सोमवार, 21 जनवरी 2013

मेरा बचपन(2) -मेरे वो वाल्मीकि मोहल्ले वाले दोस्त

मेरा जन्म एक हिन्दू ब्राह्मण परिवार में हुआ था . परिवार वालो से पता चला की हमारा गोत्र "गर्ग"  है . यानि की हम गर्ग ऋषि के वंशज या संतान  है.बचपन से ही घर में वो सारे कर्मकांड देखता आया हूँ जो की एक ब्राह्मण परिवार में होते है, घर में पूजा के वक्त हमारे दादा -  दादी पूजा ख़तम होने पर एक बोतल से सबको गो-मूत्र की कुछ बूंदे पीने को दे देते थे, हम बच्चे भी उसको पी कर एक दुसरे की हंसी उड़ाया करते थे और घर के बड़े लोग हमारा बचपना देख कर मुस्कुराते रहते थे।बचपन में ना जाने कितनी बार सत्यनारायण की कथा सुनते सुनते नींद आ जाती थी। और हनुमान चालीसा पढ़कर तो ऐसा लगता था की जैसे वाकई हनुमान जी हमें मुसीबत के वक़्त बचाने आयेंगे। हमारे घर के बाहर ही एक छज्जे पर कुछ टूटे कप रखे होते थे जो हमारी गली साफ़ करने वाले जमादार के लिए थे, जिसे कभी कभी घरवाले चाय पिला देते थे। वो चाय पीकर और कप धोकर उसे वापस वोही रख देता था।
एक बार गलती से मैंने उसे टच कर लिया,बस फिर क्या था मेरी दादी और बाकी घरवाले राशन पानी लेकर मेरे पर चढ़ गए , माँ ने पूजा से गंगाजल निकाल कर छिड़क दिया और कहा की सारे कपडे एक साइड में उतार कर नहाओ .खैर नहाना  भी पड़ा लेकिन वो जमादार बेचारा ये सब सुनकर भी मंद मंद मुस्कुराता चाय पीता रहा।


हमारी कालोनी से लगभग  2-4 किलोमीटर दूर जाकर वाल्मीकि कालोनी थी जिसमे जाने पर शहर के लोग अपने स्कूटर और मोटर साइकिल की रफ़्तार तेज करके जल्द से जल्द वह से निकलने की कोशिश करते थे, ना जाने क्यों ?? शहर में ही पुरानी व्यायाम शाला में कुछ बड़े ही तगड़े तगड़े लड़के बाडी  बिल्डिंग करते थे, जिनका इसमें बड़ा नाम था, लेकिन उके वहा से जाते ही बाकी लड़के उनके लिए अंट शंट बकना शुरू कर देते थे, अबे चाहे कितनी बॉडी बना ले,रहेंगे तो वोही न .वैगेरेह वैगेरेह, इसी तरह क्रिकेट के खेल में वाल्मीकि मोहल्ले के लडको से सब खौफ खाते थे, उनके जानदार शॉट और फ़ास्ट बोलिंग से सबकी हवा खराब होती थी,,लेकिन वो बड़ी ही शांति से मैच खेल कर ख़ुशी ख़ुशी चले जाते थे। वाल्मीकि जयंती में वो सब हमें अपना दोस्त मानकर जुलूस में आने का बुलावा देते थे जहा एक दोस्त अंबेडकर बनता था और कोई ऋषि वाल्मीकि का रूप धर के हाथ में रामायण लेकर चलता था, सब जानने वाले मुझे वहा जाने से रोकते थे, की किसी ने उस जुलूस में देख लिया तो कही हमारी जात के बारे में शक पैदा ना हो जाए, और कोइ ये ना कह दे, अरे मास्साब आपका लड़का कल भंगियो के जुलूस में क्या कर रहा था।
वो सारे मेरे दोस्त बड़े ही अच्छे थे , जो हमेशा क्लास में होने वाली लड़ाई में मेरा साथ दिया करते थे, या ये समझ लीजिये की मैं उनके दम पर कूदता था। धीरे धीरे वो सब एक एक करके बिछड़ने लगे और 10वि क्लास तक आते आते लगभग सबने स्कूल छोड़ दिया. बस एक दोस्त था जो मेरे साथ कॉलेज तक साथ रहा, वो पढने में ठीक ठाक था और फिर मैंने उसे एक लोकल कंपनी में काम करते हुए पाया। वो मेरे सारे दोस्त बड़े ही मस्त रहते थे, नए नए स्टायलिश कपडे पहनना ,डांस करना, जुडो कराटे, बॉडी बिल्डिंग करना , इन सब में वो सबसे आगे रहते थे . मैं समझ नहीं पाता था की मेरे इन सब दोस्तों से लोग इतनी नफरत क्यों करते है, बनिस्बत इसके की ये सब हिन्दू है, रामलीला और शहर के बाकी सब धार्मिक कामो में ,जागरण में वो रात रात भर सेवा करते थे, बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेते थे।  लेकिन हर बार सारे प्रोग्रम ख़तम होने के बाद उन्हें अवहेलना दी जाती थी, और जाती सूचक शब्दों के साथ बुलाया जाता था, और यहाँ तक की हम जैसे छोटे छोटे बच्चो को भी उन्हें इसी नाम से बोलने की सीख दी जाती थी. लेकीन इसके बाद भी वो कभी लड़ाई झगडा नहीं करते थे , बल्कि वो और दोस्तों के लिए लड़ते थे।
