शनिवार, 28 सितंबर 2013

दो कविताएं मेरी ...


1 - पूर्वाग्रह - 
पूर्वाग्रह
  बहुत खतरनाक होता है
पूर्वाग्रह आपके चरित्र , आपके ज्ञान ,आपके व्यक्तित्व को
हमेशा एक जगह रोके रखता है
ये आपको नफरत सिखाता है
नफरत जो की अगली पीढ़ी में चली जाती है
फिर अगली सभी पीढ़िया भी इसे अपना गुणधर्म बना लेती है
पूर्वाग्रह एक पूरी कौम को वहशी बर्बर और आतंकी घोषित कर सकता  है
पूर्वाग्रह अपने अन्दर की गलतियों और कमियों को डिस्काउंट देता है

पूर्वाग्रह का दूसरा नाम शुतुरमुर्ग भी हो सकता है .
शुतुरमुर्ग बहुत बड़ा होता है ..बिलकुल पूर्वाग्रह की तरह .
लेकिन इसे बचाए रखने के लिए सच्चाई की आंधी आने पर ..
आपको शुतुरमुर्ग की तरह अपना सर जमीन के अन्दर धंसाना होता है
पूर्वाग्रह का सर हमेशा सच्चाई से दूर जमीन के अन्दर धंसा होता है .
तभी ये अपना अस्तित्व बचाए रख सकता है
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2 - धार्मिक लोग
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कुछ लोग सच्चाई को नहीं स्वीकारते ...
ये जानते हुए भी की जो वो देख सुन रहे है सच है ,
वो खुद अपने मन और दिमाग को इधर उधर मोड़ते है
लेकिन सच्चाई को नहीं स्वीकारते .
वो उस सच्चाई को ना स्वीकारने के लिए मेहनत करते है ,
वो सच को ना स्वीकारने के लिए दुसरे की कमियों की खोज में रहते है .
दुसरे की कमी दीखते ही वो खुश हो जाते है .
फिर वो इसे अपना सूत्रवाक्य बना कर अपने झूठ को महान बताने लगते है .
लेकिन वो हमेशा डरते है , की कोई फिर दोबारा उन्हें सच्चाई ना दिखा दे .
वो इसे छुपाने के लिए फिर मेहनत करते है .
ऐसा अधिकतर धार्मिक लोग ज्यादा करते है .
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3 - गाब्रीएल गार्सीया मारकेज़ की एक कविता से प्रेरित _
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मनुष्य सिर्फ़ और सिर्फ़ एक ही बार  जन्म नहीं लेते
वो सिर्फ तब ही जन्म नहीं लेते  जब उनकी माताएं उन्हें पैदा करती हैं
जीवन बार बार उन पर अहसान करता है कि वे स्वयं को जन्म दें.
धरती पर इंसान को अनगिनत मौके मिलते है की वो जनम लेते रहे
वो  समाज के गर्भ के गंदे  बेहूदगी  से भरे सड़े हुए पानी से बाहर निकले
जिस में ज़्यादातर लोगों का अस्तित्व घिसटता रहता है.

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सोमवार, 22 जुलाई 2013

एक कविता .......... गाज़ा के बच्चो के नाम ...

 हम जमे रहेंगे क़यामत तक इस धरती पर ..
देवदारु के वृक्ष की तरह
चीड़ की नुकीली फिसलन भरी पत्तियों की तरह हमारे बच्चे लेट जायेंगे अपनी भूमि पर .
और नहीं टिकने देंगे तुम्हारे लुटेरे  साम्रज्यवादी इरादों का पानी ....
दुनिया का हर कोना हम तुम्हारे लिए असुरक्षित बना देंगे ...
और दुनिया देखेगी की किस तरह तुमने हमारी नस्लों को जानवर बना दिया ..
मात्रभूमि ही हमारे लिए सब कुछ है ,,,घर ही सबकुछ है ..
पुरखे लड़े .,, हम लड़े ,,और मुस्तकबिल में लड़ेंगे हमारे बच्चे ..
जंजीरों की आखिरी कड़ी तोड़ने तक .....


शुक्रवार, 21 जून 2013

उत्तराखंड का हादसा

मंगलवार से शुरू राहत व बचाव कार्य के बाद अब तक 10 हजार लोग ही निकाले गए हैं। बाकी के बीस हजार कहां गए, इसका जवाब सरकार, शासन और प्रशासन के पास नहीं है।
सरकारी आंकड़ों के अनुसार, गौरीकुंड से केदारनाथ धाम के 14 किमी के पैदल ट्रैक पर 4700 खच्चर चलते हैं। आपदा वाले दिन यह सभी बुक थे।
एक यात्री और एक खच्चर वाले को जोड़ दिया जाए तो इनकी संख्या 9400 पर पहुंच जाती है। इसी तरह पैदल ट्रैक पर 700 डंडी चलती है। एक डंडी को ले जाने के लिए चार लोग लगते हैं।
पीक सीजन में सभी डंडी चल रही थीं। यानी डंडी ले जाने वाले 2800 लोग हुए और उनमें बैठे 700 लोगों को मिलाकर कुल 3500 लोग हो जाते हैं। इसी तरह 500 कंडी संचालित होती है।
एक कंडी के साथ दो लोग होते हैं और एक यात्री बैठा होता है। इस तरह 1500 लोग यह भी हो जाते हैं। केदारनाथ से लेकर गौरीकुंड तक में 250 होटल हैं। एक होटल में कम से कम चार कर्मचारी होते हैं। इस तरह 1000 तो होटल के कर्मचारी हो जाते हैं।
केदारनाथ में मौजूद होटलों में 6000 यात्रियों के रुकने की व्यवस्था है। इसी तरह गौरीकुंड में स्थित होटलों में 8000 यात्री ठहर सकते हैं। पीक सीजन होने के कारण सभी होटल फुल थे।
इसका मतलब यह हुआ कि दो जगहों पर 14,000 यात्री ठहरे हुए थे। इस रूट पर 700 सरकारी कर्मचारी भी हमेशा तैनात रहते हैं। स्थानीय व्यापारियों की संख्या भी 500 से अधिक रहती है।
सुलभ इंटरनेशनल के 120 कर्मचारी और 100 पुरोहित भी मौजूद थे। सभी को मिलाकर 30120 लोग तबाही वाली रात यहां थे। 10 हजार बचाए गए तो 20 हजार कहां गए-इसका जवाब कोई नहीं दे रहा है।
बहरहाल, 24,800 लोग अभी भी फंसे हुए हैं। बृहस्पतिवार को टिहरी से गुप्तकाशी तक केदारनाथ मोटर मार्ग यातायात के लिए खुल गया तो इस रास्ते से हजारों यात्री ऋषिकेश पहुंचाए गए। (< from Aaj Tak news)
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लोग आजकल उत्तराखंड की कांग्रेस की सरकार को गाली दे रहे है , कुछ समय बाद अगर बीजेपी शाशित राज्य में हादसा होगा तो बीजेपी को दोष दिया जाएगा .समस्या ये नहीं है की उत्तराखंड की कांग्रेस सरकार ढीली है जिस वजह से लोग अभी तक राहत मिलने से महरूम है .
समस्या ये है की इस मुल्क की पूरी व्यवस्था ही भरष्ट है .....चाहे उत्तराखंड का ये हादसा हो या बिहार की छठ पूजा , चाहे अमरनाथ की यात्रा हो या किसी गाँव की स्कूल की बिल्डिंग गिरने जैसी दुर्घटना ,,,इस मुल्क में सब कुछ हवा में चल रहा है , इंसान की जान का उसकी सुविधाओं का किसी सरकार को कोई कंसर्न नहीं है . वो अपने सत्ता के गणित भिडाने में लगी रहती है और ऐसे हादसात में भी पैसा बनती है . ये सारा बर्बादी का कारोबार तब तक चलता रहेगा जब तक की इस पूंजीवादी व्यवस्था को उखाड़ कर नहीं फेंका जाएगा .

गुरुवार, 13 जून 2013

हुसैन को श्रधांजलि

हर एक जिस्म घायल, हर एक रूह प्यासी ,,, निगाहो में उलझन दिलों में उदासी !
ये दुनियाँ हैं या, आलम-ए-बदहवासी ,,, ये दुनियाँ अगर मिल भी जाये तो क्या हैं !!
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बीती 9 जून को उनकी पुण्यतिथी थी . जितनी ख़ामोशी से वो जीये , जितनी खामोशी से वो मुल्क से रुखसत हुए , जितनी ख़ामोशी से उन्होंने ये दुनिया छोड़ी , उतनी ही ख़ामोशी से 9 जून का दिन और उनके बिना दो साल भी निकल गए ..पता ही नहीं चला .
अपनी आखिरियत में उनके ना चाहते हुए भी मुल्क छोड़ने की मजबूरी , और इसी मजबूरी में जिन्दगी के आखिरी कुछ साल और आखिरी साल में वतन लौटने की तड़प लिए वो इस दुनिया से रुखसत हुए .
उन्हें मारा गया या वो खुद चल बसे ? ये सवाल इस धरती पर तब तक रहेगा जब तक फ़नकारो की कुंचीया रंगों से सराबोर रहेंगी . इंसानी माआशरे और तहजीब की इतनी तरक्की के बावजूद हुसैन साहब की इस तरह अपने वतन से दूर मौत हो जाना ये सवाल छोड़ता है की देशप्रेम के असली मायने क्या है ?? बीते हुए कल से मुद्दे खोज खोज कर निकलना , उन्हें मजहबी रंग देना और फिर उन मुद्दों को देशभक्ति से जोड़कर अवाम के बीच में उतार देना , इस मुल्क के हुक्मरानों का ये शगल हो चुका है .और उस पर अफसोस ये , की आज की पीढ़ी इस शगल को अपनाती है और फख्र के साथ माआशरे में और वर्चुअल दुनिया में अपने दिमागी दिवालियेपन का मुजायरा भी करती है.
चीजो को सतही तौर पर देखना और फिर सस्ते सवालों की बौछार करके बेसिर पैर के तर्कों से बहस जीतने के लिए बहस करना ,ये रिवाज इस मुल्क के युवा वर्ग के सर चढ़ के बोल रहा है आजकल . और इसी रिवाज के चलते हमें उस फ़नकार को खोना पड़ा जिसकी तूलिका पर खुद सरस्वती का वास था .



वो जिए तो अपने मुल्क के लिए , और इसी के लिए तड़प तड़प के मर भी गए . एक बार आशा भोंसले जी ने कहा था की जहा भगवान् भी पैर नहीं रखता वहाँ पर एक बेवक़ूफ़ पैर रख देता है . वो शायद कोई बेवक़ूफ़ ही होगा जो लता मंगेशकर की गायिकी में खामी निकाले , उन्होंने जो गा दिया वो फिजाओं में बिखर चुका है , उसमे कोई खामी नहीं है क्योंकि वो सरस्वती की आवाज है . इसी तरह हुसैन साहब के बारे में कहा जाता है की अगर वो एक बाल्टी में भर कर रंगों को दिवार पर फेंक मारे ,तो भी वो शक्ल तामीर हो जाती है जिसके लिए उनकी कला में मुरीद करोड़ो रुपये लुटा सकते है .और उनके मुरीदो और कला की समझ रखने वालो ने उन पर करोड़ो अरबो रुपये लुटाये भी , लेकिन वो हुसैन ही थे जिन्होंने कहा की अगर ये काम मुझे पैसो के लिए करना होता तो शायद मैं सड़क के किनारे आलू बेच लेता , क्योंकि मेरा रहन सहन और जरूरत के लिए सिर्फ उतना रुपया काफी है जो एक आम मजदूर दिन भर में कमाता है .
आखिर कब तक इस मुल्क के लोग बिना सोचे समझे बिना अपना दिमाग लगाए सियासतदानो के हाथो में खेलते रहेंगे . तीन सौ साल पुरानी इमारत को तोड़ने के लिए खून की नदिया बहा दी गयी, समाज में मज़हबी नफरत  का जहर घोल दिया गया ,बीस साल पुरानी बनायीं गयी हुसैन साहब की तस्वीरो को धार्मिक भावनाओं से जोड़ कर भोली भाली जनता को बेवक़ूफ़ बनाया गया . वो जनता जिसे ना ही कला की समझ है ना ही हमारे इतिहास की .

खजुराहो से लेकर कोणार्क तक और वेदों से लेकर "कुमार संभव" तक में लिखे धार्मिक देवी देवताओं की रतिक्रिया और सम्भोग के वर्णनों (तफ़्सरो ) से भरी पड़ी संस्कृति और उसके असल मायने समझे बिना हम उस कलाकार के पीछे पड़ गए और उसे अपनी धरती छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया । लेकिन वो हुसैन ही थे जिन्होंने अपने मुल्क को दिल में बसाया, मुल्क वापस लौटने की चाह में तड़प तड़प कर मर गए,  लेकिन कला की देवी सरस्वती की अराधना नहीं छोड़ी ,और जिस काम के लिये वो आये थे उसे करते रहे . शायद हुसैन ही भारत के उन चंद लोगो में से थे जिन्हें कला की समझ थी , शायद उन्होंने ही भारत की पुरातन कला को समझा और उसे अपने में उकेरा .और उसे ऐसा अपनाया की उसी के होकर रह गए . जब उन्होंने "सीता " पर अपनी सीरीज बनायी तो  सीता के त्याग से भरे व्यक्तित्व ने उन पर वो असर डाला की सीता की सरपरस्ती में उन्होंने हमेशा के लिए नंगे पैर रहना कबूल कर लिया.


हुसैन साहब पर फैसला सुनाने वाले, उनकी तामीरी तस्वीरो को बर्बाद करने वाले , उनकी सरस्वती के बनाये चित्रों को परखने वालो का क्या तालीमी इल्म था इस कला के बारे में ? हुसैन साहब ने अपनी माँ की तस्वीर या मोहम्मद साहब की तस्वीर बनायी या नहीं ये पूछने वाले किस अधिकार ये ऐसे सवाल कर रहे थे ? और अगर सवाल कर रहे थे तो क्या उन्होंने पहले वेदों को पुराणों  को खंगाल कर देखा की उनमे क्या भरा पडा है ? जिस धर्म में ब्रह्मा ने खुद अपनी बेटी को भोगा , जिस धर्म में इंद्र के किये की सजा अहल्या को मिली , जिस धर्म में सबसे बड़े भगवान् ने अपनी गर्भवती पत्नी को मरने के लिए छोड़ दिया .......क्या हुसैन से सवाल करने वाले लोग इन कथा पीड़ित और शोषित महिलाओं की जगह अपनी माँ बहन या बेटी को रख कर देख सकते है ??

