नोट - ये लेख सिर्फ एक समस्या को समझने का प्रयास मात्र है, सिर्फ समस्या का विश्लेषण है , इसे समझने के लिए आपका विवेक जरुरी है !
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पिछले दिनों Facebook !!पोल खोल!! " बोल .. की लब आज़ाद है तेरे " ग्रुप में नक्सलवाद पर काफी कुछ डिस्कस हुआ, कई दोस्तों ने इसके बारे में नेट से जानकारिय छाप छाप कर यहाँ पर पेस्ट करी .और अपने अपने विचार रखे ! अमूमन होता यही है , हम सभी लोग किसी भी बात पर बहुत जल्द यकीन कर लेते है, खासकरके जब वो हमारे पक्ष में या हमरी विचारधारा के हित में की गयी हो .
फिलहाल बात यहाँ की हो रही है नक्सलवाद की , तो इसे समझने के लिए हमें पहले सतही बातो से उठकर कुछ गहराई से सोचना पड़ेगा की ये समस्या क्या है .
इस बात की जड़ छुपी है शब्द "स्वतन्त्रता " में . इस शब्द को अगर हम ध्यान से देखे तो ये दो शब्दों से मिल कर बना है। "स्व और तंत्र " यानी की स्वयं के द्वारा बनाया गया तंत्र या अंग्रेजी में कहे तो सेल्फ मेड सिस्टम . तो आज भारत में प्रमुखतः दो प्रकार के लोग बसते है , एक वो जो भारत को 1947 से एक स्वतंत्र मुल्क मानते है , और दुसरे वो लोग जो ये मानते है की 1947 की घटना एक "स्वतंत्रता "नहीं बल्कि सिर्फ राजनितिक शक्ति का हस्तांतरण था.
स्वतंत्रता शब्द की कसौटी पर अगर हम देखे तो हमारा भारत देश किसी भी द्रष्टि से स्वतंत्र नजर नहीं आता, यहाँ का बजट , यहाँ की सेना , पुलिस और साड़ी नौकरशाही सिर्फ और सिर्फ एक विशेष वर्ग के हितो के लिए काम करती है , ना की आम जनता के लिए,और सिर्फ कहने के लिए जनता को वोट देने का अधिकार, संगठन बनाने और भाषण देने का अधिकार दिया हुआ है जिसे डेमोक्रेसी के रूप में दिखाया जाता है, लेकिन ये भी सिर्फ तब तक ही प्रयोग में रहता है की जब तक आप इस सिस्टम के लिए खतरा नहीं बन जाते, जैसे ही आप इस व्यवस्था के खिलाफ उठ खड़े होते है या सवाल करना शुरू कर देते है तो आपको "सिस्टम के लिए खतरा और यहाँ तक की आतंकवादी या देशद्रोही भी घोषित किया जा सकता है।
कहीं ये लोग वोही तो नहीं जो इस सिस्टम के मुह्ह पर बोलते है की ये मुल्क स्वतंत्र नहीं बल्कि परतंत्र है ..............चलिए शायद लेख के अंत तक ये निष्कर्ष निकल ही जाए।।।देखते है।
जैसा की मैंने कहा की कुछ लोगो मानते है की हमारा भारत देश किसी भी द्रष्टि से स्वतंत्र नजर नहीं है , उनके हिसाब से यहाँ का बजट , यहाँ की सेना , पुलिस और सारी नौकरशाही सिर्फ और सिर्फ एक विशेष वर्ग के हितो के लिए काम करती है, तो आखिर ये कौन सा वर्ग है जिसके लिए साड़ी सेना , नौकरशाही , पोलिस और सत्तारूढ़ पार्टी और विपक्षी पार्टिया काम करती है , और क्यों करती है . और क्या कारण है की वो इस व्यवस्था को बनाए रखना चाहती है .
इन लोगो के हिसाब से 1947 में स्वतंत्रता नहीं बल्कि सिर्फ सत्ता का हस्तांतरण हुआ था, जिसमे अँगरेज़ साम्राज्यवादी अपनी स्टेट भारत को दो टुकडो में बाँट कर अपने लिए काम करने वाले को सौप कर चले गए थे, लेकिन आर्थिक , राजीतिक और उत्पादन व्यवस्था में कोई भी परिवर्तन नहीं हुआ था। अंग्रेजो का यहाँ आना और यहाँ पर अपना राज कायम करने का प्रथम उद्देश्य हमें गुलाम बनाना नहीं बल्कि यहाँ के संसाधनों और सस्ते श्रम की लूट था, जिसके लिया यहाँ की जनता अगर आराम से तैयार हो जाती तो बल प्रयोग की कोई जरुरत नहीं थी और अगर नहीं होती तो वो लोग डंडे से शाशन करने को भी तैयार और अभ्यस्त थे, भारत में उन्हे जब जिसकी जरुरत हुई उन्होने वो तरीका इस्तेमाल किया
तो उस समय भारत में इस व्यवस्था का विरोध करने के लिए दोनों प्रकार के संघर्ष चल रहे थे, एक तरफ वो लोग थे जो इस देश को किसी भी दुसरे के बनाए तंत्र (सिस्टम) से मुक्त करके इसे सच्ची स्वतंत्रता दिलाना चाहते थे, और एक तरफ वो लोग थे जो बिना किसी आर्थिक और उत्पादन व्यवस्था के मालिको को बदले बिना की सिर्फ सत्ता पर कब्जा चाहते थे अंग्रेजो के साथ सहयोग करते हुए . और अंत में 1947 में क्या हुआ ये सबको पता है।
खैर अंग्रेज तो चले गए परन्तु उनका बनाया सिस्टम (उत्पादन व्यवस्था और राजनितिक तंत्र) ज्यो का त्यों बरकरार रहा।और हमारे राजनितिक दल उसके प्रति वफादारी से काम करते रहे 15 अगस्त का साल दर साल जश्न मनाते हुए .
