी लेकर आता हूँ एक ...
"ठीक है,,,यार एक बेल्ट भी ले आना मेरे लिए .."
ओके ..

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{सात}

इनाम -


 " सुनो "
 बोलो 
"" इस बार दिवाली अच्छा गिफ्ट दे दिया तुम्हारी कंपनी ने, और बोनस भी बढ़ा के दिया है , वरना पिछले बार तो सिर्फ एक मिठाई के डिब्बे पर ही निपटा दिया था ""
 अरे देते कैसे नहीं, हमने एक महीने पहले ही बोल दिया था HR मैनेजर से, की सर इस बार सब लोग बहुत नाराज है, गिफ्ट और बोनस सही मिलना चाहिए इस बार तो ...इतना प्रेशर क्रियेट किया तभी तो मिला है।

"राम राम साब"
 राम राम"  ,,बोलो
"साब दिवाली का कुछ इनाम -विनाम मिल जाए तो बड़ी मेहरबानी होगी"
अरे लता ,,,जरा इसे कुछ दे देना यार,,,,,
"साब कुछ पैसे वैसे ,,,,??"
अबे किस बात के पैसे भाई,,,,,,,हर महीने मिलते तो है,,,अब और क्या चाहिए ..बस इसे लो और चलो आगे .
"ठीक है साब,,"

"" साले ये छोटी जात भंगी चमार कभी नहीं सुधरेंगे ,,,,भिखमंगो की तरह आ जाते है हर साल,,,इनाम दे दो ..,,इनाम दे दो ...""

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बस ...

बुधवार, 23 जनवरी 2013

अबे जर्मनी वालो ...हमारे वेद वापस करो।



ये बात आज से 12 साल पहले की है जब दिल्ली में मेट्रो रेल का लगभग अपने प्रथम चरण का काम पूरा हो चूका था और पहली मेट्रो चलनी शुरू हो चुकी थी। उन्ही दिनों हमारे पुराने मालिक साब प्रिंस चार्ल्स भारत की यात्रा पर आये हुए थे , ,,और दिल्ली सरकार उन्हें मेट्रो रेल दिखाने के लिए ले गयी, उसके अगले दिन तमाम अखबारों के फ्रंट पेज इस न्यूज़ से भरे पड़े थे। सुबह सुबह चाय पीते हुए जब उन्ही में से एक  एक न्यूज़ पेपर के फ्रंट पेज का टाइटल पढ़ा तो मेरी वो ठाहाकेदार हंसी छूटी की मैंने शुक्र मनाया की कोई मेरे सामने नहीं बैठा था वरना चाय सीधे उसके चहरे पर जाती ....टाइटल कुछ यूं था।
अभिभूत हुए युवराज,,,,,,,कहा,,,"ऐसी टेक्नोलोजी दुनिया में सिर्फ भारत के पास "
अब या तो अंग्रेज शहजादे को इतनी समझ नहीं की जब उसके पुरखो ने लगभग आधी दुनिया के उद्योगों को जान बूझ कर बर्बाद किया अपने बाजार को बरकरार रखने के लिए , तो फिर उनकी सबसे बड़ी प्रयोगशाला भारत ने कॉमनवेल्थ में रहते रहते ये तकनीक कैसे विकसित कर डाली। या फिर मेट्रो वालो  ने उन्हें कोरिया से रेल के डिब्बे मंगवाने की बात ही नहीं बतायी . खैर जो भी हो अध्धे से ज्यादा भारतवासी ये पढ़कर फूल के कुप्पा हो गए , और हो भी क्यों नहीं अरे हमारे ही देश तो है जिसने सुनीता विलियम्स जैसी होनहार बेटी नासा को दी .ये बात अलग है की भारत के मीडिया को भी ये बात तब पता चली जब किसी ने बीबीसी में एक इंटरव्यू देते समय उनका नाम पढ़ लिया .
पिछले दिनों जब विज्ञानिको ने गॉड डैम पार्टिकल की खोज करी तो भारतीय इलेक्ट्रोनिक मीडिया ने बिना समय गवाए अपनी पंचायत जमा ली , और लगा उसकी परते उखाड़ने अपने रटे रटाये बेसिर पैर के जुमलो के साथ।।।कुछ पंच  लाइन यहाँ दे रहा हूँ जो मैंने उस दौरान टीवी पर देखी
1- "मिल गए भगवान् "!
2- वैज्ञानिको ने भी माना "कण कण में है भगवान् "!
3 - वेदों की सत्यता पर पश्चिमी वज्ञानिको की मुहर !