क्या उन्होंने कभी कालिदास की रचना "कुमार संभव" पर सवाल उठाया जो हिन्दुओ के पांच सबसे बड़े संस्कृत की रचनाओं में माना जाता है ? वो कुमार संभव जिसका आठवाँ अध्याय ही पूरा शंकर और पार्वती के सम्भोग के वर्णन से भरा पडा है .
लेकिन हुसैन साहब का सरस्वती की तस्वीर बने का कारण ये सारे धार्मिक ग्रन्थ नहीं थे . वो उनकी कला क्षेत्र का वो बिंदु था जिसे वोही समझ सकता है जिसे उस कला की समझ हो .
हुसैन तो खुद सरस्वती के सबसे बड़े पुत्र थे जिन्होंने भारत के नाम का वो डंका बजाया की आज भी " आर्ट " की पढ़ाई के लिए स्कालरशिप पाकर लन्दन जाने वाले बच्चे "यूनिवर्सिटी ऑफ़ लन्दन आर्ट " में छाती फुला के इसलिए घुमते है की वो उस धरती से आये है जहाँ  हुसैन पैदा हुए थे . उन्हें ये कहते हुए कभी हिचक नहीं होती की "आई ऍम फ्रॉम इंडिया ".....क्योंकि उन्हें हमेशा ये जवाब मिलता है ..."ओह्ह ग्रेट ...इंडिया .."द लैंड ऑफ़ माक्बूल फिडा हुसैन "


हुसैन साहब का देश छोड़ने का फैसला और उनकी मौत असल में हमारी सड़ चुकी संवेदनाओं और फासिस्ट सियासत के असर में डूबी खोखली संस्कृति को दिखता है . और ये भी दिखता है की कैसे आज के पूंजीवादी समाज में जनता को बरगलाने के लिए मुद्दे बनाये जाते है और एक धर्म या जाती विशेष के लोगो को काल्पनिक दुशमन दिखा कर फासिसम का ज़हर फैलाया जाता है . ताकि जनता अपनी परेशानियों की वजह उस धर्म और जाती विशेष के लोगो को माने , ना की इस लूटखोर व्यवस्था के चलने वालो को .
खैर हुसैन साहब को जाना था वो चले गए लेकिन ये विश्वास है की आखिरियत में उनके दुखते दिल में सिर्फ उनका मुल्क  भारत ही रहा होगा . एक नब्बे साल का बुजुर्ग इस नफरत भरी दुनिया से कैसे लोहा लेता , इसलिए शायद उन्होंने मुल्क के प्यार को दिल में बसा कर कला की देवी की उपासना करना ही बेहतर समझा और दुनिया के एक दुसरे कोने में बैठ कर आखिरी वक़्त तक अपने काम को मुक़र्रर रखा जिसके लिए वो आये थे .
राजनीतिज्ञों के हाथो फासिस्ट विचारधारा के प्रभाव में बंधी अज्ञानी जनता की तरफ से हम हुसैन साहब से घुटनों के बल गिर कर माफ़ी मांगते है . हमारी तरफ से हुसैन साब को आंसुओ से भरी श्रधांजलि ...... इस फासिस्ट और शोषणकारी व्यवस्था से लड़ते रहने के निरंतर संकल्प के साथ उन्हें हमारा सलाम .

बस
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मंगलवार, 14 मई 2013

फिल्मे समाज का ..... धन लूटने का माध्यम होती है !


नशा शराब में होता तो नाचती बोतल ......पाकिस्तानी फ़नकार अजीज मियाँ के लिखे इस कलाम के मुखड़े को चोरी करके जब अमिताभ बच्चन की शराबी फिल्म में डाला गया उसके ऊपर अमिताभ के संवाद और उच्च वर्ग पूंजीपति की विक्षिप्त अवस्था को दिखाया तो शराब पीने वाली जमात को जैसे संजीवनी बूटी और अपने पीने को जायज ठहराने का वो कालजयी बहाना मिल गया , जो आज भी बदस्तूर जारी है और जिसे आज अनुराग कश्यप जैसे घुन्ने और तथाकथित भविष्य के फिल्मकार देव डी जैसी फिल्मे बना कर भुना रहे है.
वो जमाना गया जब फिल्मे समाज का दर्पण हुआ करती थी , आज फिल्मे समाज में रह रहे लोगो की मानसिकता (कमजोरी)  को समझ कर उनसे पैसा वसूलने का माध्यम बन चुकी है . आजकल के नौजवान आम बोलचाल की भाषा में औरतो के यौनांगो को लक्षित करके जो भाषा युस करते है , कई साल पहले मेरा एक लम्पट दोस्त कहा करता था की यार एक ऐसी फिलम बनानी चाहिए जो की हमारी भाषा (आम बोलचाल और गालियाँ ) में बने . और उनकी ये मुराद राम गोपाल वर्मा के चेले ने गंग्स और वास्सेय्पुर बनाकर कर पूरी कर डाली , एक नहीं दो दो डोज एकसाथ देकर .
आज के पूंजीवादी जमात के फिल्मकार समाज में ये मुद्दा खोजते है की लोगो को कुंठा निकालने में सबसे ज्यादा मजा किस बात में आता है , और फिर उसे ध्यान में रखकर दो महीने में पूरी फिल्म बना कर पूंजीवादी संस्कृति से प्रभावित लोगो की कुंठित मानसिकता को कुरेद कर उनसे पैसो उगाही शुरू कर देते है . "रागिनी का एम् एम् एस " "डेल्ही बेल्ही " और "गंग्स ऑफ़ वासेपुर " इस महान पूंजीवादी लूटपाट फिल्म संस्कृति की शुरुआत भर है . भौतिकवादी संस्कृति के प्रभाव और इस छदम फ़िल्मी दुनिया की चकाचौंध में फसी एक लड़की " मारिया सुसाईराज " और उसके प्रेमी द्वारा करी गयी वीभत्स घटना को एक फिल्मकार ने हाथो हाथ लिया और अपनी फिल्मांकन कला से घटना का सजीव और सचलचित्र  वर्णन करके एकतरफा प्यार और प्यार में धोखा खाए नौजवानों को इसी राह पर चलने की खामोश नसीहत दे डाली , दर्शको को लगने लगा की ये तो हर सोसाईंटी में होता है , मतलब ये एब्नार्मल नहीं है .जिन्हें ये लगता है की मैं नकारात्मक सोच के साथ लिख रहा हूँ वो एक साल में हुए ऐसे अपराधो के ग्राफ पर एक बार नजर डाल लें  .
इसके साथ साथ इस मुनाफेदारी व्यवस्था के तथाकथित विद्वान् ऐसे चित्रों में कला को खोज कर अखबारों के पन्ने रंगते भी दिखाई देते है. जैसे की एक भाड़े के लेखक लिखते है गंग्स ऑफ़ वासेपुर में "फैजल ने पूरी फिल्म में एक कुंठित युवा की भूमिका निभायी है जिसे ये पता होता है की उसकी माँ का किसी के साथ अवैध सम्बन्ध है "......वाह क्या परिद्रश्य चुना गया है कला और भावनाओं के प्रदर्शन के लिए . इस पैसा उगाही के साथ साथ ये संस्कृति सामंतवादी मूल्यों को फिल्मो के माध्यम से समाज में पूरी तरह बना कर रखती है . कला और यथार्थ के नाम पर पैसा वसूली का ये धंधा कुछ कलम घसीटो द्वारा जायज भी ठहराया जाता है . जहां मुंशी प्रेमचंद के साहित्य या महबूब खान के चलचित्रों में उनके चरित्र सामंती बन्धनों को तोड़ने की कोशिश करते दिखाई देते है वही आज "दिल्ली-6"  फिल्म में लडको को मर्द बनाने वाली के लिए एक जमादारनी को ही चुना जाता है .
बड़ी सफाई से अपनी (झूठी) सच्चाई को सामने रखने के लिए अनुराग कश्यप ने वासेपुर में एक संवाद भी डाल  दिया था , जब रामाधीर सिंह कहता है " इस देश में जब तक सलीमा बनता रहेगा ,,,,,,लोग बेवक़ूफ़ बनते रहेंगे "! लेकिन असल में वो अपनी तथाकथित कला के माध्यम से जनता की गाढ़ी कमाई की लूटने के बाद समाज को ठेंगा दिखा रहे थे ! शब्द कुछ यूँ होने चाहिए थे " " इस देश में जब तक सलीमा बनता रहेगा ,,,,,,लोग लुटते रहेंगे " !
क्योंकि नशे में कौन नहीं है मुझे बताओ ज़रा ...किसे है होश मेंरे सामने तो लाओ ज़रा !

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बस 

सोमवार, 29 अप्रैल 2013

सामन्तवाद की खिचड़ी पूंजीवादी अचार के साथ.

                                            सामन्तवाद की खिचड़ी  पूंजीवादी  अचार के साथ.
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कल ही मेरे के दोस्त के बेटे का जनम दिन था , सन्डे   का दिन था तो उसें मुझे सबह सुबह बुला लिया और मुझे लेकर बाजार निकल पड़ा सामान लेने , मैंने पूछा की क्या सामान लाना है भाई .
उसने पहले पूजा का सामान ख़रीदा फिर एक केक और ये सब सामान घर पर रखने के बाद बोला "चल यार ठेके से बोतल ले आते है शाम के लिए ". तो सुबह सुबह पंडत जी आये ,पूजा हुई और शाम को केक काटा गया, जब बच्चे और घर की महिलाए रात में खाना खा रहे थे तो हम सारे दोस्त ऊपर छत पर आ गए और फिर दारूबाजी शुरू हो गयी।
सुबह को पूजा, और शाम को केक काट कर डांस करना , संस्कृति का ये घालमेल सीधे सीधे बाजारवाद और उपभोक्तावाद से जन्मा है , जहा पर लोगो को एक तरफ अपने को आगे दिखाने की होड़ के लिए  पूंजीवादी सभ्यता के लगभग हर गैर जरुरी उत्पादों को खरीद कर अपने आप को छदम सुख देता है और दूसरी तरफ भगवान् व पूजा के सारे कर्मकांड करके अपने तथाकथित पापो का संतुलन भी बनाए रखता है। येही कारण है की आज जीतनी भीड़ बाबाओ के समागमो में देखने को मिलती है , उतनी ही अनुपातित भीड़ आपको KFC , मक्डोनाल्ड और पिज्जा हट जैसी जगहों में भी मिल जायेगी।
उपभोक्ता वादी संस्कृती के चलते आज हमारे शादी ब्याह ,जन्मदिन ,मुंडन ,सारे अनुष्ठान  एक शो ऑफ कि चीज बन कर रेह गये है .लंबे लंबे खाने के मेनु, हर शादी मे चार-पांच फन्क्शन , हर फंक्शन के लिये अलग अलग कपडो कि तैयारीया। बेटी या बेटे के घरवाले अपनी तमाम मेहनत कि कमाई ओर कभी कभी तो उधार लेकर ये सब बे-जरुरती इंतेजामात करके समाज मे अपने दंभ को दर्शाते है कि देखो मेरे पास भी अच्छा खासा पैसा है, लेकीन कही अंतर्मन मे वो इस दिखावे को फिजूलखर्ची ओर अपना नुकसान भी मानता है . ओर अंततः ये कुंठा बाहर निकलती है घरेलू तनाव ओर बाद मे पत्नी ओर बच्चो के साथ कलह मे .
असल में ये हमारा भारतीय समाज एक बच्चा है जी। ये समाज एक त्रिशंकु अवस्था में झूल रहा है।
इसकी हालत एक बच्चे जैसी है , वो बच्चा जिसे कोई एक झुनझुना लाकर देदे तो वो उसे बजाने लगता है , फिर एक गाडी दे दे तो वो उसपर मस्त होकर चलने लगता है, और फिर जब और बच्चे मिलते है तो वो उन्हें अपने खिलौने दिखाने के लिए रोमांचित हो जाता है।
हमर समाज भी कुछ ऐसा ही है, हमें लगता है की हम प्रगति कर रहे है ,लेकिन बिना सोचे समझे की ये वाकई प्रगति है या कुछ और .
जब बहुराष्ट्रीय कंपनियों को अपना धंधा सँभालने के लिए सस्ते कामगारों की जरुरत पड़ी तो हमें MBA और बिजनेस स्कूल खुलवा दिए और झुनझुना पकड़ा दिया , जब उन्हें व्यापार बढाने के लिए संचार तंत्र की जरुरत पड़ी तो इन्टरनेट और मोबाइल का झुझुना पकड़ा दिया , ,,,,और अब वो खिलौने बेकार हो गए तो उनका उपयोग बता कर वो अभी भी ये हमें बेचे जा रहे है। इस धरती पर मानव समाज के विकास का हर जगह अलग अलग अवस्थाओं में सामान विकास हुआ है , इंगलैंड वो पहला देश था जहा मशीनी सभ्यता सबसे पहले पनपी और अपनाई गयी , जब मशीन आई तो उसके चलाने वाले और मालिको के दिमाग भी इससे अधिक से अधिक मुनाफा कमाने की जुगत में लग गए , इसी के तहत उन्होंने सबसे पहले अन्य देशो में मशीनी सभ्यता के विकास की प्रारंभिक अवस्था में ही भ्रूण हत्या करनी शुरू कर दी और उन्हें अपना औपनिवेश घर बना कर वहा  का कच्चा माल लूटना शुरू कर दिया। भारत में भी अंग्रेजो के आने के शुरूआती दिनों में बंगाल में जूट उद्योग लगने शुरू हो गए थे जिसे इन्होने बर्बाद कर दिया।
इसी प्रकार पश्चिम के जिन जिन देशो में औध्गिक सभ्यता विकसित हुई उन्होंने ज्यादा से ज्यादा उपनिवेश हड़पने की कोशिश करनी शुरू कर दी , और इसकी परिणिति आखिर में विश्व युद्ध पर जाकर ख़तम हुइ.
आज के समय में माहौल कुछ ऐसा बना दिया गया है की लोग मोबाइल, मॉल कल्चर ,इन्टरनेट और कंप्यूटर को ही प्रगति का पैमाना मानने लगे है , इस बीच अगर आप गेंहू ,चावल और दाल उगाने वाले किसानो की बात करो तो इसे कोई तवज्जो नहीं देते।   लेकिन सोचना ये चाहिए की इन सब चीजो का इस्तेमाल करते हुए भी जब आप हर एक या दो घंटे में कुछ खाने के लिए खोजते हो तो वो खाने की चीज गेंहू ,चावल या किसी अन्न से ही बनी होती है जिसे हमारे किसान पैदा करते है , चाहे आप KFC में खाए या हल्दीराम के आउटलेट में , आप किसान की मेहनत का ही खाते है ...इन्टरनेट आपकी भूख नहीं मिटा सकता . आज भी माल बेचने के लिए पूंजीवाद एक नहीं दो नहीं बल्कि हर दिशा से हमला करके आपको माल खरीदने के लिए मजबूर करता है ,ये कडिया कैसे आपस में जुड़ी  हुई है ...आइये इसका एक नमूना देखते है .
टीवी और सिनेमा के माध्यम से गंदी फिल्मे और सीरियल से नौजवानों में ये भाव पनपा है की आज के युग में गर्ल फ्रेंड या बॉय फ्रेंड का होना जरूरी है .
अब जब प्रेमी या प्रेमिका होगी तो आपको बहार डेटिंग भी जानना पड़ेगा ,,,तो इसके लिए मॉल और मार्केट खुले पड़े है .
अब मॉल और मार्किट से सामान भी खरीदना पड़ेगा एक दुसरे को गिफ्ट देने के लिए,,,,,तो इसके लिए लवर्स डे , किस डे , चोकलेट डे और ना जाने क्या क्या डे बनाए गए .
अब इस संस्कृति को क्या कहा जाए जो की सिर्फ माल बेचने के लिए कृत्रिम रूप से बनायी गयी है . ये संस्क्रती जो की अभी आपको माल खरीदने के लिए नए नए भगवान् भी दे देती है, क्रिकेट के भगवान् , सिनेमा के भगवान् वैगैहरा वैगैहरा,   ताकि आप उनके द्वारा विज्ञापित सामानों को ख़रीदे और इसी संस्कृति का विभत्स रूप आपको पश्चिमी दुनिया के कई देशो में मिल जायेगा जो की अपने युद्ध सामग्री और हथियार बेचने के लिए अंधराष्ट्रभक्ति तक विज्ञापन के रूप में दिखाते है .
फिलहाल हमारे त्रिशंकू समाज के खिचड़ी संस्कार तब तक ऐसे ही चलते रहेंगे जब तक इन्हें रचने वालो का समूल नाश ना होगा / या किया जाएगा .
ओह्ह बताना भूल गया ...मेरा जिगरी दोस्त अश्मित आज सुबह सुबह मदिर गया था , मत्था टेकने  , एक बड़ी सॉफ्टवेयर कंपनी में इंटरव्यू अटेण्ड करने के लिए . अभी अभी उसका  फ़ोन आया है की उसके सारे इंटरव्यू राउंड क्लियर हो गए और अगले महीने जॉइनिंग है। ....उसने आज शाम बियर पार्टी के लिए बुलाया है .

