गुरुवार, 13 जून 2013

हुसैन को श्रधांजलि

हर एक जिस्म घायल, हर एक रूह प्यासी ,,, निगाहो में उलझन दिलों में उदासी !
ये दुनियाँ हैं या, आलम-ए-बदहवासी ,,, ये दुनियाँ अगर मिल भी जाये तो क्या हैं !!
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बीती 9 जून को उनकी पुण्यतिथी थी . जितनी ख़ामोशी से वो जीये , जितनी खामोशी से वो मुल्क से रुखसत हुए , जितनी ख़ामोशी से उन्होंने ये दुनिया छोड़ी , उतनी ही ख़ामोशी से 9 जून का दिन और उनके बिना दो साल भी निकल गए ..पता ही नहीं चला .
अपनी आखिरियत में उनके ना चाहते हुए भी मुल्क छोड़ने की मजबूरी , और इसी मजबूरी में जिन्दगी के आखिरी कुछ साल और आखिरी साल में वतन लौटने की तड़प लिए वो इस दुनिया से रुखसत हुए .
उन्हें मारा गया या वो खुद चल बसे ? ये सवाल इस धरती पर तब तक रहेगा जब तक फ़नकारो की कुंचीया रंगों से सराबोर रहेंगी . इंसानी माआशरे और तहजीब की इतनी तरक्की के बावजूद हुसैन साहब की इस तरह अपने वतन से दूर मौत हो जाना ये सवाल छोड़ता है की देशप्रेम के असली मायने क्या है ?? बीते हुए कल से मुद्दे खोज खोज कर निकलना , उन्हें मजहबी रंग देना और फिर उन मुद्दों को देशभक्ति से जोड़कर अवाम के बीच में उतार देना , इस मुल्क के हुक्मरानों का ये शगल हो चुका है .और उस पर अफसोस ये , की आज की पीढ़ी इस शगल को अपनाती है और फख्र के साथ माआशरे में और वर्चुअल दुनिया में अपने दिमागी दिवालियेपन का मुजायरा भी करती है.
चीजो को सतही तौर पर देखना और फिर सस्ते सवालों की बौछार करके बेसिर पैर के तर्कों से बहस जीतने के लिए बहस करना ,ये रिवाज इस मुल्क के युवा वर्ग के सर चढ़ के बोल रहा है आजकल . और इसी रिवाज के चलते हमें उस फ़नकार को खोना पड़ा जिसकी तूलिका पर खुद सरस्वती का वास था .



वो जिए तो अपने मुल्क के लिए , और इसी के लिए तड़प तड़प के मर भी गए . एक बार आशा भोंसले जी ने कहा था की जहा भगवान् भी पैर नहीं रखता वहाँ पर एक बेवक़ूफ़ पैर रख देता है . वो शायद कोई बेवक़ूफ़ ही होगा जो लता मंगेशकर की गायिकी में खामी निकाले , उन्होंने जो गा दिया वो फिजाओं में बिखर चुका है , उसमे कोई खामी नहीं है क्योंकि वो सरस्वती की आवाज है . इसी तरह हुसैन साहब के बारे में कहा जाता है की अगर वो एक बाल्टी में भर कर रंगों को दिवार पर फेंक मारे ,तो भी वो शक्ल तामीर हो जाती है जिसके लिए उनकी कला में मुरीद करोड़ो रुपये लुटा सकते है .और उनके मुरीदो और कला की समझ रखने वालो ने उन पर करोड़ो अरबो रुपये लुटाये भी , लेकिन वो हुसैन ही थे जिन्होंने कहा की अगर ये काम मुझे पैसो के लिए करना होता तो शायद मैं सड़क के किनारे आलू बेच लेता , क्योंकि मेरा रहन सहन और जरूरत के लिए सिर्फ उतना रुपया काफी है जो एक आम मजदूर दिन भर में कमाता है .
आखिर कब तक इस मुल्क के लोग बिना सोचे समझे बिना अपना दिमाग लगाए सियासतदानो के हाथो में खेलते रहेंगे . तीन सौ साल पुरानी इमारत को तोड़ने के लिए खून की नदिया बहा दी गयी, समाज में मज़हबी नफरत  का जहर घोल दिया गया ,बीस साल पुरानी बनायीं गयी हुसैन साहब की तस्वीरो को धार्मिक भावनाओं से जोड़ कर भोली भाली जनता को बेवक़ूफ़ बनाया गया . वो जनता जिसे ना ही कला की समझ है ना ही हमारे इतिहास की .