सबसे मजेदार कमेंट् तो एक संत महाराज ने दिया . उन्होंने बड़ी लापरवाही से अंगडाई लेते हुए कहा .."अच्छा .......गॉड पार्टिकल मिल गया ? , चलो कोई बात नहीं देर आये दुरुस्त आये.....हम तो हजारो सालो से येही बात कह रहे थे " की पार्टिकल पार्टिकल में गॉड है .
काश अगर ये बात किसी तरह स्टीफन हाकिन्स सुन लेते तो कसम से अपनी पहिया कुर्सी से उठ कर उस पंडत की वो धुनाई करते की बस पूछो मत . अरबो डालर की लागत और हजारो वज्ञानिको के अनुभव और दिन रात की मेहनत के बाद हमें ये पता चल पाया की एक कण और भी है जो हर चीज में गति और परस्पर जोड़े रखने के लिए जिम्मेदार होता है . जिसे साइंसदानो ने गॉड पार्टिकल का नाम दिया . और हमारे पंडितो ने धैड़ धनी से उसपर अपनी मुहर लगा मारी .वैसे कोई आश्चर्य नहीं है क्यो हमारे पास तो हजारो सालो पहले से ही एविएसन तकनीक भी थी , और एटॉमिक  इंजिनीरिंग तो हमने तब डेवलप  कर ली थी जब अमेरिका में मानव सभ्यता अमीबा और पैरामिसियम वाली अवस्था में ही थी .हां ये बात अलग है की उसकी सुविधा सिर्फ राम , कुबेर , इंद्र जैसे शशक वर्ग के लोग ही  उठा सकते थे आम आदमी नहीं .लेकिन बड़ा अजीब अनबैलंस टायप का विज्ञान था उस समय , हवा में उड़ने के लिए तो पुष्पक विमान और जमीन पर और यातायात के साधनों के नाम पर सिर्फ घोडा गाडी या बैल गाडी नो ट्रेन  नो बस  नो ट्राम  डाइरेक्ट एयर ट्रेवलिंग।  या तो ये हो सकता है  कि सिर्फ राजा  महाराजो और शशक वर्ग के लिए सुविधा के अनुसार ही साइंस का विकास किया गया होगा, ?, कह नहीं सकते .
कुछ ऐसी ही कहानी उस समय के एटम बम्ब की है, जिसे ब्रह्माश्त्र कहते थे . पंडितो की जमात कहती है की ये आज के हथियार तो कुछ भी नहीं . उस समय का ब्रह्मश्त्र तो आज के हजारो परमाणु बमों के बराबर शक्तिशाली और विनाशक था . मैंने कही पढ़ा था की आज दुनिया में सबसे शक्तिशाली सिर्फ 20 बम पूरी दुनिया को ख़तम कर सकते है, लेकिन हमारे सनातनी वैदिक युग में एक ब्रह्मास्त्र हजारो बमों के बराबर अकेला था . और गाहे बगाहे ये लोग ब्रह्म्शात्र चला भी देते थे। अब उस समय के शूरवीरो की डैमेज कंट्रोलिंग टेक्नीक मानने वाली है की वो सिर्फ एक इंसान को ही टारगेट करके मारते थे और बाकी उसकी मारक क्षमता और विकिरण से किसी का कोई नुक्सान नहीं होता था . ये बात अलग है की अपनी कामइच्छाओ को कभी कंट्रोल नहीं कर सके और हर दूसरी कथा में किसी न किसी अबोध कन्या के साथ वासनाओं के वशीभूत होकर समागम करते रहे .और शायद राजाओं ने परमाणु ऊर्जा को सिर्फ हथियारों के लिए ही युस किया होगा और उससे बिजली भी बन सकती है ये शायद भूल गए होंगे . तभी एडिसन बेचारे को मौक़ा मिला अपनी प्रतिभा दिखाने का .
वैसे हमारे वेदों में हर चीज मौजूद थी . वो तो सत्यानाश हो जर्मनी वालो का जो हमारे वेद  चुरा के भाग गए और इतना विकास कर  लिया .......स्स्स्साले चोटटे कहीके . चलो कोई बात नहीं चलता है.असली हथियार तो अभी हमारे पास हि है "लिंग पुराण ".
कभी कभी लगता है की अमेरिकी फिल्म और स्टार वार में जो भयानक युद्ध दिखाया है , वो तो हमारे मुल्क में हजारो साल पहले ही लड़ा जा चुका था , मतलब की वो सब भी हमारे ही देश के युद्धों से प्रेरित है , और अमेरिकियों की बदतमीजी देखिये एक डिस्क्लेमर भी नहीं डालते अपनी फिल्मो में एहसान फरामोश . सोचता हूँ की काश हिंदू समाज ने इतने पाप  नही किये होते तो आज ये सब तकनीक हमारे पास होती ओर शायद अमेरिका कि जगह हम लोग इस दुनिया को अपने हथियारों और प्राचीन विज्ञान के के दम पर हड़का रहे होते . कोई बात नहीं , उम्मीद नहीं खोनी चाहिए क्योंकि बाबा रामदेव ने कहा है की भारत फिर से विश्व गुरु बनेगा एक दिन।