बब्बाय .....एन्जॉय कैपिटलिज्म ...

शुक्रवार, 19 अप्रैल 2013

सॉरी श्री राम .... I am not convinced

सामंतवादी चरित्रों का पूजन पूरी तरह जातीय दंभ और शाशक वर्ग की सत्ता बनाए रखें के लिए समाज को सुनाता जाता रहा है .
ये वाकई अद्भुत और विचार करने योग्य प्रशन है की आज तक कोई भी भगवान् वर्ण व्यवस्था के सबसे निचले पायदान पर घोषित समाज के घर पैदा क्यों नहीं हुआ ?
ये सभी चरित्र या तो ब्राह्मण या फिर ठाकुर परिवारों में ही पैदा हुए. श्री राम ,परशुराम ,कृष्ण, बलराम ,और सभी काल्पनिक चरित्र पूरी तरह या तो शाशक वर्ग में पैदा हुए और उनके साथ खड़े नजर आते है या फिर उनका साथ देते हुए तथाकतित धर्म युद्ध लड़ने के नाम पर विद्रोह को दबाने के लिए लड़ते है । राम , परशुराम और कृष्ण द्वारा किये गए सारे कृत्य इधर उधर से लीपा पोती वालो तथ्यों और तर्कों द्वारा धार्मिक घोषित किये जाते रहे है . बाली का वध हो या शम्बूक की ह्त्या , महाभारत का युद्ध हो या परशुराम का नरसंहार , हिन्दुओ की तथाकथित उच्च जातियाँ येन केन प्रकारेण इन सभी कृत्यों को धर्म रक्षा के लिए बताती है .
जब प्रणय निवेदन कर रही स्त्री स्वर्णनखा की नाक काट देते है और दोंनो भाई मिल कर उससे चुहलबाजी करते है तब ना जाने वो कौन से धर्म का पालन कर रहे होते है , और खुद रामायण में सैकड़ो बार "महाज्ञानी " " महात्मा"  "महा विद्वान् " जैसे शब्दों से अलंकृत रावण की बात आती है तो वो अधर्मी और पापी घोषित किया जाता है. जबकि राम कथा से जुड़े सारे ग्रंथो में ये लिखित रूप से मौजूद है की रावन ने कभी सीता पर बल प्रयोग नहीं किया (अपहरण को छोड़ कर ) और हमेशा उससे मिलने जाते हुए अपने पूरे परिवार और धर्मपत्नी मंदोदरी के साथ ही गया.  सीता माता और स्त्री पात्रों के साथ उसके व्यवहार को इतना उत्तम दिखाया गया है कि कथा के नायक श्री रामचंद्र जी का क़द भी उसके सामने छोटा पड़ जाता है । क्षत्रिय कभी भागते हुए शत्रु को नहीं मारता तो फिर भी बाली वध को ना जाने किस द्रष्टि से धार्मिक ठहराया जाता है ?महाराज बाली का तो वो प्रताप था की रावन जैसे को भी अपनी बगल में दबा के सिक्स मंथ तक घुमते रहे, और बोले बेटे रावण तू तो चीज क्या है ,और राम ने महाराज बाली को एक बठला हाउस स्टाइल में एक फर्जी मुठभेड़ में धोखे से मारा, रामभक्त बाली के दुसरे की शक्ति को खींच लेने के वरदान के कारण राम का ये कृत्य सही ठहराते है, तो कुछ पढ़े लिखे अंध भक्त ये कहते है की बाली ने अपने छोटे भाई का राज्य और पत्नी छीन कर अधर्म किया था .क्या श्री राम उसके इस अधर्म के लिए उसे सामने से ललकार कर सजा नहीं दे सकते थे,??? या उन्हें डर था की कही बाली उनका ही शिरेच्छेद ना कर डाले ? फिलहाल बाली को मारने के बाद उन्होंने सुग्रीव की पत्नी रोमा की अग्नि परीक्षा क्यों नहीं करवाई ,जबकि रोमा तो बाली के साथ मजबुरी वश लेकिन स्वेच्छा से रही थी उसके भरष्ट होने की ज्यादा सम्भावना थी,
और अगर नही करवाई अग्नी परीक्षा तो फिर सीता के लिए अलग कोड ऑफ़ कंडक्ट क्यों अपनाया गया ??? इसलिए सारी बात कि एक बात काल्पनिक उपन्यास में जो मर्जी भये वो लिख दो, सदियो कि मानसिक गुलामी वाले लोग भरे पडे किसी भी काल्पनिक कहानी पर विश्वास करने के लिए .......आखिर एकता कपूर ऐवैइ थोड़े पीट रही है पैसा काल्पनिक कहानिया दिखा दिखा कर।
आग में गुज़रने की परीक्षा औरत से कोई बुद्धिजीवी नहीं लेता और झूठे आरोप पर कोई पति और राजा अपनी पत्नी और अपने नागरिक के मानवाधिकारों का हनन नहीं करता और गर्भावस्था में तो आज का पतित समाज भी किसी बुरी औरत तक के साथ बदसुलूकी की इजाज़त नहीं देता । तब मर्यादा की स्थापना के लिए जन्मे सदाचारी श्री रामचंद्र जी एक सती के साथ उसकी इच्छा और न्याय के विपरीत उसका त्याग क्यों कर दिया जबकि खुद उनके भाई लछमन और बाकी घरवाले रोकते ही रह गए।
इस काल्पनिक कथा में दलितों और समाज की निम्न वर्ग को भी बस राम के सेवक के रूप में ही दिखाया गया,,,,,चाहे वो शबरी प्रकरण हो या केवट की कथा , या फिर खुद वाल्मीकि का चरित्र भी उनकी कपोल कल्पित प्रशंशा में ही लगा रहा .
युद्ध का मतलब ही होता है हिंसा , मारकाट, हजारो विधवाए इस तरफ हुई और हजारो विधवाए उस तरफ हुई, निर्दोष लोगो की ह्त्या और दुर्दांत आर्थिक और सामाजिक संकट . और एक अवतार के लिए ये भी सब धर्म युध्ह घोषित कर दिया गया.  अंततः सारे धार्मिक ग्रंथो की तरह ये काल्पनिक कथा भी शाशक वर्ग के महिमामंडन से भरी हुई है जिसमे नैतिक और अनैतिक कामो का  चरित्रों के हिसाब से और वर्ण व्यवस्था के प्रतिनिधित्व करते चरित्रों को ध्यान में रख कर अर्थ निकाले गए है .

गलती मर्यादा पुरषोत्तम राम की नहीं है ...गलती या कहे षड्यंत्र तो उन शोषण कारी शक्तियों का है जो आज भी इन सामंती गपोड़ ग्रंथो को प्रासंगिक बता कर अशिक्षा , अंधभक्ति और शोषण आधारित सामाजिक और जातीय ढांचे को बनाये रखना चाहते है ......ताकि इन्हें अपनी सुविधानुसार हर अनैतिक काम को सही ठहराने के लिए आधार मिलता रहे .

सोमवार, 15 अप्रैल 2013

सब गुजरात से आता है

और मैं ये कहना चाहूँगा मित्रो .....
की आप जो चाय पीते हो ..... ..वो गुजरात से आती है
दिल्ली मेट्रो ............................गुजरात से आती है
आप जो प्याज खाते हो ...........वो गुजरात से आता है
आलू , भिन्डी, टमाटर , चुकंदर,  बन्दर,  केला,  सिंघाड़ा,  ककड़ी,  गंडीरी,  नारियल, कददू , घीया ,कटहल ...............................................सब गुजरात से आता है .
शिमला मिर्च , कश्मीरी पुलाव, मटर पनीर , पनीर टिक्का , कढाई पनीर, पनीर दो प्याजा , पनीर पसंदा ................................................सब गुजरात से आता है .
रम, जिन, बीयर, व्हिस्की, देशी ,ठर्रा ,मसाला बोतल ,अध्हा पव्वा , चिलम , गांजा, बीड़ी , भांग, धतूरा ......................................सब गुजरात से आता है .
कांग्रेस पार्टी इज आल अबाउट कमीशन ...................
एंड बीजेपी इज अ पार्टी ऑफ़ क*नी's सन .............
म्हारो गुजरात .........भाइब्रेन्ट गुजरात ..................
गुजरात माँ आपका स्वागत छे ........ ...................
मणे परधान मंतरी बणाओ....मणे भारत माँ को कर्जा उतारानो छे .

शुक्रवार, 29 मार्च 2013

राजाओं और बाद्शाहो का इतिहास (असली वाला)


बचपन से आज तक हमें जो भी इतिहास पढाया या बताया जाता है वो राजाओं और बाद्शाहो का इतिहास बताया गया है, वो कुछ इस तरह होता था की महान अशोक ये था, अकबर वो था, औरंगजेब ऐसा था ,राणा प्रताप वैसा था और सारे इतिहास में जनता के योगदान का कही जिक्र नहीं होता . अगर बारीकी से देखा जाए तो इन राजाओं और बादशाहों ने आपस में जो लड़ाईया लड़ी वो अपने राज्य के विस्तार और अपने स्वार्थ के लिए ही थी। जो भी राजा ज्यादा सैन्य क्षमता रखता था वो आप पड़ोस के राजाओं को अपने मातहत रखकर उनसे वसूली के लिए कहता था, अगर दूसरा राजा मान जाए, तो सही, नहीं तो युद्ध शुरू हो जाता था। आज के समय में भी अगर आप साम्रज्यवादी देशो की विदेशनिति को देखे तो वे लोग अरब देशो में अपने कब्जे को लेकर अपने ही देश में विरोध को झेलते है , तमाम गरीब देशो में शोषण, अराजकता और आतंकवाद फैलाने की वजह से खुद अपने ही देश में जनता उनका मुखर विरोध करती है लेकिन फिर भी वो अपने पिट्ठू मीडिया, सूचना तंत्र और फिल्मो के द्वारा इसे राष्ट्रभक्ति से जोड़कर दिखाते है और जनता के आक्रोश को कम करने की कोशिश करते रहते है। ठीक इसी तरह सामंतवाद के जमाने में राजा महाराजा  और बादशाहो के सभी युद्ध अपने राज्य की विस्तारवादी नीतियों और आर्थिक फायदे के लिए लड़े जाते थे , जिन्हें बाद में हमारे इतिहासकारों ने कुछ इस तरह से दर्शाया की जैसे वो देशभक्ति से ओतप्रोत जनयुद्ध की घटनाएं हो . आपको किसी भी इतिहास की किताब में मेहनतकश जनता के योगदान और युद्ध के बाद  आये आर्थिक संकट को दूर करने के लिए जनता के दुर्दांत शोषण और उनपर लगाए जाने वाले करो का कोई विवरण नहीं मिलेगा . इतिहासकारों द्वारा सामन्ती युग का बहुत ही सतही तौर से वर्णन किया जाता है जिससे की वो सिर्फ एक राजा विशेष की शौर्य गाथा लगती है , की फलां बहुत वीर था , उसके पास बहुत बड़ी सेना थी , उसने उस राजा को हराया, लेकिन इन्ही राजाओं के द्वारा की जाने वाली ऐय्याशिया , धोखाधड़ी, छलकपट, व्यभिचार, जनता के शोषण की कोई भी कथा आपको इतिहास में नहीं मिलेगी। आपको इतिहास में राजाओं की इमारतों , मकबरों और हथियारों और युद्ध की गाथाये तो मिलेंगी लेकिन किसी भी रियासत में जनता के लिए शिक्षा , चिकित्सालय और अन्य सुविधाओं का ब्योरा नादारद मिलेगा। बाद में सांप्रदायिक मानसिकता के चलते भिन्न भिन्न राजनितिक दलों से सम्बंधित बुद्धिजीवियों ने अपने अपने हिसाब से हिन्दू और मुस्लिम राजाओं की भलमानुसता की गपोड़ कथाये लिख डाली .
भारत पर राज करने वाले अधिकतर रियासतों के राजाओं ने मुगलों के आने पर पहले तो उनका विरोध किया और काफी हद तक उन्हें रोकने में सफल भी हुए , परन्तु मुगलों की विराट सैन्य क्षमता के चलते सर्वप्रथम उन्होंने सुदूर पश्चिमोत्तर प्रान्तों पर कब्जा किया , फिर भारत के राजाओं ने खुद अपने स्वार्थ के लिए उनसे समझौते किये या फिर उनसे कुछ शुरूआती प्रतिरोध के बाद उनके मातहत राज करने के समझौते किये। और ये सिलसिला उस हद तक गया जहा पर परिणाम स्वरुप  14-15वी सदी के अंत तक भारत की लगभग सभी बड़ी बड़ी जागीरो पर मुसलिम बादशाहों का कब्जा हो गया . जैसे की दिल्ली ,रामपुर,लखनऊ , हैदराबाद , जूनागढ़ , मैसूर ,बंगाल, जयपुर , आगरा आदि आदि।
17वी शताब्दी के शुरूआत तक आधौगिक क्रांति के चलते ब्रितानी सभ्यता लगभग पूरी तरह मशीनों के निर्माण और उपयोग में पारंगत हो चुकी थी, बन्दूक , हथियार , मशीनों से चलने वाले जलयान , कपडा, लौह अयस्क और अन्य चीजे मशीनों से बनाने में वो लोग दुनिया में सबसे विकसित वर्ग के रूप में थे, इसी शक्ति के चलते उन्होंने विश्व के बाकी अविकसित देशो को कच्चे माल की लूट के लिए अपना उपनिवेश बना शुरू कर दिया . जब वे लोग भारत में प्रवेश किये तो यहाँ के कच्चे माल के भण्डार और प्राक्रतिक संसाधनों से भरपूर राज्यों को देखकर उनकी बांछे खिल गयी . भारत में राज करने वाले हिन्दू और मुस्लिम राजा और उनकी प्रजा अभी भी सामन्ती उत्पादन व्यवस्था में ही जी रहे थे और मशीनों से उत्पादन में कई सौ साल पीछे थे , सभी प्रकार का उत्पादन पूरी तरह हस्तकला पर आधारित था। सोने पर सुहागा ये था की सारे हिन्दू-मुस्लिम राजा आपस में ही अपने अहम् और छोटी छोटी बातो पर लड़ते रहते थे , लड़ाई की मुख्य वजहे राज्य विस्तार की महत्वाकांक्षाये होती थी ...या फिर "औरत" . अंग्रेजो ने इसी कमजोरी का फायदा उठा कर सभी राजाओं को आपस में लड़ना शुरू कर दिया , एक दुसरे के मतभेदों का फायदा उठाया और किसी एक राजा को सैन्य सहायता और बन्दूक, बारूद से चलने वाले हथियार देकर उसी के भाई या पडोसी राजा से लडवाया और बाद में दोनों राज्यों का नियंत्रण अपने हाथ में ले लिया। भारत में राज करने वाले राजाओं और बादशाहों ने भी अपने ढीले चरित्र और लालच के चलते अंग्रेजो से हर प्रकार के समझौते किये।  यहाँ तक की 1857 के विद्रोह के बाद जब अंग्रेज हुकूमत बहुत डर गयी थी, तब भी खुद भारत के कई हिन्दू और मुस्लिम राजाओं ने अंग्रेजो को भारत में अपने अपने राज्यों में वापस आकर व्यापार करने का निमंत्रण दिया,उनके जान माल की सुरक्षा और जनप्रतिरोध दबाने की गारंटी भी दी .और आपको आश्चर्य होगा की ये काम इतनी बड़ी बड़ी रियासतों के राजाओं ने किया ,,जिनके वंशज आज भी भारत की राजनीती में अहम् मुकाम रखते है .(ये दिखता है की भारत की जनता आज भी किस तरह सामन्ती मानसिकता में जी रही है ) .
1857 का विद्रोह ही ऐसा पहला संयुक्त विद्रोह माना जा सकता है जिसमे कई रियासतों के राजाओं ने एकसाथ मिलकर अंग्रेजो को भारतीय संस्कृति के प्रति शोषणकारी रवैय्ये को पहचान कर उसके खिलाफ विद्रोह किया था। लेकिन ये विद्रोह भी खुद भारत के ही कई गद्दार राजाओं और नवाबो की वजह से अंग्रेजो द्वारा कुचल दिया गया . 1857 से लेकर 1947 तक का काल कई जन विद्रोहों का काल रहा था जिसमे जनता ने खुद ही शोषणकारी शक्तियों के खिलाफ मोर्चा खोला जिसमे बिरसा मुंडा का विद्रोह, संथाल विद्रोह और तेलंगाना और तेभागा का किसान आन्दोलन प्रमुख रहे है ,ज्ञात रहे की ये विद्रोह हर तरह के देशी और विदेशी शोषण के खिलाफ हुए थे . इस काल में जनता और समाज में आमूलचूल परिवर्तन हुए और हमें भगत सिंह और साथियो का अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ भी विद्रोह देखने को मिला, जो की पूरी तरह से शोषण पर आधारित सिस्टम को ख़तम करने के लिए था . भगत सिंह, आज़ाद, बिस्मिल ,अशफाक  और उनके तमाम साथी साम्रज्यवादी लूटेरो और उनके (देशी) हमदर्दों को अच्छी तरह से पहचान चुके थे इसीलिए वो देशी और विदेशी पूंजीपतियों के शोषण से मुक्त एक सच्चा जनतंत्र चाहते थे . लेकिन इस काल खंड के बीच अगर आप देखे तो इन तथाकथित राजाओं और नवाबो का आजादी की लड़ाई में योगदान लगभग शून्य था, इसके उलट ये लोग ब्रितानी हुकूमत की सहायता करते रहे , क्रांतिकारियों को पकडवाने के लिए मुखबरी करते रहे। जिसके एवज में ब्रितानी लोगो ने इनकी पेन्सन और ऐय्यशियो के लिए सुविधाए दी, या ज्यादा से ज्यादा इन्होने अंग्रेजो का विरोध किया भी तो सिर्फ और सिर्फ अपने सुविधाओं को कायम रखने के लिए। सम्पूर्ण एतिहासिक कालखंड में अगर सबसे ज्यादा किसी का शोषण हुआ तो वो भारत की आम जनता थी! लेकिन जिसने अंग्रेजो और बाकी शोषण कारी शक्तियों के खिलाफ संघर्ष शुरू किया वो भी जनता ही थी। उत्पादन और खेती को जिन लोगो ने उन्नत बनाया वो भी जनता ही थी, राजाओं ,नवाबो और अंग्रेजो ने जनता को सिर्फ और सिर्फ लूटा. जनता के हितो को ताक  पर रखकर अपने स्वार्थ और भोगविलास के लिए सारे समाज को अशिक्षा और अवैज्ञानिक सामन्ती संस्कारों से निकालने के लिए न ही किसी राजा ने कोशिश करी और ना ही अंग्रेजो ने।
इसलिए हमें ये समझना चाहिए की ये सारा समाज दो वर्गों में विभाजित रहा है ,,,एक वो वर्ग जिसका सत्ता और उत्पादन और कब्जा होता है , और दुसरा वो जो की इन उत्पादन के साधनों पर काम तो करता है लेकिन ये सत्ताधारी वर्ग उसे हड़प लेता है .
येही सत्ताधारी वर्ग पहले राजा नवाब और अंग्रेज हुआ करते थे,,,,और आज के समय में नेता , राजनितिक दल और पूंजीपति होते है। इसलिए किसी भी देश या समाज के इतिहास की सही व्याख्या करनी हो तो उसमे हमें जनता के योगदान को देखना ही पड़ेगा ....वरना ये राजा और नवाबो के किस्से कहानिया बच्चो को सुनाने और अपने आप के झूठे अहम् को पोषित करने के लिए तो अच्छी है। लेकिन ये इतिहास की अधूरी कपोल कल्पित कथाये समाज के समग्र विकास में हमेशा रोड़ा बनी रहेंगी 