खजुराहो से लेकर कोणार्क तक और वेदों से लेकर "कुमार संभव" तक में लिखे धार्मिक देवी देवताओं की रतिक्रिया और सम्भोग के वर्णनों (तफ़्सरो ) से भरी पड़ी संस्कृति और उसके असल मायने समझे बिना हम उस कलाकार के पीछे पड़ गए और उसे अपनी धरती छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया । लेकिन वो हुसैन ही थे जिन्होंने अपने मुल्क को दिल में बसाया, मुल्क वापस लौटने की चाह में तड़प तड़प कर मर गए,  लेकिन कला की देवी सरस्वती की अराधना नहीं छोड़ी ,और जिस काम के लिये वो आये थे उसे करते रहे . शायद हुसैन ही भारत के उन चंद लोगो में से थे जिन्हें कला की समझ थी , शायद उन्होंने ही भारत की पुरातन कला को समझा और उसे अपने में उकेरा .और उसे ऐसा अपनाया की उसी के होकर रह गए . जब उन्होंने "सीता " पर अपनी सीरीज बनायी तो  सीता के त्याग से भरे व्यक्तित्व ने उन पर वो असर डाला की सीता की सरपरस्ती में उन्होंने हमेशा के लिए नंगे पैर रहना कबूल कर लिया.


हुसैन साहब पर फैसला सुनाने वाले, उनकी तामीरी तस्वीरो को बर्बाद करने वाले , उनकी सरस्वती के बनाये चित्रों को परखने वालो का क्या तालीमी इल्म था इस कला के बारे में ? हुसैन साहब ने अपनी माँ की तस्वीर या मोहम्मद साहब की तस्वीर बनायी या नहीं ये पूछने वाले किस अधिकार ये ऐसे सवाल कर रहे थे ? और अगर सवाल कर रहे थे तो क्या उन्होंने पहले वेदों को पुराणों  को खंगाल कर देखा की उनमे क्या भरा पडा है ? जिस धर्म में ब्रह्मा ने खुद अपनी बेटी को भोगा , जिस धर्म में इंद्र के किये की सजा अहल्या को मिली , जिस धर्म में सबसे बड़े भगवान् ने अपनी गर्भवती पत्नी को मरने के लिए छोड़ दिया .......क्या हुसैन से सवाल करने वाले लोग इन कथा पीड़ित और शोषित महिलाओं की जगह अपनी माँ बहन या बेटी को रख कर देख सकते है ??

क्या उन्होंने कभी कालिदास की रचना "कुमार संभव" पर सवाल उठाया जो हिन्दुओ के पांच सबसे बड़े संस्कृत की रचनाओं में माना जाता है ? वो कुमार संभव जिसका आठवाँ अध्याय ही पूरा शंकर और पार्वती के सम्भोग के वर्णन से भरा पडा है .
लेकिन हुसैन साहब का सरस्वती की तस्वीर बने का कारण ये सारे धार्मिक ग्रन्थ नहीं थे . वो उनकी कला क्षेत्र का वो बिंदु था जिसे वोही समझ सकता है जिसे उस कला की समझ हो .
हुसैन तो खुद सरस्वती के सबसे बड़े पुत्र थे जिन्होंने भारत के नाम का वो डंका बजाया की आज भी " आर्ट " की पढ़ाई के लिए स्कालरशिप पाकर लन्दन जाने वाले बच्चे "यूनिवर्सिटी ऑफ़ लन्दन आर्ट " में छाती फुला के इसलिए घुमते है की वो उस धरती से आये है जहाँ  हुसैन पैदा हुए थे . उन्हें ये कहते हुए कभी हिचक नहीं होती की "आई ऍम फ्रॉम इंडिया ".....क्योंकि उन्हें हमेशा ये जवाब मिलता है ..."ओह्ह ग्रेट ...इंडिया .."द लैंड ऑफ़ माक्बूल फिडा हुसैन "


हुसैन साहब का देश छोड़ने का फैसला और उनकी मौत असल में हमारी सड़ चुकी संवेदनाओं और फासिस्ट सियासत के असर में डूबी खोखली संस्कृति को दिखता है . और ये भी दिखता है की कैसे आज के पूंजीवादी समाज में जनता को बरगलाने के लिए मुद्दे बनाये जाते है और एक धर्म या जाती विशेष के लोगो को काल्पनिक दुशमन दिखा कर फासिसम का ज़हर फैलाया जाता है . ताकि जनता अपनी परेशानियों की वजह उस धर्म और जाती विशेष के लोगो को माने , ना की इस लूटखोर व्यवस्था के चलने वालो को .
खैर हुसैन साहब को जाना था वो चले गए लेकिन ये विश्वास है की आखिरियत में उनके दुखते दिल में सिर्फ उनका मुल्क  भारत ही रहा होगा . एक नब्बे साल का बुजुर्ग इस नफरत भरी दुनिया से कैसे लोहा लेता , इसलिए शायद उन्होंने मुल्क के प्यार को दिल में बसा कर कला की देवी की उपासना करना ही बेहतर समझा और दुनिया के एक दुसरे कोने में बैठ कर आखिरी वक़्त तक अपने काम को मुक़र्रर रखा जिसके लिए वो आये थे .
राजनीतिज्ञों के हाथो फासिस्ट विचारधारा के प्रभाव में बंधी अज्ञानी जनता की तरफ से हम हुसैन साहब से घुटनों के बल गिर कर माफ़ी मांगते है . हमारी तरफ से हुसैन साब को आंसुओ से भरी श्रधांजलि ...... इस फासिस्ट और शोषणकारी व्यवस्था से लड़ते रहने के निरंतर संकल्प के साथ उन्हें हमारा सलाम .

बस
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