मंगलवार, 14 मई 2013

फिल्मे समाज का ..... धन लूटने का माध्यम होती है !


नशा शराब में होता तो नाचती बोतल ......पाकिस्तानी फ़नकार अजीज मियाँ के लिखे इस कलाम के मुखड़े को चोरी करके जब अमिताभ बच्चन की शराबी फिल्म में डाला गया उसके ऊपर अमिताभ के संवाद और उच्च वर्ग पूंजीपति की विक्षिप्त अवस्था को दिखाया तो शराब पीने वाली जमात को जैसे संजीवनी बूटी और अपने पीने को जायज ठहराने का वो कालजयी बहाना मिल गया , जो आज भी बदस्तूर जारी है और जिसे आज अनुराग कश्यप जैसे घुन्ने और तथाकथित भविष्य के फिल्मकार देव डी जैसी फिल्मे बना कर भुना रहे है.
वो जमाना गया जब फिल्मे समाज का दर्पण हुआ करती थी , आज फिल्मे समाज में रह रहे लोगो की मानसिकता (कमजोरी)  को समझ कर उनसे पैसा वसूलने का माध्यम बन चुकी है . आजकल के नौजवान आम बोलचाल की भाषा में औरतो के यौनांगो को लक्षित करके जो भाषा युस करते है , कई साल पहले मेरा एक लम्पट दोस्त कहा करता था की यार एक ऐसी फिलम बनानी चाहिए जो की हमारी भाषा (आम बोलचाल और गालियाँ ) में बने . और उनकी ये मुराद राम गोपाल वर्मा के चेले ने गंग्स और वास्सेय्पुर बनाकर कर पूरी कर डाली , एक नहीं दो दो डोज एकसाथ देकर .
आज के पूंजीवादी जमात के फिल्मकार समाज में ये मुद्दा खोजते है की लोगो को कुंठा निकालने में सबसे ज्यादा मजा किस बात में आता है , और फिर उसे ध्यान में रखकर दो महीने में पूरी फिल्म बना कर पूंजीवादी संस्कृति से प्रभावित लोगो की कुंठित मानसिकता को कुरेद कर उनसे पैसो उगाही शुरू कर देते है . "रागिनी का एम् एम् एस " "डेल्ही बेल्ही " और "गंग्स ऑफ़ वासेपुर " इस महान पूंजीवादी लूटपाट फिल्म संस्कृति की शुरुआत भर है . भौतिकवादी संस्कृति के प्रभाव और इस छदम फ़िल्मी दुनिया की चकाचौंध में फसी एक लड़की " मारिया सुसाईराज " और उसके प्रेमी द्वारा करी गयी वीभत्स घटना को एक फिल्मकार ने हाथो हाथ लिया और अपनी फिल्मांकन कला से घटना का सजीव और सचलचित्र  वर्णन करके एकतरफा प्यार और प्यार में धोखा खाए नौजवानों को इसी राह पर चलने की खामोश नसीहत दे डाली , दर्शको को लगने लगा की ये तो हर सोसाईंटी में होता है , मतलब ये एब्नार्मल नहीं है .जिन्हें ये लगता है की मैं नकारात्मक सोच के साथ लिख रहा हूँ वो एक साल में हुए ऐसे अपराधो के ग्राफ पर एक बार नजर डाल लें  .
इसके साथ साथ इस मुनाफेदारी व्यवस्था के तथाकथित विद्वान् ऐसे चित्रों में कला को खोज कर अखबारों के पन्ने रंगते भी दिखाई देते है. जैसे की एक भाड़े के लेखक लिखते है गंग्स ऑफ़ वासेपुर में "फैजल ने पूरी फिल्म में एक कुंठित युवा की भूमिका निभायी है जिसे ये पता होता है की उसकी माँ का किसी के साथ अवैध सम्बन्ध है "......वाह क्या परिद्रश्य चुना गया है कला और भावनाओं के प्रदर्शन के लिए . इस पैसा उगाही के साथ साथ ये संस्कृति सामंतवादी मूल्यों को फिल्मो के माध्यम से समाज में पूरी तरह बना कर रखती है . कला और यथार्थ के नाम पर पैसा वसूली का ये धंधा कुछ कलम घसीटो द्वारा जायज भी ठहराया जाता है . जहां मुंशी प्रेमचंद के साहित्य या महबूब खान के चलचित्रों में उनके चरित्र सामंती बन्धनों को तोड़ने की कोशिश करते दिखाई देते है वही आज "दिल्ली-6"  फिल्म में लडको को मर्द बनाने वाली के लिए एक जमादारनी को ही चुना जाता है .
बड़ी सफाई से अपनी (झूठी) सच्चाई को सामने रखने के लिए अनुराग कश्यप ने वासेपुर में एक संवाद भी डाल  दिया था , जब रामाधीर सिंह कहता है " इस देश में जब तक सलीमा बनता रहेगा ,,,,,,लोग बेवक़ूफ़ बनते रहेंगे "! लेकिन असल में वो अपनी तथाकथित कला के माध्यम से जनता की गाढ़ी कमाई की लूटने के बाद समाज को ठेंगा दिखा रहे थे ! शब्द कुछ यूँ होने चाहिए थे " " इस देश में जब तक सलीमा बनता रहेगा ,,,,,,लोग लुटते रहेंगे " !
क्योंकि नशे में कौन नहीं है मुझे बताओ ज़रा ...किसे है होश मेंरे सामने तो लाओ ज़रा !

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बस 

4 टिप्‍पणियां:

  1. aapka parichay kafi roachak laga...barhaal aapki post bhi dilchasp hai..keep going!

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  2. उत्साह वर्धन के लिए धन्यवाद शालिनी जी एवं पारुल जी .

    vishvnath

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  3. बहुत ही उम्दा और सचाई को दर्शाती हुयी पोस्ट ....पोस्ट पढ़कर गैंग्स ऑफ़ वासेपुर का एक डायलॉग याद आ गया ...."जब तक हिन्दुस्तान में सिनेमा है तब तक लोग .... बनते रहेंगे" ....

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