गुरुवार, 28 मार्च 2013

अंधभक्ति



वो सब जानते है की सरकारे कैसे चलती है
कैसे सांसद ख़रीदे बेचे जाते है
कैसे देशी विदेशी पूँजी की दलाली होती है
कैसे खनन माफियाओं को खुल्ले सांड बनाया जाता है
कैसे दंगे प्रायोजित किये जाते है
कैसे जाती धर्म के नाम पर लड़ाया जाता है
कैसे झूठे आंकड़ो से अवाम को बेवक़ूफ़ बनाया जाता है
कैसे अपने लिए हर नाजायज काम को नैतिक बना लिया जाता है
वो सब जानते है की हर राजनितिक दल इसमें माहिर है ...

लेकिन जिस पार्टी के ये समर्थक है ,उसको  हमेशा पाक साफ़ बताना होता है .
ये कोई इन्हें नहीं सिखलाता, .
ये इनके अन्दर का लालच और अज्ञान इन्हें सिखाता है .


इस फितरत को सभ्य भाषा में "अंधभक्ति ".
और असभ्य भाषा में "कमीनापन" कहा जाता है.

मंगलवार, 19 मार्च 2013

आपकी पत्नी...आपकी सैलरी....और शोषण

(कार्ल मार्क्स द्वारा रचित दास कैपिटल और उनकी अन्य रचनाओं में उद्धृत  "बेशी मूल्य - अतिरिक्त मूल्य और श्रम के सिद्धांतो से प्रेरित " )

क्या आपने कभी सोचा है की आपकी सैलरी या पगार का निर्धारण कैसे होता है . मतलब की अगर आप 50 हजार रुपये पगार पाते है तो वो क्या ऐसी चीज है जिससे ये निर्धारित होता है की आपको 50 हजार रुपये मिलने चाहिए . कुछ लोग कहेंगे की एजुकेशन या एक्सपीरियंस है जिस वजह से सैलरी निर्धारित होती है ये बात कुछ हद तक ठीक है, लेकिन यदि आप नवीन जिंदल की सैलरी देखे जो की लगभग 7 करोड़ प्रतिमाह है तो शायद आप सोचेंगे की उसका तो एक्सपीरियंस और एजुकेशन तो अब्दुल कलाम आजाद से बहुत कम है फिर भी उसे इतनी सैलरी कैसे मिल रही है. इसका जवाब सिंपल है,,,क्योंकि नवीन जिंदल खुद अपनी कंपनी का मालिक है , वो अपनी और अपने जैसे तमाम खादिमो की सैलरी अपने हिसाब से निर्धारित कर देता है, येही बात अनिल अम्बानी , मुकेश अम्बानी , डॉक्टर त्रेहान , जगदीश खट्टर जैसे तमाम बड़े बड़े सैलरी पाने वाले लोगो पर लागू होती है .
लेकिन उपर दिए गए सारे मिसालो से ये अब भी साबित नहीं हो पाया की किसी इंसान की सैलरी कैसे निर्धारित की जाती है या की जा सकती है। इसके लिए हमें बहुत निचले स्तर से जाकर तफसरा करना पड़ेगा . पहले हमें ये समझना पड़ेगा की आखिर सैलरी होती क्या है , या तनख्वाह नाम की चीज है क्या ??
सैलरी या पगार वो " मूल्य " या "पूँजी"  का वो रूप होता है जो आपको अपना श्रम या मेहनत को बेच कर मिलता है। मतलब की आप अपने ऑफिस या काम पर जाकर जो भी अपनी शारीरिक और मानसिक मेहनत खर्च करते है उसके एवज में आपको जो पैसा मिलता है उसे सैलरी कहा जाता है . दूसरा सवाल ये है की  किसी की सैलरी या मेहनत के बदले में मिलने वाला पैसा आखिर क्यों मिलता है या "सैलरी" क्या होती है - ------
असल में सैलरी वो चीज होती है जिससे की हम अगले दिन काम पर जाकर दोबारा श्रम बेचने लायक ऊर्जा को इक्कठा कर सकने के लिए सुख सुविधाए जुटा सके और दोबारा रिचार्ज हो  अगले दिन मेहनत करने के लिये जा सके .

साधारण शब्दों में अगर कहा जाए तो - हमें अपने को लगातार ऊर्जावान बनाये रखने के लिए जिन चीजो की जरुरत होती है उन सुख सुविधाओं, खान पान, और तमाम चीजो को खरीदने के लिए मिलने वाला पैसा ही हमें हमारी सैलरी के रूप में मिलता है .
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तभी हम देखते है की एक साधारण मजदूर जो की सिर्फ शारीरिक श्रम करता है और दिन भर में ४-५ उत्पाद पैदा करता है उसकी सैलरी एक बड़े मैनेजर से काफी कम होती है क्योंकि एक बड़े वैज्ञानिक या मैनेजर की दिमागी मेहनत एक मजदूर से ज्यादा मूल्य का उत्पाद पैदा करती है और उस वैज्ञानिक को अपना दिमागी स्वास्थ्य और स्तर चलायमान और ऊर्जावान रखने के लिए एक मशीन पर काम करने वाले मजदूर से ज्यादा सुख सुविधाओं की जरूरत होती है .
(हालाँकि मजदूरी और श्रम के मूल्य को समझाने के लिए ये सभी उद्दरहण अपने आप में पर्याप्त नहीं है लेकिन जिस दिशा में मैं ये लेख को ले जा रहा हूँ उसके लिए ये भूमिका काफी है. )
तो आधारभूत सिद्धांत ये है की सैलरी वो होती है जिसे हम अपनी ऊर्जा को वापस पाने में खर्च करते है ,
अब देखने वाली बात ये है की जब आप काम से वापस आते हो और घर पर अपनी ऊर्जा को वापस लाने या अपने को रिचार्ज करने के लिए आराम , सुख सुविधाए को भोगना और खाना खाते हो ,,,तो उस काम में किसकी मेहनत लगती है ,,,या ऐसे कहे की आपको पुनः काम करने लायक बनाने के लिए जो आपको तैयार करता है वो कौन है .....?????
निश्चित रूप से वो एक औरत ही होती है , किसी घर में पत्नी के रूप में , किसी घर में बहन या माँ के रूप में .कुछ लोग जो अभी अविवाहित है वो भी कुछ एक साल बाद अपनी आजीविका के लिए जरुरी श्रम को रिचार्ज करने के लिए किसी न किसी औरत पर ही निर्भर होंगे . यहाँ अगर मैं सिर्फ आपकी पत्नी की बात करू तो येही वो औरत है जो आपको दोबारा से शक्ति संचय में करने में सहायता करती है जिससे की आप अगले दिन काम पर जा सको. आपके खाने से लेकर , भावनाए साझा करने और आपको शारीरिक और मानसिक संतुष्टि देने के लिए आपकी पत्नी ही वो मुख्य किरदार है जिससे की आप पूरे महीने ऊर्जावान रहकर सैलरी पाते हो.
तो अगर इंसान अपनी पगार को सही से विश्लेषित करे तो  उसकी सैलरी में से वो सिर्फ आधे का ही हकदार है ,और उसकी आधी सैलरी असल में उसकी पत्नी या घर की औरत की होती है /होनी चाहिए .
(यहाँ मैं ब्रोड पर्सपेक्टिव में बात कर रहा हूँ, मीन मेख निकाल कर या किसी स्तिथि विशेष के उद्दहरण देकर इनकी तुलना ना की जाए )
आज अगर इस नजरिये से देखा जाए तो औरत दोहरे नहीं बल्कि तिहरे शोषण का शिकार है।
# पहला वो शोषण जो उसे सामंती व्यवस्था वाले सामाजिक परिवेश से झेलना पड़ता है .
# दूसरा वो शोषण जो उसे खुद अपने घर में पुरुष सत्तात्मक समाज के लक्षणों से दो चार होते हुए झेलना पड़ता है .
# तीसरा शोषण वो है जो पूंजीपति एक मजदूर को कम मजदूरी देकर करता है, क्योंकि वो जब एक मजदूर को कम मजदूरी देता है तब वो एक औरत का अप्रत्यक्ष रूप से शोषण कर रहा होता है .वो औरत जो की पुरुष को अगले दिन काम करने की शक्ति अर्जित करने लायक बनाती है और उसे उसका पूरा मूल्य नहीं मिल पाता।
इसलिए आज हर कामगार इंसान को चाहे वो एक मजदूर हो या मनेजर, ये सोचना पडेगा की क्या ये व्यवस्था हमारे साथ न्याय कर पा रही है , क्या वो हमारे श्रम का हमें उचित मूल्य दे पा रही है , क्या आज हर मजदूर को उसके श्रम का उचित मूल्य मिलता है जिससे की वो अपने और अपने परिवार को ऊर्जावान और खुश रख सके, क्योंकि श्रम के शोषण का सीधा सीधा  मतलब औरत का शोषण होता है. आज ये उत्पादन व्यवस्था पूरी तरह निजिकरण पर टिकी हुई है जिसमे पूंजीपति का उद्देश्य सिर्फ और सिर्फ अपना मुनाफा बढ़ाना होता है जिसके लिए वो उन्नत मशीने लगा कर , मजदूरो की छटनी करता है या फिर उन्हें कम मजदूरी देकर और ज्यादा उत्पादन करवा कर अपना मुनाफा बढ़ता है। जिसका मतलब ये है की वो मजदूर ही नहीं वरन मजदूर के घर की औरतो का भी शोषण करता है .
औरतो के शोषण के खात्मे के लिए उत्पादन व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए की जिसमे मजदूर को उसके श्रम का सही मूल्य मिले और औरत को घर से बाहर निकाल कर सीधे सीधे उत्पादन व्यवस्था से जोड़ा जाए,  जिससे की वो मानव्  समाज की प्रगति और उत्पादन में भागिदार बने, उसे भी उसके श्रम का सही मूल्य मिले .वरना जब तक वो घर में रहेगी वो सिर्फ एक टूल बन कर रह जायेगी,,,,वो टूल जिससे की आप अपने को रिचार्ज करते हो ,,,अगले दिन काम पर जाने के लिये.
हमें इस निजी मुनाफे पर टिकी इस अर्धसामंती अर्धऔपनिवेशिक व्यवस्था को उखाड़ना पड़ेगा जो की औरतो को अपना माल बेचने के लिए इस्तेमाल करके ये भरम फैलाना चाहती है की आज औरते मर्दों के साथ कंधा से कंधा मिला कर चल रही है , दो चार सुनीता विलियम्स, ऐश्वर्या रॉय  और इंदिरा नूयी जैसी महिलाओं के उद्दाहरण देकर लोगो को भ्रमित किया जाता है की ये व्यवस्था संभावनाओं से भरी है और औरतो को आगे आना चाहिए . पर ये इक्का दुक्का उद्दहरण उन औरतो के है जो या तो खुद शोषक वर्ग से आती है या जो की उच्च माध्यम और उच्च वर्ग से सम्बंधित है .वो किसी भी प्रकार से आम जनता और समाज में रह रही महिला के शोषण और उत्पीडन से कोई सरोकार नहीं रखती .ना ही ये वो महिला वर्ग है जो सुबह 5 बजे उठकर किचन में जाती है और फिर दिन भर घर में पिसने के बाद रात को 11-12 बजे तक सबके सोने के बाद घर के बर्तन मांज कर और अगले दिन सुबह नाश्ते के लिए सब्जिया काट कर , फिर सोने जाती है .इसी समाज में हर रोज अनगिनत रेप , घरेलू हिंसा और सम्पूर्ण अफ्रीका महादीप में वेश्याव्रत्ति में शामिल महिलाओं की कुल संख्या से भी ज्यादा सेक्स वर्कर्स की भारत में मौजूद महिलाओं की संख्या इस व्यवस्था की पोल खोलने के लिए काफी है .   जिस तरह मानव समाज पुरुष और स्त्री के बराबर अनुपात से बनता है , उसी तरह व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई में औरतो की बराबर भागीदारी के बिना ये इन्किलाब भी पूरा नहीं हो सकता . व्यवस्था परिवर्तन की इस लड़ाई और हर प्रकार के शोषण से मुक्ति के लिए औरतो को क्रांति में ज्यादा से ज्यादा भागीदार बनाना ही एकमात्र उपाय है .
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अंत में कात्यायिनी जी की कविता की चंद लाइन ---

नहीं पराजित कर सके जिस तरह
मानवता की अमर-अजय आत्मा को
उसी तरह नहीं पराजित कर सके वे  हमारी अजेय आत्मा को,

आज भी वह संघर्षरत है ,नित-निरंतर उनके साथ
जिनके पास खोने को सिर्फ़ ज़ंजीरें ही हैं ,बिल्कुल हमारी ही तरह !