सोमवार, 21 जनवरी 2013

मेरा बचपन(2) -मेरे वो वाल्मीकि मोहल्ले वाले दोस्त

मेरा जन्म एक हिन्दू ब्राह्मण परिवार में हुआ था . परिवार वालो से पता चला की हमारा गोत्र "गर्ग"  है . यानि की हम गर्ग ऋषि के वंशज या संतान  है.बचपन से ही घर में वो सारे कर्मकांड देखता आया हूँ जो की एक ब्राह्मण परिवार में होते है, घर में पूजा के वक्त हमारे दादा -  दादी पूजा ख़तम होने पर एक बोतल से सबको गो-मूत्र की कुछ बूंदे पीने को दे देते थे, हम बच्चे भी उसको पी कर एक दुसरे की हंसी उड़ाया करते थे और घर के बड़े लोग हमारा बचपना देख कर मुस्कुराते रहते थे।बचपन में ना जाने कितनी बार सत्यनारायण की कथा सुनते सुनते नींद आ जाती थी। और हनुमान चालीसा पढ़कर तो ऐसा लगता था की जैसे वाकई हनुमान जी हमें मुसीबत के वक़्त बचाने आयेंगे। हमारे घर के बाहर ही एक छज्जे पर कुछ टूटे कप रखे होते थे जो हमारी गली साफ़ करने वाले जमादार के लिए थे, जिसे कभी कभी घरवाले चाय पिला देते थे। वो चाय पीकर और कप धोकर उसे वापस वोही रख देता था।
एक बार गलती से मैंने उसे टच कर लिया,बस फिर क्या था मेरी दादी और बाकी घरवाले राशन पानी लेकर मेरे पर चढ़ गए , माँ ने पूजा से गंगाजल निकाल कर छिड़क दिया और कहा की सारे कपडे एक साइड में उतार कर नहाओ .खैर नहाना  भी पड़ा लेकिन वो जमादार बेचारा ये सब सुनकर भी मंद मंद मुस्कुराता चाय पीता रहा।