 मुझे याद है जब 1992 में बाबरी मस्जिद टूटी थी तो  शहर में मुस्लिम मोहल्ले में काफी सन्नाटा था ,और मुस्लिम लोगो की किसी भी कार्यवाही की खबर के बिना ही कुछ आरएसएस के लोगो ने वहा हथियार जमा होने की अफवाह उड़ा दी और लगे चौराहे दर चौराहे पंचायत जमाने। उन्ही में से एक सज्जन जिन्हें सब "मयंक जी" कहते थे वो बोल रहे थे "की घबराने की कोई जरुरत नहीं , अगर वो लोग आये तो हमारे वाल्मीकि  भाई उन्हें रामेश्पुरा से आगे ही नहीं बढ़ने देंगे, अबे आखिर वो भी तो हिन्दू है, उनका भी कोई फर्ज बनता है न धरम के प्रति . शायद वो ब्राहमण धर्म के लिए शुद्रो की सेवा का वचन याद दिल रहे थे।
बहर हाल आज कई बरस बीत जाने के बाद जब मैं अपने शहर जाता हूँ तो कभी कभी उनके वाल्मीकि मोहल्ले से गुजरना होता है, वो मोहल्ला अब काफी बदल चूका है, महल्ले की मेन सड़क बढ़िया बन गयी है .नए नए उम्र के लड़के अब स्टायलिश बाइक और कारे लेकर गली में रेसिंग करते रहते है, नयी नयी दुकाने खुल गयी है , एक दो बढ़िया जिम भी खुल गए है, तो मोहल्ले के लडको को अब दुसरे मोहल्लो में नहीं जाना पड़ता, लेकिन अब मेरे पहले वाले दोस्तों की तरह बॉडी बिल्डिंग के दीवाने नहीं दीखते वहा। उन्ही पुराने दोस्तों में से एक दोस्त मुझे एक मुझे मिला जब मैं बियर पीने एक बार में गया, उनसे मुझे देख कर भी अनदेखा कर दिया, लेकिन मैंने उसे पहचान लिया , और सीधे उसके कंधे पर हाथ रख कर बोला " यार " बिक्रम " शायद तुमने मुझे पहचाना नहीं,,वो भी एकदम कुर्सी से उठ खड़ा हुआ, और शर्माता हुआ बोल, सॉरी यार मैंने पहचान तो लिया था , लेकिन सोचा की कही तुम मुझे पहचान पाओ की नहीं, कुछ बाते हुई तो पता चला की उसका अपना फाइनेंस (ब्याज-बट्टे ) का काम है और एक दो टैक्सी किराए पर चलती है, फिलहाल मैं उससे मिलकर वापस आया तो मेरे दोस्तों ने बोला " अबे कैसे कैसे लोगो से मिलता रहता है तू  यार ". मैंने वहा उनसे बहस करना उचित नहीं समझा और टोपिक बदल कर दारु बाजी शुरू कर दी।
इतने सालो बाद भी अपने शहर और उनकी मानसिकता देख कर सोच में पड़ जाता हूँ, कभी कभी दोस्तों का फ़ोन आता है तो वो बोलते है की यार अब तो हमारा शहर भी बिलकुल बदल चुका है , कोई भी ऐसी चीज नहीं जो की दिल्ली या मुम्बई में मिलती हो ओर यहाँ ना हो .शायद वो सही कहते है , अब सारे शहर एक जैसे ही है , बस फरक इतना है की वो भौतिक चीजो की बात करते है और मैं मानसिकता की। आज भी जब सुबह सुबह मैं अपनी बेटी को स्कूल छोड़ने जाता हूँ तो मानसिकता का वो ठेहराव साफ़ दिखाई देता है, एक बार बेटी को लेकर जा रहा था तो सामने से कुछ दुसरे स्कूल के बच्चे भी जा रहे थे जिनके कपडे कुछ ठीक नहीं थे और पैरो में चप्पले थी,
सामने से एक और मैडम जिनकी बच्ची मेरी बेटी के स्कूल में पढ़ती थी, अपनी बेटी को उन बच्चो को दिखाते हुए बोली " नो बेटा, .....डोंट गो देयर ,... दे आर  डर्टी ".