सबसे भुक्खड़ लोग



पंचतारा होटल में हजारो रुपैईय्ये  की सलाद की कुछ फांके खाने वाले ..
किसानो कर्मचारियों और मजदूरो के खून से सनी सभ्यता का लबादा डाले ..
ये शालीनता से कम खाने वाले  ....... दुनिया के सबसे  भुक्खड़ लोग है .

आसमा को चूमती इमारतों की तामीर करने की होड़ में ..
मजदूरी के पसीने से सींची इमारतों के नींवो की तामीर में ..
ये विदेशी इत्रों की खुशबू से लबरेज ......दुनिया के सबसे बदबूदार लोग है .

औरत को बराबरी का झांसा देकर दर हद तक इस्तेमाल करने वाले ..
नारी को ढोल बता कर ...शोषण को धर्मग्रंथो में जायज ठहराने वाले ..
ये शोषण की चीखो को धर्मोपदेश से ढकने वाले  ... दुनिया के सबसे हरामी लोग है .

सोमवार, 11 मार्च 2013

चुल्लू भर पानी में डूब मरो !


तमाम शोशल साइट्स पर पिछले 10 दिनों में डी.एस.पी जिया उल हक़  की शहादत के बाद जो बेशर्मी का खेल खेला गया वो ये बताने के लिए काफी था की इस मुल्क के हालत कभी नहीं सुधरने वाले और हम लोग यकीनन जिन हालातो में जी रहे है उन्ही हालातो में जीते रहेंगे। जैसा की पहले मैंने लिखा था की भारतीय अवाम अपने सामंती बन्धनों में इतनी बुरी तरह जकड़ी हुई है की वो समाज में घटने वाली हर घटना को पहले जाती धरम के नजरिये से देखती है , और हर मसले में गैर जरुरतन  हिन्दू मुस्लिम दलित सवर्ण दलगत राजनीती के मुद्दे डाल कर आपस में नूरा कुश्ती शुरू कर देती है . चूँकि ऐसे लोगो में खुद मानवीय संवेदनाये नहीं है इसलिए वो जिया उल हक़  की बेवा  परवीन आज़ाद की भावनाओं को समझने में नाकाम रहे, बल्कि उन भावनाओं का अपनी कुत्सित मानसिकता से मनगढ़ंत अर्थ निकाल कर एक बेवा के बारे में ऐसी घ्रणित बाते शुरू कर दी जिसे पढ़ कर शायद फ़रिश्ते भी शर्मशार हो जाए।
ये बात सही है की परवीन आज़ाद ये चाहती हैं की उन्हें डी.एस.पी की  ही पोस्ट मिले . लेकिन लोगो ने इन बातो का अर्थ कुछ ऐसा निकला की जैसे ये कोई बड़ी ही सरकारी मलाईदार पोस्ट है जिसे पाकर  परवीन आज़ाद मालामाल हो जायेंगी। तकनिकी रूप से शायद ये संभव नहीं की उन्हें ये पोस्ट मिल पाए , क्योंकि PPS (Provincial police service) की परीक्षा पास करने के बाद एक लम्बी प्रक्षिक्षण प्रक्रिया से गुजर कर ही "सी.ओ" या डी.एस.पी की पोस्ट मिलती है , जिसके लिए शायद परवीन आजाद शायद क्वालिफाइड नहीं हैं . लेकिन भावनातमक उफान के चलते और चंद महीनो पहले हुई शादी और अपने शौहर को शहीद होने का दर्द शायद उनकी भावनाओं को नहीं रोक पा रहा है .और उन्होंने इस पोस्ट की मांग रखी ! परवीन आज़ाद ये पोस्ट चाहती थी की शायद वो इस व्यवस्था में कुछ सुधार ला सके , शायद वो उस आतंक के पर्याय बने एक सड़  चुके सामन्ती समाज के पैरोकार एक तथाकथित सामंती नवाब के आतंक को चुनौती दे सके। परवीन आज़ाद ये पोस्ट चाहती थी की शायद वो इस प्रकार के हादसात को रोक सके या कम कर सके , परन्तु अगर आप आज भी उनके सारे टीवी इंटरव्यू को खंगाले तो आपको कंही भी ऐसा नहीं लगेगा की वो किसी लालच में आकर ये पोस्ट चाहती है , वो सिर्फ एक भावनात्मक जिद के चलते ये मांग कर रही है उन्होंने इस खोखली व्यवस्था के प्रति अविश्वास जताते हुए उस सीबीआई टीम के लोगो की जांच करने वालो के बायो डाटा भी देखने की मांग राखी ताकि बिना कसी पक्षपात के दोषी को बचने का मौका न मिल सके ,,,इसमें कुछ भी गलत नहीं है , हां ये बात अलग है की सरकारी नियमो के तहत ऐसा करना शायद संभव नहीं है .
उनकी मानसिक हालत कुछ ऐसी ही है जैसे की किसी इंसान के पिता को कोई गुंडा मार दे तो वो कानून , समाज और अपनी जान की परवाह किया बिना ये चिल्लाता है की मैं उस खूनी को सरे आम मार डालूँगा ! हालाँकि परवीन ये नहीं कह रही है क्योंकि वो एक पढ़ी लिखी महिला है लेकिन कमतर जिन्द्गाई तजुर्बे और गाँव वालो की सलाह के चलते शायद वो इस प्रकार की मांग रख रही है।
मगर मसला यहाँ परवीन की मांग का नहीं बल्कि उन लोगो की मरणासन्न हो  चुकी अपने स्वार्थ की सडांध मारती सामंती मानसिकता का है जो इस मसले में भी हिन्दू मुस्लिम का नजरिया रखते है और जिया उल हक की शहादत को शहीद हेमराज से तुलना करके परवीन आज़ाद के चरित्र हनन और उनके बारे में गन्दी गन्दी बाते कर रहे है। जिया और हेमराज दोनों भारत के ही सपूत थे , दोनों शहीद हुए और दोनों के परिवारों ने दुःख झेला . शहीद हेमराज की विधवा पत्नी ने भी रोते रोते अपने लिए उचित मुआवजे की मांग रखी थी और पेट्रोल पंप देने की बात कही थी . और बात दीगर की है की उन्हें राज्य सरकार , केंद्र सरकार ओए सेना की तरफ से अब तक 46 लाख रुपये मिल चुके है , पेट्रोल पंप मिलने का काम प्रक्रियाधीन है और गाँव में पक्की सड़क और उनके नाम पर स्कूल भी बनाया जाएगा . तो क्या हम ये कहे की शहीद हेमराज  विधवा  ख़ातून अपने पति की लाश की मार्केटिंग कर रही थी ....जी हां येही वो हर्फ़ है येही वो शब्दावली है जो आजकल के तथाकथित विद्वान् लोग परवीन आज़ाद के लिए कर रहे है.
आज इन्टरनेट और गूगल पर हर जगह परवीन आज़ाद के नाम की हजारो सूचनाये मिल रही है,,,,,लोगो ने इसका ठीकरा भी परवीन के सर ही फोड़ डाला , जैसे की इसके लिए भी वोही जिम्मेदार है . राजनितिक दलों के नेता उनसे मिलने और अपनी संवेदना प्रकट करने जा रहे है ,,,इसमें भी परवीन आज़ाद को मुसलमान होने का दंश झेलना पड़  रहा है. कुछ मुस्लिम धर्म गुरु भी अपने नंबर बनाने और राजनितिक फायदे के लिए वहा पहुच गए,,इसका जवाब भी परवीन से ही माँगा जा रहा है . परवीन लाश की मार्केटिंग कर रही है , मौत की ब्लैक मेलिंग , परवीन सेलेब्रेटी बनाना चाहती है वैगेहरा वैगेहरा .
ऐसा कहने और करने वाले ये इंसानी जज्बातो से महरूम वो लोग है जिन्हें ये तक एहसास नहीं की जिस औरत का तीन दिन पहले सुहाग उजड़ा हो , जिसके पति को एक जानवर से भी बुरी मौत नसीब हुई हो वो इतना दिमाग कहा से लाएगी और क्यों लाएगी , वो लड़की जिसने तीन दिन  एक अन्न का दान खाए बिना रोते रोते विक्षिप्त और लगभग बेहोशी की हालत में गुजारे हो वो क्या ऐसे वक़्त में इतना सोच सकती है की मेरे लिया क्या पोस्ट चाहिए और क्या नहीं, लेकिन जैसा की मैंने कहा की वो एक भावनात्मक जिद के चलते ऐसी मांग रख रही है जिसके पीछे की सोच ये है की अगर उन्हें ये पोस्ट मिल जाए तो वो शायद इस जुल्मो दहशत के कारोबार को शायद कुछ कम कर सके . यकीनन ये अमली तौर पर सही नहीं है लेकिन बिना किसी की परिस्तिथि और जज्बात समझे बिना शोशल साइट्स पर ऐसी भद्दी भद्दी बाते लिखना जितना शर्मनाक है उतना ही अमानवीय भी है . अमानवीय मैंने इसलिए लिए कहा क्योंकि एक शहीद की बेवा बन चुकी परवीन के चरित्र तक पर लोग उंगली उठाने शुरू हो गए है .
इन लोगो का मानसिक दिवालियापन यहाँ भी नहीं रुका, इससे बढ़कर ये लोग उस इंसान के सपोर्ट में खड़े हो गए जिसका पूरा इतिहास ही आपराधिक गतिविधियों से भरा पड़ा है , जिसने अपने व्यावसायिक और राजनितिक फायदे के लिए खुद अपनी राजपूत जाती ही नहीं बल्कि अपने खानदान तक के लोगो से जमकर लड़ाइया करी है। बीजेपी के नेता पूरण सिंह बुंदेला और अपनी ही एक रिश्ते की बहन रत्ना सिंह के साथ जिसकी खुनी दुश्मनी है , जो एक और इमानदार पोलिस ऑफिसर आर एस पाण्डेय के क़त्ल के केस में सीबीआई के शक के घेरे में है , इस ऑफिसर ने इस तथाकथित राजा के घर में रेड़  मारी थी .
इतने पर भी कुछ लोगो द्वारा इसका साथ देने का कारण ये है की  , ये लोग उसी  सामंती गुलामी से भरी मानसिकता के गुलाम है जिसमे हर इंसान सही गलत को भुला कर सिर्फ और सिर्फ अपने जातिगत ,आर्थिक और धार्मिक फायदे  को देखता है और अपनी इसी सहूलियत के हिसाब से अपना पक्ष चुन लेता है .
अगर शहीद होने वाले का नाम "जिया सिंह चौहान" होता तो येही लोग फिर शायद इस राजनितिक रंग देकर इन्हें समाजवादी पार्टी के होने की सजा के तौर पर खुद के कर्मो की सजा बताते, या फिर शायद दोनों राजपूतो में से ज्यादा रसूख रखने वाले का साथ देते .
अगर शहीद होने वाले का नाम "जिया लाल त्रिपाठी" होता तो शायद ये लोग इसे राजपूत और ब्राह्मण के नाम पर लड़ते .
अगर शहीद होने वाले का नाम " जिया लाल वाल्मीकि" होता तो ये लोग शायद उच्च जात और नीची जात के नाम पर लड़ते .

नाम कोई भी हो पर ये तय है की इस घटना को ये धरम और जात के नजरिये से देखकर लड़ते जरूर , शायद येही इस समाज की सामंती फितरत और हिन्दुत्ववादी संस्कारों का दोगला जैविक गुणधर्म है जिसकी वजह से सैकड़ो सालो तक शोषणकारी शक्तियां भारत की जनता को लूटती रही, आज भी लूट रही है.... और आगे भी लूटती रहेंगी !

बुधवार, 6 मार्च 2013

गणेश जी ने दूध पीया !.. "ज़िया -उल-हक़" शहीद हो गए !


शीर्षक देख कर आप चौक गए ना ?  लेकिन यकीन जानिए की गणेश जी के दुग्धपान करने और डी एस पी "जिया उल हक़ " की शहादत वाली घटना में अद्भुत समानता है .
हुआ यूँ की आज से लगभग 20 साल पहले अमेरिकी साम्राज्यवादियो ने एक एक्सपेरिमेंट करा था , उस एक्सपेरिमेंट का उद्देश्य ये जानना था की भारत की जनता अंधविश्वास के कितने गहरे गर्त में डूबी हुई है , और ये इसलिए किया गया की उन्ही दिनों भारत साम्राज्यवादियो द्वारा चलाये गए अभियान के तहत आर्थिक उदारीकरण और मुक्त बाजार व्यवस्था  के लिए हमारे देश को लूटने के लिए विदेशियों को आमंत्रित करना शुरू कर चूका था ! जैसा की ये सर्वविदित है की किसी भी देश में जब पूँजी की लूट शुरू होती है तो उसके खिलाफ संघर्ष भी शुरू हो जाता है, इसलिए उसी संघर्ष को दबाने के लिए जनता को जात पात धरम के नाम पर तो बांटा ही जाता है लेकिन साथ साथ ये भी जानना जरूरी होता है की उस देश विशेष के लोगो का बुद्धि का स्तर कितना है,,,क्या वो लोग हमारी लूट को समझ पायेंगे , या फिर उस लूट को किसी तरह हम इन दुर्बुद्धि लोगो को जायज ठहरा पायेंगे ?इसी साजिश के तहत 21 सितम्बर 1995 को अमेरिका के एक इन्टरनेशनल  मंदिर इस्कोन से एक अफवाह उडाई गयी की "भारत का एक भगवान् आज सुबह से दूध पी रहा है " और इस खबर को किसी तरह भारत में पंहुचा दिया गया . सबसे पहले दिल्ली के एक मंदिर में इस खबर पर मोहर लगाई की हांजी आज भगवान् दूध पि रहे है ,बस फिर क्या था चाँद ही मिनटों में ये खबर भारत के कोने कोने फ़ैल गयी और लोग अंधे होकर हाथो में दूध का लोटा लेकर मंदिरों में इकठ्ठा होना शुरू हो गए .भगवान् ने दूध पिया या नहीं पिया या क्यों पीया ये सब तो अलग बहस की बाते है , लेकिन हां ये प्रयोग की सफलता देख कर साम्राज्यवादी शक्तियों की बांछे खिल गयी . उनके लिए तो ये ऐसा ही था जैसे की कोई चोर किसी घर में चोरी करने के लिए घुसा और उसने देखा की घर के सभी लॊग अफ़ीम खाकर टुन्न बेसुध हुए पड़े है ...और चोर ने बड़े आराम से घर में लूट मचाई और चलता बना।
इस घटना के बाद पूँजी की लूट के माठाधीषों को ये समझ में आ गया की दुनिया की सबसे बड़ी मंडी बनाने जा रहा भारत के लोग पहले से ही अफीम के नशे में डूबे हुए है, और इन्हें लूटने में कोई परेशानी नहीं आने वाली .