हमारी कालोनी से लगभग  2-4 किलोमीटर दूर जाकर वाल्मीकि कालोनी थी जिसमे जाने पर शहर के लोग अपने स्कूटर और मोटर साइकिल की रफ़्तार तेज करके जल्द से जल्द वह से निकलने की कोशिश करते थे, ना जाने क्यों ?? शहर में ही पुरानी व्यायाम शाला में कुछ बड़े ही तगड़े तगड़े लड़के बाडी  बिल्डिंग करते थे, जिनका इसमें बड़ा नाम था, लेकिन उके वहा से जाते ही बाकी लड़के उनके लिए अंट शंट बकना शुरू कर देते थे, अबे चाहे कितनी बॉडी बना ले,रहेंगे तो वोही न .वैगेरेह वैगेरेह, इसी तरह क्रिकेट के खेल में वाल्मीकि मोहल्ले के लडको से सब खौफ खाते थे, उनके जानदार शॉट और फ़ास्ट बोलिंग से सबकी हवा खराब होती थी,,लेकिन वो बड़ी ही शांति से मैच खेल कर ख़ुशी ख़ुशी चले जाते थे। वाल्मीकि जयंती में वो सब हमें अपना दोस्त मानकर जुलूस में आने का बुलावा देते थे जहा एक दोस्त अंबेडकर बनता था और कोई ऋषि वाल्मीकि का रूप धर के हाथ में रामायण लेकर चलता था, सब जानने वाले मुझे वहा जाने से रोकते थे, की किसी ने उस जुलूस में देख लिया तो कही हमारी जात के बारे में शक पैदा ना हो जाए, और कोइ ये ना कह दे, अरे मास्साब आपका लड़का कल भंगियो के जुलूस में क्या कर रहा था।
वो सारे मेरे दोस्त बड़े ही अच्छे थे , जो हमेशा क्लास में होने वाली लड़ाई में मेरा साथ दिया करते थे, या ये समझ लीजिये की मैं उनके दम पर कूदता था। धीरे धीरे वो सब एक एक करके बिछड़ने लगे और 10वि क्लास तक आते आते लगभग सबने स्कूल छोड़ दिया. बस एक दोस्त था जो मेरे साथ कॉलेज तक साथ रहा, वो पढने में ठीक ठाक था और फिर मैंने उसे एक लोकल कंपनी में काम करते हुए पाया। वो मेरे सारे दोस्त बड़े ही मस्त रहते थे, नए नए स्टायलिश कपडे पहनना ,डांस करना, जुडो कराटे, बॉडी बिल्डिंग करना , इन सब में वो सबसे आगे रहते थे . मैं समझ नहीं पाता था की मेरे इन सब दोस्तों से लोग इतनी नफरत क्यों करते है, बनिस्बत इसके की ये सब हिन्दू है, रामलीला और शहर के बाकी सब धार्मिक कामो में ,जागरण में वो रात रात भर सेवा करते थे, बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेते थे।  लेकिन हर बार सारे प्रोग्रम ख़तम होने के बाद उन्हें अवहेलना दी जाती थी, और जाती सूचक शब्दों के साथ बुलाया जाता था, और यहाँ तक की हम जैसे छोटे छोटे बच्चो को भी उन्हें इसी नाम से बोलने की सीख दी जाती थी. लेकीन इसके बाद भी वो कभी लड़ाई झगडा नहीं करते थे , बल्कि वो और दोस्तों के लिए लड़ते थे।
 मुझे याद है जब 1992 में बाबरी मस्जिद टूटी थी तो  शहर में मुस्लिम मोहल्ले में काफी सन्नाटा था ,और मुस्लिम लोगो की किसी भी कार्यवाही की खबर के बिना ही कुछ आरएसएस के लोगो ने वहा हथियार जमा होने की अफवाह उड़ा दी और लगे चौराहे दर चौराहे पंचायत जमाने। उन्ही में से एक सज्जन जिन्हें सब "मयंक जी" कहते थे वो बोल रहे थे "की घबराने की कोई जरुरत नहीं , अगर वो लोग आये तो हमारे वाल्मीकि  भाई उन्हें रामेश्पुरा से आगे ही नहीं बढ़ने देंगे, अबे आखिर वो भी तो हिन्दू है, उनका भी कोई फर्ज बनता है न धरम के प्रति . शायद वो ब्राहमण धर्म के लिए शुद्रो की सेवा का वचन याद दिल रहे थे।