मैं  सोचने लगा की क्या येही प्रगति करी है हमने, इतनी शिक्षा और पैसे से  हमारी सोच क्या ऐसी हो जानी चाहिए,,,की "हम" और "वो" का अंतर इतना बढ़ जाए , बच्चो के लिए भी हम "साफ़" और "गंदे" जैसे शब्द युस करे।
ठीक इसी तरह इतने साल बाद भी मेरे शहर में वाल्मीकि मोहल्ले के लोगो के लिए मानसिकता कम नहीं हुई, आज भी मेरा दोस्त बिक्रम उस रात जब बियर बार से निकला और मुझसे हाथ मिला कर वापस अपनी कार में बैठ कर जाने लगा तो मेरा एक दोस्त बोल .."क्या टाइम आ गया है यार ........ अब साले ये लोग भी कार रखने लगे ". ऐसा ही माहौल घर में भी देखने को मिला जब इतने सालो बाद भी गली की सफाई करने वाली को मैंने अपने घर के बाहर एक टूटे कप में चाय पीते देखा . घर में उसी दिन "सुन्दर काण्ड का पाठ था और मैं ऊपर वाले कमरे में टीवी पर न्यूज़ देख रहा था तो बीवी आई और लगी डांटने की " शर्म नहीं आती तुन्हें जरा भी, सब लोग तुम्हे ढूंढ़ रहे है और तुम यहाँ टीवी देख रहे हो।।चलो जाकर पूजा में बैठो " , पूजा में जाकर देखा तो पंडत गला फाड़ फाड़ आँखे बंद करके सुन्दर काण्ड का पाठ कर रहा था . और सब हाथ जोड़े ऐसे बैठे थे की बस राम चन्द्र अब निकले की तब निकले तस्वीर से . पाठ ख़तम होने के बाद पंडत ने एक अखबार के टुकड़े पर प्रसाद रखकर एक बच्चे को उस सफाई करने वाली को देने के लिए कहा और वापस आने पर उस बच्चे पर गंगाजल छिड़क दिया।
कभी कभी  सोचता हूँ की  कार्ल मार्क्स अगर भारत में  हुए होते तो शायद "ऐतिहासिक भौतिकवाद और दास  कैपिटल "न लिख कर भारत की वर्ण व्यवस्था पर कोई कालजयी ग्रन्थ लिखते और और फिर शायद कोई चे गुवारा यहाँ पर भी हिंसात्मक क्रांति करके इस नासूर वर्ण व्यवस्था को ख़तम करता। जो हिन्दुस्तान की नस्लों में बचपन से पोलियो की दवाई की तरह हर रोज पिलाई जाती है। "पूंजीवाद और सामंतवाद के संस्कार "  साम्राज्यवादी लुटेरो के वो होनहार सपूत है जिन्होंने भारत जैसे देशो में लूट की इस परंपरा को बिना किसी जतन के इस मुल्क में पाल पोस कर बड़ा किया, उन्हें यहाँ किसी भी गैस चेंबर और ऑस्तिविज की जरुरत ही नहीं पड़ी , क्योंकि यहाँ सदियों से दलितों के लिए अलग बस्तिया (घेटटो ) पहले से ही मौजूद थी . सामंती संस्कारों ने जनता में "हम" सवर्ण  और "वो" दलित, हम हिन्दू वो मुल्ले की सोच बचपन से हमें सिखाई है .पूंजीवादी विकास ने इन संस्कारों को कुछ हद तक कम किया है ,लेकिन सिर्फ उतने तक की उन्हें फायदा हो, लेकिन जब जब व्यवस्था और मुनाफे पर खतरा होता है तो वो फिर इन्ही संस्कारों की सोच लेकर इंसानों को बांटने लगते है।
शायद इतने सालो के तजुर्बे से यही सीखा है की सिर्फ मुनाफा कमाने की सोच वाले इस पूंजीवादी समाज में लोगो की मानसिकता भी जानबूझ कर वैसी ही रखी जाती है , ताकि उसका समय समय पर जनता की ताकत को तोड़ने के लिए इस्तेमाल किया जा सके .इसमें शोषण का प्रथम पायदान वो लोग है जिन्हें इस वर्ण व्यवस्था में तथाकथित रूप से पहले स्थान पर रखा गया है , तभी ये सिस्टम उनकी ही सबसे ज्यादा हिफाजत करता है .और येही वर्ग अपने को टिकाये रखने के हर हथकंडे अपनाता है . जैसे की फिल्म "दिल्ली 6" में लडको को मर्द बनाने वाली रोल के लिए एक जमादारनी को चुना गया .
लेख ख़तम करने से पहले यहाँ मुझे अपने एक मित्र अरविन्द जी के लेख की कुछ लाइन याद आ रही है, उन्होंने इसी सन्दर्भ में कहा था की 
"हजारों सालों के तमाम उतार-चढ़ाव के बावजूद इस "सनातनी-व्यवस्था" ने अगर खुद बचाए और बनाए रखा है तो इसलिए कि .. वह एक साथ सैंकड़ों मोर्चों पर राजनीति करती है।'

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