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कट ------  कट ------ कट ...... सीन चेंज..............
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जगह - उत्तर प्रदेश
तहसील- कुंडा , गाँव- वलीपुर
घटना - पुलिस डी एस पी "जिया-उल-हक़ " की कुछ लोगो ने ह्त्या कर दी
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इस दुर्घटना का बैक ग्राउण्ड आपको मालूम ही है ,तो मैं सीधे इस घटना के बाद के माहौल पर कुछ रौशनी डालता हूँ। ये घटना और इससे जुडी कुछ बाते बड़ी पेंचीदा थी,,,,,,,जैसे की "मरहूम जिया-उल-हक़ एक मुसलमान थे, ह्त्या करने वाले और उनके आका लोग राजपूत थे , घटना के मुख्य आरोपी के खैरख्वाह राजा भैय्या राज्य सरकार में मंत्री थे , राज्य सरकार जो कुछ ही महीने पहले चुन कर आई है उनकी जीत में मुस्लिम समुदाय का बड़ा योगदान था, सरकार के विपक्ष में एक दल बीजेपी है जो की मुस्लिम विरोधी माना जाता है ,....वगैहरा .. वगैहरा . जिया-उल-हक़ की शहादत के बाद अगले दो दिन तक तो सभी लोग दिमाग और संयम की हद में रहे लेकिन तीसरे दिन के बाद से सब लोग तहजीब के दायरे से बाहर निकल कर कबड्डी खेलना शुरू कर दिए और गाहे बगाहे फिर से शोषण कारी शक्तियों को ये सन्देश दे डाला की हम लोग सुधरने वाले नहीं है और सारी  जिन्दगी आपस में लड़ते रहेंगे. ये कैसे हुआ ..आइये देखते है .


इस घटना के बाद सबसे पहले सभी लोग एकमत से ये मान कर चल रहे थे की ये घटना एक दबंग की गुंडई का परिणाम है जिसमे एक इमानदार ओफ्फिसर को अपनी जान गवानी पड़ी .और खुद सपा के समर्थक भी राज्य प्रशाशन  की इस ढील पर नाराज होते दिखे . कुछ बीजेपी और हिन्दूवादी देशभक्त लोग बुझे मन से इस घटना की निंदा तो करते रहे लेकिन मरने वाला एक मुसलमान था इसलिए एक दो कमेन्ट डाल कर जल्दी से इतिश्री कर डाली. और मुस्लिम समुदाय के लोग अपनी बेचारगी पर अफ़सोस जताते हुए दिखे . और वो दिल्ली में दामिनी की ह्त्या के बाद हुए प्रतिरोध जताने के लिए बाकी देशवासियों की तरफ हसरत भरी निगाहों से देखते रहे . लेकिन असली कहानी शुरू हुई तीन दिन बाद, जब सब लोग हमाम में नंगे होने शुरू हो गए.  # सबसे पहले सपा और मुलायम सिंह समर्थक लोग इस घटना से घबराने लगे की कही जिया की ह्त्या से सपा का मुस्लिम वोट बैंक न खिसक जाए , क्योंकि पिछले चुनावों में मायावती की हार का मुख्य कारण येही था की उसके मुस्लिम वोटो का ध्रुवीकरण मुलायम जी की तरफ हो गया था, ठीक वैसे ही जैसे 2007 में मायावती ने मुलायम को इसी मुस्लिम धुर्विकरण के तहत पराजित किया था। क्योंकि मायावती का दलित वोट कभी भी उनके आलावा कंही और वोट नहीं देता और उनकी जीत को सुनिश्चित करने वाले मुस्लिम वोट ही होते है .

लेकिन मुस्लिम भाइयो के बार बार विरोध के कारण घबराहट के तहत सपा समर्थक मर्यादा में तो रहे लेकिन अंततः उनका सब्र का बाँध टूटा और वो खुल कर पार्टी के बचाव में आकर सीधे सीधे आक्रामक होकर कहने लगे. " रजा भैय्या को निष्काषित कर दिया है , जिया के घर वालो को 50 लाख और नौकरी दे दी गयी है , और सीबीआई की जांच होगी,,,,और आपको क्या चाहिए ????"

# दूसरी जमात में वो लोग आते है जिन्हें इस घटना के "राजपूत" प्रेम जाग उठा और वो राजा भैया के राजपूत होने की वजह से खुलकर उसका साथ देने लगे .
इन साथियो ने सही गलत को समझने की कोशिश करे बिना ही रजा भैय्या को शेर बता कर खुल्ले आम उनका साथ दिया, ये प्रेम शायद इसलिए भी है की जातिगत कम्पेटिबिलिटी और दबंगई की वजह से रघुराज प्रताप सिंह बीजेपी में एंट्री पाने के लिए परफेक्ट है . उन्हें सपा छोड़ने तक की सलाह दे डाली , कुछ ने कहा की सपा तो आज है , कल नहीं रहेगी लेकिन राजा भैय्या का जलवा तो कल भी था और आने वाले कल में भी रहेगा .इनके तर्क के अनुसार जिस किसी ने "राजा" पर उंगली उठायी ये उसे न्याय पालिका की दुहाई देकर उसे जज ना बने की सलाह देने लगे , कुछ भाई तो यहाँ पर भी नहीं रुके और धमकी भरे अंदाज में लोगो को ऐसे हड़काना शुरू कर दिया की जैसे वो राजा के साथ रहने वाले लठैत हो , और धमकी भी ऐसी  "की बेटे घर से उठा लिए जाओगे" ...भले ही उन्होंने आज तक  " राजा " को देखा भी ना हो . मतलब उन्होंने अपनी पूरी राजपुताना शूरवीरता यहाँ पर दिखा दी।

# तीसरी जमात में इस मुल्क के सबसे बड़े देशभक्त आरएसएस और हिन्दू ह्रदय सम्राट श्री नरेन्द्र मोदी के भक्त लोग आते है , जिन्होंने सीधे सीधे इस घटना को हिन्दू मुस्लिम से जोड़ मारा , "जिया"  की ह्त्या की वजह या इस अराजकता पर सवाल उठाने की बजाय वो ये सिध्ह करने में लग गए की , मरने वाला एक मुसलमान था , मुसलमान था ,मुसलमान था.उनके महान तर्क कुछ इस प्रकार थे.  "जब कुम्भ मेले में लोग मरे तो इतना बवाल क्यों नहीं हुआ "

"बाटला हाउस में शर्मा जी शहीद हुए तो उनके लिए इतना हल्ला क्यों नहीं हुआ "
"ये मुसलमान था इसलिए इसे इतना भाव क्यों दिया जा रहा है ,,,,बांग्लादेश में हिन्दुओ की ह्त्या पर लोग क्यों नहीं बोल रहे है ..""
और एक देशभक्त हिन्दू ने तो यहाँ तक कह डाला ..."ठीक हुआ यार एक और मुल्ला कम हुआ इस धरती से"

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खैर "जिया-उल-हक़ " शहीद हो चुके है , पुलिस में प्राथमिकी दर्ज हो चुकी है और सियासत में हर राजनितिक दल इस घटना से अपने अपने फायदे को देख कर टिपण्णी दे रहे है।
लेकिन जो बात दीगर की है वो ये है की पूंजीवादी लुटेरो , उनके एजेंट राजनितिक दलों और पूंजीवादी शोषण को सही ठहराने वाले बुद्धिजीवी कलम घसीटो को ये घटना एक बहुत बड़े प्रयोग के तौर पर दिखी .प्रयोग ये की आप भारतीय समाज में जनता के बीच कोई भी ऐसी घटना करवा दीजिये, और फिर जनता उस घटना में से धर्मं ,जात, राजनितिक रुझान, क्षेत्रवाद जैसे मुद्दे  खुद-ब़ा -खुद ढूंढ़ कर आपस में ही जूतम पैजार शुरू कर देगी . लगभग ऐसे ही जैसे की दो अफीम के नशे में धुत्त इंसान सड़क पर आपस में लड़ते है और नशा उतर जाने के बाद फिर एक एक अफीम की गोली खाकर अपनी लड़ाई दोबारा चालू कर देते है। और इस बीच एक अफीम बेचने वाला पहले उन्हें ये नशा करवाता है और उनकी लड़ाई के दौरान उनके घर में घुस कर लूट पाट करके कल्टी हो लेता है .
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गणेश जी को पिलाया दूध आज भी नालियों में बह रहा है और जिया उल हक़ अपनी शहादत के 5 दिन बाद भी अपने मुल्क की जनता का ये हाल देख कर दुखी है। और जनता हमेशा की तरह एकजुट होकर व्यवस्था से लड़ने की बजाय जात, पात धर्मं , राजनैतिक दल, क्षेत्रवाद के पल्लू से चिपकी आपस में लड़ रही है. ठीक इसी समय पूंजीपति और उनके चाकर राजनैतिक दल इस दुर्भाग्यपूर्ण घटना को एक प्रयोग मान कर जश्न मना रहे है ! वैसे ही जैसे 1995 में गणेश जी के दूध वाले एक्सपेरिमेंट की सफलता के बाद मनाया था .इस स्वतः निर्मित प्रयोग की घटनाए अभी भी मुकरर्र है और आने वाले दिनों में इसके नए नए आयाम देखने को मिलेंगे

 बहरहाल ..
जात, पात ,धरम, क्षेत्र , अंधभक्ति और किसी भी स्वार्थ से परे  दिन रात शोषण  में पिसती भारत की मेहनतकश जनता की ओर से अपने भाई अपने दोस्त "ज़िया -उल-हक़ " को अश्रु  पूर्ण श्रधांजली।