बहर हाल आज कई बरस बीत जाने के बाद जब मैं अपने शहर जाता हूँ तो कभी कभी उनके वाल्मीकि मोहल्ले से गुजरना होता है, वो मोहल्ला अब काफी बदल चूका है, महल्ले की मेन सड़क बढ़िया बन गयी है .नए नए उम्र के लड़के अब स्टायलिश बाइक और कारे लेकर गली में रेसिंग करते रहते है, नयी नयी दुकाने खुल गयी है , एक दो बढ़िया जिम भी खुल गए है, तो मोहल्ले के लडको को अब दुसरे मोहल्लो में नहीं जाना पड़ता, लेकिन अब मेरे पहले वाले दोस्तों की तरह बॉडी बिल्डिंग के दीवाने नहीं दीखते वहा। उन्ही पुराने दोस्तों में से एक दोस्त मुझे एक मुझे मिला जब मैं बियर पीने एक बार में गया, उनसे मुझे देख कर भी अनदेखा कर दिया, लेकिन मैंने उसे पहचान लिया , और सीधे उसके कंधे पर हाथ रख कर बोला " यार " बिक्रम " शायद तुमने मुझे पहचाना नहीं,,वो भी एकदम कुर्सी से उठ खड़ा हुआ, और शर्माता हुआ बोल, सॉरी यार मैंने पहचान तो लिया था , लेकिन सोचा की कही तुम मुझे पहचान पाओ की नहीं, कुछ बाते हुई तो पता चला की उसका अपना फाइनेंस (ब्याज-बट्टे ) का काम है और एक दो टैक्सी किराए पर चलती है, फिलहाल मैं उससे मिलकर वापस आया तो मेरे दोस्तों ने बोला " अबे कैसे कैसे लोगो से मिलता रहता है तू  यार ". मैंने वहा उनसे बहस करना उचित नहीं समझा और टोपिक बदल कर दारु बाजी शुरू कर दी।
इतने सालो बाद भी अपने शहर और उनकी मानसिकता देख कर सोच में पड़ जाता हूँ, कभी कभी दोस्तों का फ़ोन आता है तो वो बोलते है की यार अब तो हमारा शहर भी बिलकुल बदल चुका है , कोई भी ऐसी चीज नहीं जो की दिल्ली या मुम्बई में मिलती हो ओर यहाँ ना हो .शायद वो सही कहते है , अब सारे शहर एक जैसे ही है , बस फरक इतना है की वो भौतिक चीजो की बात करते है और मैं मानसिकता की। आज भी जब सुबह सुबह मैं अपनी बेटी को स्कूल छोड़ने जाता हूँ तो मानसिकता का वो ठेहराव साफ़ दिखाई देता है, एक बार बेटी को लेकर जा रहा था तो सामने से कुछ दुसरे स्कूल के बच्चे भी जा रहे थे जिनके कपडे कुछ ठीक नहीं थे और पैरो में चप्पले थी,
सामने से एक और मैडम जिनकी बच्ची मेरी बेटी के स्कूल में पढ़ती थी, अपनी बेटी को उन बच्चो को दिखाते हुए बोली " नो बेटा, .....डोंट गो देयर ,... दे आर  डर्टी ".
मैं  सोचने लगा की क्या येही प्रगति करी है हमने, इतनी शिक्षा और पैसे से  हमारी सोच क्या ऐसी हो जानी चाहिए,,,की "हम" और "वो" का अंतर इतना बढ़ जाए , बच्चो के लिए भी हम "साफ़" और "गंदे" जैसे शब्द युस करे।
ठीक इसी तरह इतने साल बाद भी मेरे शहर में वाल्मीकि मोहल्ले के लोगो के लिए मानसिकता कम नहीं हुई, आज भी मेरा दोस्त बिक्रम उस रात जब बियर बार से निकला और मुझसे हाथ मिला कर वापस अपनी कार में बैठ कर जाने लगा तो मेरा एक दोस्त बोल .."क्या टाइम आ गया है यार ........ अब साले ये लोग भी कार रखने लगे ". ऐसा ही माहौल घर में भी देखने को मिला जब इतने सालो बाद भी गली की सफाई करने वाली को मैंने अपने घर के बाहर एक टूटे कप में चाय पीते देखा . घर में उसी दिन "सुन्दर काण्ड का पाठ था और मैं ऊपर वाले कमरे में टीवी पर न्यूज़ देख रहा था तो बीवी आई और लगी डांटने की " शर्म नहीं आती तुन्हें जरा भी, सब लोग तुम्हे ढूंढ़ रहे है और तुम यहाँ टीवी देख रहे हो।।चलो जाकर पूजा में बैठो " , पूजा में जाकर देखा तो पंडत गला फाड़ फाड़ आँखे बंद करके सुन्दर काण्ड का पाठ कर रहा था . और सब हाथ जोड़े ऐसे बैठे थे की बस राम चन्द्र अब निकले की तब निकले तस्वीर से . पाठ ख़तम होने के बाद पंडत ने एक अखबार के टुकड़े पर प्रसाद रखकर एक बच्चे को उस सफाई करने वाली को देने के लिए कहा और वापस आने पर उस बच्चे पर गंगाजल छिड़क दिया।
कभी कभी  सोचता हूँ की  कार्ल मार्क्स अगर भारत में  हुए होते तो शायद "ऐतिहासिक भौतिकवाद और दास  कैपिटल "न लिख कर भारत की वर्ण व्यवस्था पर कोई कालजयी ग्रन्थ लिखते और और फिर शायद कोई चे गुवारा यहाँ पर भी हिंसात्मक क्रांति करके इस नासूर वर्ण व्यवस्था को ख़तम करता। जो हिन्दुस्तान की नस्लों में बचपन से पोलियो की दवाई की तरह हर रोज पिलाई जाती है। "पूंजीवाद और सामंतवाद के संस्कार "  साम्राज्यवादी लुटेरो के वो होनहार सपूत है जिन्होंने भारत जैसे देशो में लूट की इस परंपरा को बिना किसी जतन के इस मुल्क में पाल पोस कर बड़ा किया, उन्हें यहाँ किसी भी गैस चेंबर और ऑस्तिविज की जरुरत ही नहीं पड़ी , क्योंकि यहाँ सदियों से दलितों के लिए अलग बस्तिया (घेटटो ) पहले से ही मौजूद थी . सामंती संस्कारों ने जनता में "हम" सवर्ण  और "वो" दलित, हम हिन्दू वो मुल्ले की सोच बचपन से हमें सिखाई है .पूंजीवादी विकास ने इन संस्कारों को कुछ हद तक कम किया है ,लेकिन सिर्फ उतने तक की उन्हें फायदा हो, लेकिन जब जब व्यवस्था और मुनाफे पर खतरा होता है तो वो फिर इन्ही संस्कारों की सोच लेकर इंसानों को बांटने लगते है।
शायद इतने सालो के तजुर्बे से यही सीखा है की सिर्फ मुनाफा कमाने की सोच वाले इस पूंजीवादी समाज में लोगो की मानसिकता भी जानबूझ कर वैसी ही रखी जाती है , ताकि उसका समय समय पर जनता की ताकत को तोड़ने के लिए इस्तेमाल किया जा सके .इसमें शोषण का प्रथम पायदान वो लोग है जिन्हें इस वर्ण व्यवस्था में तथाकथित रूप से पहले स्थान पर रखा गया है , तभी ये सिस्टम उनकी ही सबसे ज्यादा हिफाजत करता है .और येही वर्ग अपने को टिकाये रखने के हर हथकंडे अपनाता है . जैसे की फिल्म "दिल्ली 6" में लडको को मर्द बनाने वाली रोल के लिए एक जमादारनी को चुना गया .
लेख ख़तम करने से पहले यहाँ मुझे अपने एक मित्र अरविन्द जी के लेख की कुछ लाइन याद आ रही है, उन्होंने इसी सन्दर्भ में कहा था की 
"हजारों सालों के तमाम उतार-चढ़ाव के बावजूद इस "सनातनी-व्यवस्था" ने अगर खुद बचाए और बनाए रखा है तो इसलिए कि .. वह एक साथ सैंकड़ों मोर्चों पर राजनीति करती है।'