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सोमवार, 4 मार्च 2013

नक्सलवाद - समस्या और विश्लेषण

नोट - ये लेख सिर्फ एक समस्या को समझने का प्रयास मात्र है, सिर्फ समस्या का विश्लेषण है , इसे समझने के लिए आपका विवेक जरुरी है !
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पिछले दिनों  Facebook  !!
पोल खोल!! " बोल .. की लब आज़ाद है तेरे " ग्रुप में नक्सलवाद पर काफी कुछ डिस्कस हुआ, कई दोस्तों ने इसके बारे में नेट से जानकारिय छाप छाप कर यहाँ पर पेस्ट करी .और अपने अपने विचार रखे ! अमूमन होता यही है , हम सभी लोग किसी भी बात पर बहुत जल्द यकीन कर लेते है, खासकरके जब वो हमारे पक्ष में या हमरी विचारधारा के हित में की गयी हो .
फिलहाल बात यहाँ की हो रही है नक्सलवाद की , तो इसे समझने के लिए हमें पहले सतही बातो से उठकर कुछ गहराई से सोचना पड़ेगा की ये समस्या क्या है .
इस बात की जड़ छुपी है शब्द "स्वतन्त्रता " में . इस शब्द को अगर हम ध्यान से देखे तो ये दो शब्दों से मिल कर बना है। "स्व और तंत्र " यानी की स्वयं के द्वारा बनाया गया तंत्र या अंग्रेजी में कहे तो सेल्फ मेड सिस्टम . तो आज भारत में प्रमुखतः दो प्रकार के लोग बसते है , एक वो जो भारत को 1947 से एक स्वतंत्र मुल्क मानते है , और दुसरे वो लोग जो ये मानते है की 1947 की घटना एक "स्वतंत्रता "नहीं बल्कि सिर्फ राजनितिक शक्ति का हस्तांतरण था.
स्वतंत्रता शब्द की कसौटी पर अगर हम देखे तो हमारा भारत देश किसी भी द्रष्टि से स्वतंत्र नजर नहीं आता, यहाँ का बजट , यहाँ की सेना , पुलिस और साड़ी नौकरशाही सिर्फ और सिर्फ एक विशेष वर्ग के हितो के लिए काम करती है , ना की आम जनता के लिए,और सिर्फ कहने के लिए जनता को वोट देने का अधिकार, संगठन बनाने और भाषण देने का अधिकार दिया हुआ है जिसे डेमोक्रेसी के रूप में दिखाया जाता है, लेकिन ये भी सिर्फ तब तक ही प्रयोग में रहता है की जब तक आप इस सिस्टम के लिए खतरा नहीं बन जाते, जैसे ही आप इस व्यवस्था के खिलाफ उठ खड़े होते है या सवाल करना शुरू कर देते है तो आपको "सिस्टम के लिए खतरा और यहाँ तक की आतंकवादी या देशद्रोही भी घोषित किया जा सकता है।
कहीं ये लोग वोही तो नहीं जो इस सिस्टम के मुह्ह पर बोलते है की ये मुल्क स्वतंत्र नहीं बल्कि परतंत्र है ..............चलिए शायद लेख के अंत तक ये निष्कर्ष निकल ही जाए।।।देखते है।
जैसा की मैंने कहा की कुछ लोगो मानते है की हमारा भारत देश किसी भी द्रष्टि से स्वतंत्र नजर नहीं है , उनके हिसाब से यहाँ का बजट , यहाँ की सेना , पुलिस और सारी नौकरशाही सिर्फ और सिर्फ एक विशेष वर्ग के हितो के लिए काम करती है, तो आखिर ये कौन सा वर्ग है जिसके लिए साड़ी सेना , नौकरशाही , पोलिस और सत्तारूढ़ पार्टी और विपक्षी पार्टिया काम करती है , और क्यों करती है . और क्या कारण है की वो इस व्यवस्था को बनाए रखना चाहती है .
इन लोगो के हिसाब से 1947 में स्वतंत्रता नहीं बल्कि सिर्फ सत्ता का हस्तांतरण हुआ था, जिसमे अँगरेज़ साम्राज्यवादी अपनी स्टेट भारत को दो टुकडो में बाँट कर अपने लिए काम करने वाले को सौप कर चले गए थे, लेकिन आर्थिक , राजीतिक और उत्पादन व्यवस्था में कोई भी परिवर्तन नहीं हुआ था। अंग्रेजो का यहाँ आना और यहाँ पर अपना राज कायम करने का प्रथम उद्देश्य हमें गुलाम बनाना नहीं बल्कि यहाँ के संसाधनों और सस्ते श्रम की लूट था, जिसके लिया यहाँ की जनता अगर आराम से तैयार हो जाती तो बल प्रयोग की कोई जरुरत नहीं थी और अगर नहीं होती तो वो लोग डंडे से शाशन करने को भी तैयार और अभ्यस्त थे, भारत में उन्हे जब जिसकी जरुरत हुई उन्होने वो तरीका इस्तेमाल किया
तो उस समय भारत में इस व्यवस्था का विरोध करने के लिए दोनों प्रकार के संघर्ष चल रहे थे, एक तरफ वो लोग थे जो इस देश को किसी भी दुसरे के बनाए तंत्र (सिस्टम) से मुक्त करके इसे सच्ची स्वतंत्रता दिलाना चाहते थे, और एक तरफ वो लोग थे जो बिना किसी आर्थिक और उत्पादन व्यवस्था के मालिको को बदले बिना की सिर्फ सत्ता पर कब्जा चाहते थे अंग्रेजो के साथ सहयोग करते हुए . और अंत में 1947 में क्या हुआ ये सबको पता है।
खैर अंग्रेज तो चले गए परन्तु उनका बनाया सिस्टम (उत्पादन व्यवस्था और राजनितिक तंत्र) ज्यो का त्यों बरकरार रहा।और हमारे राजनितिक दल उसके प्रति वफादारी से काम करते रहे 15 अगस्त का साल दर साल जश्न मनाते हुए .
लेकिन इन सबके वावजूद वो क्रांतिकारी वर्ग अब भी ज़िंदा था जो की संघर्ष चलाये रखना चाहता था और सच्ची स्वंत्रता के सपने देखा करता था। इस प्रकार की समझ रखने वाले लोग सबसे ज्यादा भारत की कम्युनिस्ट पार्टी में थे , जिन्होंने अपने निचले कार्यकर्ताओं को ये समझाया की " कोई बात नहीं अब हम भारत में बने हुए इसी संसदीय रस्ते से चलकर सत्ता में पहुच कर अपना स्वयम का तंत्र बनायेंगे और जनता को सच्ची आजादी का सुख देंगे, लेकिन 60 के दशक के अंत तक पार्टी के काम काज और प्रक्टिस को देख कर कई कार्यकर्ताओं के मन में ये शक पैदा होने लगा की ये पार्टी वोही सारे हथकंडे अपना रही है जो की बाकी सभी पार्टिया अपना रही थी जैसे की पूंजीपतियों से पैसे लेकर चुनाव लड़ना और उनके हितो के लिए काम करना , आदि आदि।
इस प्रक्टिस के विरुद्ध कुछ लोगो ने आवाज उठायी और पार्टी से सवाल किया की इस प्रकार आप पूंजीपतियों और शोषणकारी ताकतों के बनाए संसदीय मार्ग से चल कर कैसे व्यवस्था को स्वतंत्र बनायेंगे ?? ये तो फिर एक नयी गुलामी की तैयारी हो रही है जिसमे पूंजीपति वर्ग को ही फायदा होगा ?? आम जनता की स्वतंत्रता के लिए जो जमीनी काम होना चाहिए वो तो आज तक आपने शुरू ही नहीं किया।।??? इस प्रकार के सवालों से भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी घबरा गयी और उन कार्यकर्ताओं का बहिस्कार शुरू कर दिया।
तब उन्ही बहीस्कृत कार्यकर्ताओं ने पार्टी से नाता तोड़ कर पश्चिमी बंगाल से अपना अलग आन्दोलन शुरू किया। इस प्रकार भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से अलग हुए कार्यकर्ताओ "चारू मजूमदार" "जंगल संथाल" और कनु सान्याल के नेतृत्व में बंगाल के तीन गांवो "खाडीबाडी , फांसीदेवा ओर नक्सलबाड़ी नाम के गांव से आन्दोलन की शुरुआत हुई ...जो की आगे चलकर "नक्सलवादी आन्दोलन" कहलाया और इसके कार्यकर्ता "नक्सली" कहलाने लगे।चूंकि ये आन्दोलन उत्पादन व्यवस्था को किसी भी निजी फायदे से अलग रखने में यकीन रखता था और राज्य (नौकरशाही, आर्मी ,पोलिस, और न्यायलय) को सिर्फ इसके रक्षक के रूप में स्थापित करना चाहता था, लेकिन बहुत छोटे स्तर और स्टेट के द्वारा लगाये गये तमाम दवाबो और प्रतिबन्धो के चालते पहले चरण मे भूमि सुधार आन्दोलन चलाया गया जिसके तहत बड़े बड़े जमींदारों से उनकी जमीन लेकर सामूहिक खेती और उत्पादन को बढ़ावा दिया गया, जाहिर है की इसमें जमींदार आसानी से राजी नहीं हुए और राज्य द्वारा कानूनी और गैरकानूनी तरीको से नक्सलियों के खिलाफ हिंसात्मक प्रतिरोध करना शुरू किया ,जिसका नक्सालियो को पहले से ही अंदाजा था और उन्होंने भी इसके लिए अपनी मिलिशिया तैयार करी हुई थी, जिसका उन्होंने जमींदारों की ही भाषा में जवाब दिया । मार्क्स और एंगेल्स के द्वारा लिखित कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो के सिद्धांतो के आधार पर उतपादन के साधनों का राष्ट्रिय करण
और निजी मुनाफे के सिस्टम को ख़तम करने जैसे पवित्र उद्देश्यों को लेकर जब ये आन्दोलन आगे बढ़ा तो सारे देश के युवा वर्ग ने इसे हाथो हाथ लिया और तमाम विद्यार्थी वर्ग भी इसमें कूद पडा,कहा जाता है की उस समय कलकत्ता और दिल्ली और देश के कई बड़े शहरो के सभी रेलवे स्टेशनों पर पुलिस बल लगा दिया गया था जो हर आदमी से खासकरके अगर वो युवा है तो पूरी पड़ताल करने के बाद ही बंगाल जाने वाली गाडियों में जाने की इजाजत देता था। परंतू ये आन्दोलन बजाये कम होने के और विकराल रूप धारण करता गया , उस समय इस आन्दोलन को करीब से देखने वालो से बात करने पर पता चला की कलकत्ता के कई मेडिकल कॉलेज पूरे के पूरे ही खाली हो गए थे जिसके सारे स्टूडेंटस अपनी पढ़ाई बीच में छोड़कर आन्दोलन में शामिल हो गए और नक्सली बन गए। उस समय बंगाल की सरकार और जब पूरे राज्य की पुलिस आन्दोलन को रोकने में नाकामयाब रही तब केंद्र में सत्तारूढ़ इंदिरा गाँधी की सरकार से मदद मांगी गयी , और फिर शुरू हुआ आन्दोलन को कुचलने का एक विभत्स खेल। चूंकि ये वो समय था जब देश की बहुसंख्यक जनता दरिद्रता के दलदल में फंसी हुई थी और राजनैतिक अस्थिरता की वजह से देश में इमरजेंसी के हालात बनने शुरू हो गए थे, जिस वजह से आन्दोलन को कुचलने में सारे नियम कानून को ताक पर रख दिया गया और बंगाल सरकार और केंद्र ने मिल कर दुर्दांत हिंसा का सहारा लेकर आन्दोलन को कुचलना शुरू किया . ये दमन कितना भयंकर था इस बात का अंदाजा आप लगा सकते है की बंगाल के कई गाँवों में उस समय किसी भी युवा वर्ग को जिसकी उम्र 14-15 साल से ज्यादा हो , ज़िंदा नहीं छोड़ा गया था।
इस प्रकार आन्दोलन के एक चरण में 1972 में कामरेड चारू मजूमदार को पकड़ लिया गया , और मात्र 12 दिन में जेल में उनकी म्रत्यु हो गयी (असल में उनकी ह्त्या हुई थी, वो दमे से पीड़ित थे और बिमारी की हालत में उनके मुहह से ओक्सीजन मास्क हटा दिया था ). इस घटना ने आन्दोलन को और भड़का दिया जिससे की वो बंगाल के आलावा और राज्यों में भी फ़ैल गया।
फिलहाल ज्यादा डीटेल में ना जाते हुए बस इतना समझ लीजिये की अंततः आन्दोलन को हिंसात्मक दमन के द्वारा बहुत कमजोर कर दिया गया और नक्सलियो की गतिविधिया बहुत हद तक रोक दी गयी या फिर एक क्षेत्र तक सिमित रह गयी। उसके बाद कई सालो तक खुद नक्सली पार्टी (CPIML) सिद्धांतो और आन्दोलन चलाने के तरीको के अंतरविरोधो के चलते आपसी अंतर्द्वंद में उलझी रही , जिसकी परिणिति ये रही की नक्सली पार्टी खुद कई सारे ग्रुप्स में बंट गयी और अपने अपने प्रभाव क्षेत्र में स्वतंत्र रूप से सामानांतर रूप से अपनी अघोषित शाशन व्यवस्था चलाने लगी।जिसमे 1975 से लेकर 1980तक कई गुट बने और बिगड़े और कई ग्रुप मजबूत भी हुए।अंततः 90 के दशक तक आते आते दो प्रमुख नक्सली पार्टिया सबसे मजबूत अवस्था में अपने को टिका के रह पायी, यें थी माओईस्ट कम्युनिस्ट सेंटर (एमसीसी) और भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) या पीपल्स वार ग्रुप (PWG) . MCC मुख्यतः बिहार और बंगाल में मजबूत थी और PWG आन्ध्र प्रदेश में आदिवासी के हको के लिए लड़ते हुए स्टेट से भी संघर्ष रत थी। लेकिन दोनों पार्टियों के जनता के बीच में काम करने और सिद्धांतो को लेकर अन्तर्विरोध था। और सन 2004 में दोनों पार्टी के नेताओं ने सैधांतिक मतभेदों को दूर करते हुए दोनों पार्टी के विलय के बाद नयी पार्टी की घोषणा करी। जिसका नाम रखा गया " भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी )" या CPI (Mao).
ये पार्टी आज भी भारत को देशी-विदेशी पूँजी का गुलाम मानती है और ये मानती है की जब तक उत्पादन के साधन और उसके वितरण का अधिकार पूंजीपतियों से छीन कर जनता को नहीं दिया जायेगा तब तक भारत की जनता गुलामी से मुक्त नहीं हो सकती। ये पार्टी मानती है की आज के भारत में सभी राजनितिक पार्टिया सिर्फ पूंजीपतियों के दलालों या एजेंटो के रूप में काम करती है , जो की निजी रूप से उनसे पैसा लेती है और सत्ता में आने के बाद कानूनी या गैरकानूनी रूप से भारत के संसाधनों को पूंजीपतियों को कौड़ियो के भाव में बेच देती है। उसके बाद पूंजीपति अपने मुनाफे के लिए जनता के सस्ते श्रम का फायदा उठा आकर अपना मुनाफा कमाता है और अपनी मर्जी के हिसाब से उत्पादन को घटता या बढाता रहता है , इस प्रक्रिया में बहुसंख्यक जनता को घोर गरीबी और बेरोजगारी का सामना करना पड़ता है , जिससे पूंजीपति को कोई सरोकार नहीं होता। और जब जनता इसी से त्रस्त आकर व्यवस्था के खिलाफ उठ कड़ी होती है तो येही पूंजीपति अपनी एजेंट सत्तारूढ़ पार्टी से जनता का दमन करवाता है , सरकार भी पहले तो जनता की ताकत को जाती, धरम और क्षेत्र के नाम पर तोड़ने की कोशिश करती है , लेकिन जब इससे बात नहीं बनती तो वो हिंसात्मक दमन पर उतर आती है .
इस प्रकार के आन्दोलन आज भारत के लगभग हर हिस्से में चलते रहते है लेकिन येही आन्दोलन भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी ) अपनी खुद की हथियार बंध सेना के साथ चलाती है जिसमे बहुसंख्यक रूप से आदिवासी और गरीब मजदूर लोग है। ये आन्दोलन अब तक भारत के 200 से ज्यादा जिलो में फ़ैल चूका है और इसमें लगभग 20 हजार से ज्यादा लड़ाके सशत्र रूप से संघर्षरत है (जो की भारत की थल सेना का लगभग 15-20% के बराबर है ). BBC की एक रिपोर्ट के अनुसार अगर नक्सली इसी संख्या में बढ़ते रहे तो 2050 तक ये लोग भारतीय स्टेट पर रूप से कब्जा कर सकते है, और खुद नक्सलियों के दिवंगत शीर्ष नेता किशन जी का दावा था की वो लोग 2050 से कहीं पहले ये काम को अंजाम दे सकते है .जाहिर है जब किसी ग्रुप के इरादे इतने पक्के और खरनाक हो तो सरकार उनसे एक साथ कई मोर्चो पर लड़ाई करती है , या ये कहे की माओवादी कोई इधर उधर के बहाने ना बनाते हुए सीधे सीधे इस तंत्र को बल पूर्वक उखाड़ फेंकने की बात करते है तो सरकार उन्हें रोकने कमजोर करने और नष्ट करने के लिए हर हथकंडे अपनाती है .
खैर सब अपने अपने दावे करते है - सरकार कहती है की ये लोग बेकसूरों को मारते है , पब्लिक प्रोपर्टी को नुक्सान पहुचाते है , और नक्सली कहते है की हम जनता के लिए लड़ने वाले खुद जनता को क्यों मरेंगे, क्योंकि हमारे लड़ाके और सैनिक तो खुद ही जनता है तो उन्हें मार कर हम कैसे उन्हें अपने साथ ला सकते है , इसलिए ये सरकार के हमें बदनाम करने का षड्यंत्र है। इन्हें रोकने के लिए सरकार कभी रणवीर सेना, सलवा जुदम जैसे राज्य पोषित और अपराधियों के सशत्र संगठन बनवाती है, और कभी खुद किसी फर्जी और तथाकथित नक्सली ग्रुप से जबरन वसूली, बलात्कार और बेकसूरों को मरवाकर नक्सलवादियो को बदनाम करने की कोशिश करती है।
निष्कर्ष के तौर पर ये कहा जा सकता है की ये सबके अपने अपने विवेक पर निर्भर करता है की वो नक्सलियों की प्रक्टिस को सही मानता है या गलत , सरकार को सही मानता है या गलत।
लेकिन आज भी ये सवाल हम सबके सामने मुह बांये खडा है की " क्यों आज तक की सरकारे आदिवासियों का विकास करके उन्हें नक्सलियों की जमात से बाहर नहीं खींच पायी, आखिर क्यों आज भी भारत के हर राज्य के कई क्षेत्रो में हजारो लोग सुबह सुबह जंगल जाते है और लकडिया बीन कर उन्हें बेच कर अपना घर बार चलाते है ,इन्हें आज भी 65 साल बाद आजादी का मतलब नहीं पता चल पाया . और 40 साल में हजारो नक्सलियों को मारने के बावजूद भी भारत में बनने वाली सरकारे आज तक नक्सली विचारधारा को गलत साबित क्यों नहीं कर पायी" जिसका सबूत ये है की आज भी नक्सली दिन-ब -दिन सत्ता और व्यवस्था के खिलाफ और मजबूत होते जा रहे है।

गुरुवार, 28 फ़रवरी 2013

नास्तिक वो बला है..





