सोमवार, 7 जनवरी 2013

इसका मतलब .......वो सही थी !




6 दिसंबर 1992 में बाबरी मस्जिद के गिरने के बाद सितम्बर 1994 में शेखर कपूर की बहुप्रितिक्षित फिल्म "बैंडिट क्वीन" रिलीज हुई थी।
ये वो समय था जब हिन्दू (अंध) देशभक्ति अपने पूरे उफान पर थी।और हर शहर कस्बो के मोहल्लो के निठल्ले नकारा चौराहो चौपालों पर सारा दिन आती जाती लडकियों और मोहल्ले की आशिकी की गप्पे हाकने वाले युवा वर्ग के लोग भी मत्थे पर तिलक लगाए पकिस्तान और मुसलमानों को गालिया देते अपनी देशभक्ति की भावना को प्रबल करते रहते थे।
असल में देखा जाए तो 1991 से लाकर 1995 तक 5 साल का समय काल इस मुल्क के लिए वो तासीर देकर गया था जिसका असर हम लोग अब तक भुगत रहे है और शायद आने वाले कई सालो तक भुगतेंगे।इसी काल खंड में कांग्रेस के विद्वान् मनमोहन  सिंह जी ने आर्थिक उदारीकरण के तहत देश के दरवज्जे विदेशियों के लिए खोले थे और बोल था की आर्थिक उदारीकरण और विनिवेश की शुरूआती टीथिंग प्रॉब्लम के बाद आने वाले 15-20 सालो में देश विकराल उन्नत्ति के शिखर पर होगा. इन्ही दिनों भगवान् राम की भक्ति का वो प्रचंड काल खंड भी आया था जो शायद त्रेता युग में खुद राम चन्द्र के काल में भी नहीं था . जय श्री राम और राम लल्ला हम आयेंगे मंदिर वही बनायेंगे के नारे बच्चे बच्चे की जुबान पर थे।
इसी 5 साल के काल खंड में " बैंडिट क्वीन " फिल्म समाज के भिन्न भिन्न वर्ग के लोगो को अपने अपने कारणों से अच्छी लगी थी . सबसे पहले तो ये  फिल्म में धुर गालियों के समावेश का पहला प्रयोग था .और तमाम लोग पहली बार परंपरागत गालियों को भिंड -मुरैना और कानपुर देहात की गवई भाषा की स्टाइल में देने के रूबरू हुए थे .
कई हिंदूवादी लोगो ने उस समय फूलन देवी को दुर्गा और चंडी का रूप बताया था, लेकिन सिर्फ तब तक,जब तक की उन्हें मुलायम सिंह की पार्टी का टिकेट नहीं मिला था, सांसद बनते ही उन्हें फिर से नीच जात की कैटेगिरी  में डाल दिया गया। जिसकी परिणिति भी उन्हें अपनी जान देकर चुकानी पड़ी और शेर सिंह राणा उर्फ़ पंकज सिंह को दूषित हिन्दू अपर कास्ट लोगो के  बहुत बड़े तबके की मौन स्वीकृति मिली . आज जो लोग दिल्ली गंग रेप पीडिता के दोषियों को फांसी देने की वकालत कर रहे है वोही तमाम लोग शायद पंकज राणा के पवित्र उद्देश्य के लिए उसे सहारते थे जिसमे वो अफगानिस्तान से एक प्रेम विक्षिप्त अय्याश राजा की अस्थिया लाने की प्रतिज्ञा करता था.
"गौरहा का पुरवा" गाँव  की मल्लाह जात की वो बच्ची जिसका 11 साल की उम्र से रेप होना शुरू हुआ था , मरने के बाद भी तमाम आरोपों के बाद शायद अपनी खुंदक और सामन्ती शोषण में गुंथी इस व्यवस्था को उखाड़ फेकने के लिए बन्दूक की नली से न्याय निकलने के लिए गला फाड़  फाड़ के चिल्ला  रही है .
"खूब रगड़ाई करी होगी तेरी .....बता तो जरा ....अब ये बताएगी थोड़ी ,,करके दिखाएगी " ये "बैंडिट क्वीन" का वो संवाद है जिसे 70 के दशक में डिस्टिक जालौन के गाँव का वो दारोगा बोलता है जिसके पास खुद चम्बल के डैकैत फूलन को बलात्कार के बाद छोड़ जाते है। लेकिन सामंतवादी मकडजाल कितना मजबूत होता है ये शायद आपको तब पता चले जब आप येही संवाद असल जिंदगी में अपने शहर के हाइवे से 15-20 किलोमीटर दूर दाए बाए बसे गाँव के थानों में कुछ दिन कान लगाए और कोशिश करे सुनने की .और अगरज्यादा दूर नहीं जाना तो इस लहजे के अल्फाज आप दिल्ली में तिमार् पुर और जहांगीरपुरी जैसे राजधानी के थानों में भी सुन सकते है।
असल में सामंतवाद और पूंजीवाद के उत्पादन के औजारों की भिन्नता को अगर छोड़ दिया जाए तो शोषण की व्यवस्था को टिकाये रखने के लिए यहाँ रूलिंग क्लास ने हर कदम पर अपनी खरपतवार पैदा की है जो इस शोषण के जंगल को हरा भरा बनाए रखती है . इसी खरपतवार के झंडाबरदार आपको पान सिंह तोमर में कभी भंवर सिंह "दद्दा" के रूप में देखने को मिलता है , कभी वोही रूप श्री राम और लाला राम की शकल में बैंडिट क्वीन में दीखता है. और खोसला का घोसला में किशन खुराना  प्रोपर्टी वाले के रूप में . येही  वो खरपतवार है जो क्रांतिकारी जनता के संघर्ष को कुचलने का पहला हथियार होती है , जिसे फ़िल्म चक्रव्यूह में महानता  ग्रुप के मालिक का लड़का आदिवासियों को कुचलने के लिए तैयार करता है .
ऐसे में अगर फूलन देवी जैसी लड़की बेहमई में तथाकथित अपर कास्ट के हत्याकांड को अंजाम देती है तो शायद ये उसी आक्रोश का हिस्सा है जिसमे राष्ट्रपति चौक के खम्बो पर चढ़कर आज के दौर की लडकिया दिखा रही है .लेकिन फूलन देवी की घटना को भी अगर 1947 के बाद की पहली घटना मान लिया जाए तो शायद ये सोचने वाली बात है की लगभग 40 साल बाद भी समाज में ऐसी घटनाएं अबाध गति और  संख्या में हो रही है . इसके लिए किसे जिम्मेदार माना जाए कांग्रेस , बीजेपी , बाकी राजनितिक दल और  गन्दा कल्चर , लचर कानून , दारूबाजी , या मुनाफे पर आधारित इस ढाँचे को, जो लगभग हर चीज को बेचने की कोशिश करता है।
जैसे की मीडिया की भरसक कोशिश के बाद भी लड़की का नाम नहीं पता चलने की सूरत में पहले उसे एक नाम दिया गया , फिर जैसे जैसे उसकी हालत बिगडती गयी उसकी हर खबर को कवर करने के लिए न्यूज़ चैनलो ने सारे करमचारियो की छुटिय्या कैंसिल कर दी, और जिस दिन उस लड़की ने दुनिया छोड़ी,  बुद्धू बक्से पर दर्दीली कविताओं और सर झुकाई आंसुओ से भरी लड़की के छाया चित्र दिखाने की होड़ सी मच गयी।
जो लोग ये बोलते है की मीडिया जागरूकता फैलता है ...उनसे शायद इस बात का हिसाब माँगा जाना चाहिए की 16 दिसम्बर की दिल्ली गैंग रेप घटना के बाद अब तक 30 से ज्यादा हो चुके गैंग  रेप की न्यूज़ कवर करने के लिए मीडिया किन किन गाँवों में गया ? या शायद हमें 15- 20 साल इन्तेजार करना पड़ेगा जब कोई और शेखर कपूर जयपुर की 11 साल की नूर के ऊपर फिल्म बनाएगा .
असल समस्या ये शोषण पर आधारित सामन्ती-पूंजीवादी व्यवस्था है जिसमे रूलिंग क्लास ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाने के लिए समाज में दुर्दांत आर्थिक अंतर को पैदा करके अपने शोषणकारी प्यादे को हर चौराहे पर खड़ा करता है . और जनता के आक्रोश को दबाने के लिए गाहे बगाहे एक दो आरोपियों को फांसी जैसी सजा भी दे देता है . लेकिन वो गर्भ गृह हमेशा सुरक्षित रहता है जिसमे से ये सारी समस्याए पैदा होती है ,
ये साम्रज्यवाद की छत्रछाया में उसके कपूतो पूंजीवाद और सामन्तवाद की रची वो मकडजाल है जिसमे गैंग रेप पीडिता के खबर के बीच बीच में क्रिकेट के नए भगवान् विराट कोहली मोबाइल से लड़की पटाने के तरीके बताते है और दुसरे विज्ञापन में एक लड़की फ़ोन पर कोंडोम के डीफ्रेंट डीफ्रेंट फ्लेवर ऑर्डर करती है।
रेप काण्ड के विरोध के साथ साथ चलती ये बाजारवादी सभ्यता इस व्यवस्था को मंजूर है लेकिन जब तक कोई एक लड़की सोनी सोरी बनी रहती है तो मिडिया के हिसाब से वो भारत के जनतांत्रिक मूल्यों का सम्मान करती है ..लेकिन जिस दिन वो फूलन या दंतेवाडा की आदिवासी की तरह बन्दूक उठाती है ,,,तब वो एक डैकैत या आतंकवादी घोषित करी जाती है, जिसका समर्थन आज के तथाकथित फेस्बुकिये विद्वान् भी करते है जो रात दिन दिल्ली के गैंग रेप आरोपियों को सरेआम फांसी पर चढाने के लिए बोलते है।
जो भी हो ....टुकडो टुकडो में होने वाली इन क्रांतियो को जोड़कर ही शायद किसी दिन इस अर्ध सामंती अर्ध पूंजीवादी ढाँचे के लिए कफ़न तैयार होगा . इस सोच के साथ की शायद फूलन ने जो भी किया,,,,,,,,वो सही था।