नास्तिक वो बला है जो चिल्लाता है की मैं नास्तिक हूँ . क्योंकि वो सच्चे अर्थो में नास्तिक है।  
वो कर्म करता है , और फल की इच्छा में कर्म करता है,  क्योंकि वो जानता है की उसके  " श्रम " में वो ताकत है जो उसे परिणाम देगी , वो इतिहास से प्रेरणा लेता है , वो विज्ञान पर विश्वास करता है , वो सवाल करने की हिम्मत रखता है ,वो गलत बात के लिए अपने शिक्षको और अपने बॉस से भी तर्क कर लेता है , वो समाज के मनोविज्ञान को समझता है , वो लोगो के मनोविज्ञान को समझता है , तभी वो अपने विरोधियो से भी प्यार करता है ,अपनी गलती मानने की हिम्मत रखता है, दूसरो की गलती को गलत सिद्ध करने की तार्किक क्षमता रखता है . वो अपने शरीर को समझता है , वो जनता है की शरीर की जैव रासायनिक क्रिया ख़तम होने पर वो मर जाएगा, वो किसी पुनर्जनम को नहीं मानता ,उसे पता होता है की उसे सिर्फ एक जीवन मिला है जीने के लिए . उसके मरने के बाद कुछ नहीं होगा उसके लिए .वो स्वर्ग और नरक इसी दुनिया में देखता है , वो धर्म के सिद्धांतो को अपने तर्कों से ठोकरों पर उडाता है , वो धरम ग्रंथो को मक्कार, हरामखोरो, सत्ता के दलालों ,चाटुकारों, जनता को ठगने ,शोषण करने वालो द्वारा रचित झूठ के पुलिंदे भर मानता है !  धार्मिक लोग गलत काम करते है और फिर भगवान् के सामने चढ़ावे और यात्राओं के जरिये उनकी माफ़ी मांगते है . नास्तिक को ये सुविधाए प्राप्त नहीं है , वो जानता है की उसके गलत कामो को कोई क्षमा करने वाला नहीं है , इसलिए वो गलत काम नहीं करता, और गलति करता भी है तो उसे सुधारने का जतन करता है। वो अपनी गलतिया मानने की हिम्मत रखता है वो अपने छोटो से भी माफ़ी माँगता है , और वो अच्छा ,अच्छा और अच्छा बनता चला जाता है। वो दिमागी रूप से जाग्रत होता है वो अगर 20 साल तक किसी को तहे दिल से माने ,और अगर वो गलत काम कर दे तो, वो उसका विरोध करने की भी ताकत रखता है !वो जानता है की वो अपने माता पिता  से पैदा है और उसकी संताने उससे पैदा हुई है वो मानव विकास के क्रम  को समझता है . इसलिए वो सबसे मोहब्बत करता है . वो जीने का भरपूर मजा लेता है , वो जानता है की दुनिया में हर चीज मानव ने ही बनायी है , वो जानता है की ये दुनिया अपने आप बनी है , वो जानता है की पूरी श्रष्टि , ब्रह्माण्ड और दुनिया अपने आप को चलाने में खुद सक्षम है उसे पता होता है की जिन सवालों का जवाब उसके पास नहीं है उन सवालों का जवाब भविष्य की आने वाली नसले खोज लेंगी . वो अनसुलझे सवालों का जवाब भगवान् की सत्ता में नहीं खोजता। वो भगवान् की सत्ता को खारिज करता है। वो चिल्लाता है की अगर दम है तो भगवान् मेरा कुछ बिगाड़ के दिखाए .वो अपने दुखो और परेशानियों के कारण खुद खोज कर उन्हें हल करता है . वो परिवर्तन से नहीं घबराता , वो आँख मूँद कर किसी सिद्धांत पर यकीन नहीं करता , वो उसका अध्यन करके उसको परखता है .वो  अपने आपको असीम संभावनाओं से भरा मानता है वो लिखने की कोशिश करता है , वो कविता कहने की कोशिश करता है. वो नाचता है वो गाता है ! वो मानव समाज की असीम शक्ति और उत्पादन क्षमता को जानता है , उसे विरोधी शक्तियों की समझ होती है, वो इससे निकलने के उपाय जानता है , इसलिए वो हर शोषण कारी शक्ति के खिलाफ बगावत करता है , अपनी क्षमता के हिसाब से वो सामजिक बदलाव के लिए प्रयास करता है , वो पढता है , समझता है फिर सोचता है, वो अंधभक्ति नहीं करता। वो जानता है की ये दुनिया उसके लिए है , उसके माँ बाप और उसके बच्चो  के लिए है उसके दोस्तों के लिए है हर इंसान के लिये है ,हर मजदूर के लिए है ,वो किसी जमीन के टुकड़े को देश नहीं मानता, वो जनता को देश मानता है ,वो अपने देश से प्यार करता है वो दुसरे देश से प्यार करता है वो हर देश के लोगो को अपना भाई मानता है वो कोई रंग , नस्ल,जाती, धर्म ,सम्प्रदाय को नहीं मानता ,वो सिर्फ इंसान को मानता है .वो जानता है की उसकी म्रत्यु कभी भी हो सकती है , वो अपने लिए जीने के तरीके खोजता है. वो किसी मोक्ष और निर्वाण को नहीं मानता , वो अच्छे इंसान के रूप में ढलने को ही मोक्ष मानता है वो शोषण के खिलाफ जनता के संघर्ष को ही जीवन यात्रा मानता है .वो ज्योतिष, अरदास, नमाज,पूजा, पाठ, छुआछुत, कर्मकांड, धार्मिक गुरु , पंडो , पादरियों , मुल्लो, पीर, फ़कीर ,मजार मंदिर,मस्जिद ,गिरिजा,   और उनके चमत्कारों पर हंसता है ,वो इनसे चंगुल से बचने के लिए लोगो को समझाता है ..वो अपनी नास्तिकता पर गर्व करता है ,
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(विनोद हौंसलेवाला "बाग़ी " को समर्पित )

मंगलवार, 26 फ़रवरी 2013

"मार्क्सवाद" और भारत में जाती व्यवस्था

फेसबुक पर हमारे एक मित्र "प्रचंड नाग जी" ने अपने कुछ सवालात रखे,  विषय था की ""मार्क्सवाद के अनुसार भारत में जाती व्यवस्था से उत्पन्न शोषण के लिए क्या समाधान हो सकता है"
मैंने उनके सवालों का अपने अनुसार जवाब देने की कोशिश करी और ये सम्पूर्ण बहस एक लेख के रूप में संकलित कर दिया ,जिससे अन्य  साथियों की प्रतिक्रया भी जान सकू।





प्रचंड नाग जी  --
भारत में ब्राह्मण पूंजीपति नहीं थे लेकिन शोषण था व अब भी है । शूद्र-अतिशूद्र को अपने मनपसंद व्यवसाय करने से भी रोका जाता है । इस व्यवस्था को उखाड़ने के बारे में मार्क्स क्या कहते हैं

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  • उत्तर -
    आप ये जानते ही होंगे की किसी भी व्यवस्था में शोषण करने के लिए शाशक वर्ग सिर्फ बल प्रयोग से ही व्यवस्था को टिकाये नहीं रख सकता,,उसके लिए जनता को जात धरम और क्षेत्र के नाम से बाटना और समाज में जनता के बीच वर्गों का होना जरुरी होता है, और ये वर्ग आर्थिक , जात और धरम के नाम पर पैदा किये जाते है।
    सबसे पहले तो ये जानिए की भारत में पूँजी वाद कभी सही से डेवलप हो ही नहीं पाया ! आज भारतीय समाज एक अर्ध सामंती अर्ध पूंजीवादी देश है, मतलब की इसके पारंपरिक ढांचा तो सामन्ती है और आधौगिक विकास विदेशी पूँजी के माध्यम से हुआ है , लेकिन पिछले कुछ सालो में अब खुद देशी पूंजीपति भी बहुत मजबूत हुए है .
    ब्राह्मणों द्वारा या तथाकथित उन्ची जातियों द्वारा निचले तबके के लोगो का शोषण एक सामंती लक्षण है,,,मतलब की राजे महाराजे और जमींदारों वाला सिस्टम , कुछ यूँ समझिये की गरीबो या तथा कथित निचली जातियों के शोषण का चक्र हजारो साल पहले हुआ था , जिसमे उस समय भी सत्ता पर काबिज लोग जनता का शोषण करने के लिए बल प्रयोग के साथ साथ उन्हें सांस्क्रतिक रूप से भी दिमागी रूप से गुलाम बना कर रखते थे,,

  • 1- जैसे की 84 हजार योनियो वाला सिद्धांत
    2- कर्म करो फल की इच्छा मत करो वाला सिद्धांत
    3- राजा पिता सामान है, प्रजा को राजा की सेवा करनी चाहिए आदि आदि ..

  • जनता में वर्ण व्यवस्था को धर्मग्रंथो के माध्यम से जायज ठहराया गया , और फिर पूर्व्जनाम की थिओरि जनता को समझाई जाती थी, जिससे की लोग दिमागी रूप से गुलाम हो जाते थे और चुपचाप शोषण का शिकार होते रहते थे,की कंही अगले जनम में पशु योनि में ना चले जाये ,और इन सब बातो को जनता में पहुचाने और थोपने का जिम्मा ब्राह्मण बिरादरी को दिया गया ! जिसके तहत  तमाम
    धर्मग्रन्थ लिखे गए जिनका मुख्य सन्देश ये था की , आपके सुख दुःख को नियंत्रण करने वाला भगवान् है और आपका काम है की चुप चाप राजा (शाशक ) वर्ग की सेवा करो .अब अगर कोई शोषित वर्ग या शुद्र ज्ञान प्राप्त करने की कोशिश करता था तो उसका बलात हनन कर दिया जाता था,
    रामायण में शम्बूक और महाभारत में एकलव्य इसी विद्रोह को दबाने के उद्दरहण के रूप में समझे जा सकते है .लेकिन जो लोग शाशक वर्ग के लिए खतरा नहीं होते थे उन्हें अपने ग्रंथो में प्रशंषित किया जाता था. शबरी और केवट का उद्दरहण आपके सामने है जिसके द्वारा ये संदेश देने की कोशिश की गयी की राजा के प्रति भक्ति भाव रखो और ज्ञान प्राप्त करने या विद्रोह करने की मत सोचो, क्योंकि उन्ही की सेवा करके आप 84 हजार योनियो के चक्कर से बच सकते हो आदि आदि .
    तो ब्राह्मण जाती और तमाम और साधन इस व्यवस्था को टिकाये रखने के टूल के रूप में काम करते थे . जो की बाद में और विभत्स होता गया,,,परन्तु व्यवस्था के मूल में भी वोही भाव था,. की उत्पादन के साधनों (व्यापार, खेती, उद्योग धंधो ) पर शशक वर्ग का कब्जा रहे और जनता का शोषण चलता रहे और जनता में सभी शामिल थे शूद्र , माध्यम वर्ग और आर्थिक रूप से कमजोर हर जाती के लोग .और इनके बीच भी वोही सड़े हुए सामन्ती संस्कार और अंतर ज़िंदा रहे (जात पात आदि ) ,क्योंकि व्यवस्था में सबसे ऊपर सता पक्ष के लोगो का भाव शोषण करने का था,,ना की जनता की सेवा का,,इसी लिए ये अंतर बनाए रखे गए शोषण को जारी रखने के लिए .
    सार के रूप में बस ये जानिये की शोषक वर्ग का एकमात्र लक्ष्य अपना मुनाफा बढ़ाना और शोषण करना होता है ,
  • प्रचंड नाग जी  --  निजी मुनाफे से रहित समाज कब परिपक्व हो जाता है ? कितना समय लगता है ? कोई उदाहरण ?***********************************************
    उत्तर -
    ये इस बात पर निर्भर करता है की मजदूरों की पार्टी कितनी मजबूत है .मतलब अगर उसका सत्ता ( न्यायालय + नौकर शाही + फ़ौज पुलिस ) पर पूर्ण नियंत्रण होना चाहिए और ये तब हो सकता है जब उत्पादन के साधनों ( उद्योग,खेती, खानों , बैंक , सूचना प्रसारण और अन्य प्रमुख संस्थान ) पर जनता का कब्जा होना चाहिए .
    जब स्टेट मशीनरी और सत्ता ये सुनिश्चित कर लेती है तब समाज का आर्थिक और सांस्कृतिक रूप से एक सकारात्मक विकास होता है और सारे सड़े हुए सामन्ती बंधन टूट जाते है और वर्गों का आर्थिक और सांस्कृतिक अंतर मिट जाता है .
    इसमें समय के बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता इसमें 50-100 या 200 साल भी लग सकते है ,क्योंकि जो पार्टी निजी मुनाफे पर आधारित व्यवस्था को बर्बाद करेगी तो पूंजीपति वर्ग उसे दोबारा वापस पाने के लिए हर कदम उठाएगा ,और ये संघर्ष निश्चित रूप से हिंसक होगा।यहाँ पर मजदूरो की मशीनरी (फ़ौज +पुलिस) पूंजीपति वर्ग का विनाश सुनिश्चित करेगी ,मतलब मजदूरो की तानाशाही की जरुरत पड़ेगी,
    उद्दरहण के रूप में आप रूस और चीन की क्रांति के बारे में पढ़ सकते है ,,जिसमे उन्होंने 50-100 सालो तक जनयुद्ध चला कर मजदूरो की सत्ता की स्थापना करी और उतपादन के साधनों का राष्ट्रीयकरन कर दिया .जिससे समाज में जाट पात और धरम के अंतर खुद बा खुद मिटने शुरू हो गए थे .

    (रूस और चीन के टूटने की वजह एक अलग विषय है,,,,,आप चाह्हे तो इस पर अलग से डिस्कस कर सकते है )
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  • प्रचंड नाग जी  --(1) लोगों की गरीबी नष्ट होने से क्या कोई जाति-धर्म त्याग देता है ?
    (2) मजदूरों के शोषण को उत्पादन के साधनों पर कब्जा करके खत्म किया जा सकता है । जाति के आधार शोषण को उत्पादन के साधनों पर कब्जा करके कैसे नष्ट किया जा सकता है ?
    (3) केन्सर के बेक्टीरिया को खत्म करने वाली दवाई से क्या टीबी का बेक्टीरिया खत्म किया जा सकता है ?
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    उत्तर -
    ये आपके सवाल सामन्ती संस्कारों को ध्यान में रखते हुए किये गए है .आप उस समाज की कल्पना करिए की जहा पर एक सीवर लाइन साफ़ करने वाले मजदूर और फक्ट्री में एक मनेजर की आमदनी में कोई ख़ास फरक नहीं होगा,,,दोनों को बुढापे में पेन्सन मिलेगी, बच्चो की सिक्षा और उनके भविष्य के रोजगार की जिम्मेदारी सरकार की होगी, सभी स्कूल सामान होंगे, सभी अस्पताल सामान होंगे,और इलाज लगभग मुफ्त होगा।
    ऐसे समाज में किसकी क्या जाती है किसी को कोई मतलब नहीं होगा और अगर कोई तथाकथित रूप से भंगी जाती का है तो भी वो किसी की कोई परवाह अहि करेगा,,,,क्योंकि उसके बच्चे भी उसी स्कूल में पढेंगे जहा एक ब्राह्मण के, वो भी वंही  इलाज करवाएगा जहा एक तथाकथित सवर्ण  जाती का इंसान इलाज करवायेगा।
    और जाती एक व्यक्तिगत मसला होगा, लेकिन फिर भी अगर कोई जात के आधार पर भेद करने को कोशिश करेगा तो उसके लिए कानून होंगे .इसे कोई यूटोपियन सिद्धांत मत समझिएगा ये एक प्रयोग हो चुकी व्यवस्था है . और एक दो नहीं पूरे 80 साल तक ये चला था .
    ( ये फिर क्यों टूट गया ---ये अलग बहस का विषय है ,,,आप चाहे तो इस विषय पर भी बात हो सकती है )

  • प्रचंड नाग जी  --  केन्सर के बेक्टीरिया को खत्म करने वाली दवाई से क्या टीबी का बेक्टीरिया खत्म किया जा सकता है ?
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  • उत्तर -मार्क्सवाद ने अनुसार यहाँ पर कोशिश ये होनी चाहिए  कीऐसा माहौल हो की जिसमे किसी भी प्रकार के बैक्टीरिया पैदा ही नहीं होगा , क्योंकि सभी बीमारियों के बैक्टीरिया गन्दगी में पैदा होते है . और वो गन्दगी है पूंजीवादी सिस्टम जो की सिर्फ मुनाफ़ा कमाने और शोषण पर आधारित होता है  जब ये गन्दगी ख़तम हो जायेगी तो बैक्टीरिया भी अपने आप ख़तम हो जायेंगे ,,और बैक्टीरिया पैदा करने वालो को भी क्रांतिकारी ताकतों के द्वारा ख़तम कर दिया जाएगा
  • प्रचंड नाग जी  --  मजदूरों की सत्ता कैसे चुनी जाएगी ? मजदूरों की पार्टी कौन सी होगी यह कौन निर्धारित करेगा ? वे कौन होंगे जो पूंजीवादी व्यवस्था से बचाएंगे ?************************************************
  • उत्तर -
    आपके इस सवाल का जवाब शायद इस लेख में मिल जाए . पहले स्पष्ट करना चाहूँगा की मैं नक्सलियों की हिंसा का समर्थन नहीं करता लेकिन ये लेख उनके सिद्धांत को समझने की कोशिश मात्र है
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