लेकिन इन सबके वावजूद वो क्रांतिकारी वर्ग अब भी ज़िंदा था जो की संघर्ष चलाये रखना चाहता था और सच्ची स्वंत्रता के सपने देखा करता था। इस प्रकार की समझ रखने वाले लोग सबसे ज्यादा भारत की कम्युनिस्ट पार्टी में थे , जिन्होंने अपने निचले कार्यकर्ताओं को ये समझाया की " कोई बात नहीं अब हम भारत में बने हुए इसी संसदीय रस्ते से चलकर सत्ता में पहुच कर अपना स्वयम का तंत्र बनायेंगे और जनता को सच्ची आजादी का सुख देंगे, लेकिन 60 के दशक के अंत तक पार्टी के काम काज और प्रक्टिस को देख कर कई कार्यकर्ताओं के मन में ये शक पैदा होने लगा की ये पार्टी वोही सारे हथकंडे अपना रही है जो की बाकी सभी पार्टिया अपना रही थी जैसे की पूंजीपतियों से पैसे लेकर चुनाव लड़ना और उनके हितो के लिए काम करना , आदि आदि।
इस प्रक्टिस के विरुद्ध कुछ लोगो ने आवाज उठायी और पार्टी से सवाल किया की इस प्रकार आप पूंजीपतियों और शोषणकारी ताकतों के बनाए संसदीय मार्ग से चल कर कैसे व्यवस्था को स्वतंत्र बनायेंगे ?? ये तो फिर एक नयी गुलामी की तैयारी हो रही है जिसमे पूंजीपति वर्ग को ही फायदा होगा ?? आम जनता की स्वतंत्रता के लिए जो जमीनी काम होना चाहिए वो तो आज तक आपने शुरू ही नहीं किया।।??? इस प्रकार के सवालों से भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी घबरा गयी और उन कार्यकर्ताओं का बहिस्कार शुरू कर दिया।
तब उन्ही बहीस्कृत कार्यकर्ताओं ने पार्टी से नाता तोड़ कर पश्चिमी बंगाल से अपना अलग आन्दोलन शुरू किया। इस प्रकार भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से अलग हुए कार्यकर्ताओ "चारू मजूमदार" "जंगल संथाल" और कनु सान्याल के नेतृत्व में बंगाल के तीन गांवो "खाडीबाडी , फांसीदेवा ओर नक्सलबाड़ी नाम के गांव से आन्दोलन की शुरुआत हुई ...जो की आगे चलकर "नक्सलवादी आन्दोलन" कहलाया और इसके कार्यकर्ता "नक्सली" कहलाने लगे।चूंकि ये आन्दोलन उत्पादन व्यवस्था को किसी भी निजी फायदे से अलग रखने में यकीन रखता था और राज्य (नौकरशाही, आर्मी ,पोलिस, और न्यायलय) को सिर्फ इसके रक्षक के रूप में स्थापित करना चाहता था, लेकिन बहुत छोटे स्तर और स्टेट के द्वारा लगाये गये तमाम दवाबो और प्रतिबन्धो के चालते पहले चरण मे भूमि सुधार आन्दोलन चलाया गया जिसके तहत बड़े बड़े जमींदारों से उनकी जमीन लेकर सामूहिक खेती और उत्पादन को बढ़ावा दिया गया, जाहिर है की इसमें जमींदार आसानी से राजी नहीं हुए और राज्य द्वारा कानूनी और गैरकानूनी तरीको से नक्सलियों के खिलाफ हिंसात्मक प्रतिरोध करना शुरू किया ,जिसका नक्सालियो को पहले से ही अंदाजा था और उन्होंने भी इसके लिए अपनी मिलिशिया तैयार करी हुई थी, जिसका उन्होंने जमींदारों की ही भाषा में जवाब दिया । मार्क्स और एंगेल्स के द्वारा लिखित कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो के सिद्धांतो के आधार पर उतपादन के साधनों का राष्ट्रिय करण
और निजी मुनाफे के सिस्टम को ख़तम करने जैसे पवित्र उद्देश्यों को लेकर जब ये आन्दोलन आगे बढ़ा तो सारे देश के युवा वर्ग ने इसे हाथो हाथ लिया और तमाम विद्यार्थी वर्ग भी इसमें कूद पडा,कहा जाता है की उस समय कलकत्ता और दिल्ली और देश के कई बड़े शहरो के सभी रेलवे स्टेशनों पर पुलिस बल लगा दिया गया था जो हर आदमी से खासकरके अगर वो युवा है तो पूरी पड़ताल करने के बाद ही बंगाल जाने वाली गाडियों में जाने की इजाजत देता था। परंतू ये आन्दोलन बजाये कम होने के और विकराल रूप धारण करता गया , उस समय इस आन्दोलन को करीब से देखने वालो से बात करने पर पता चला की कलकत्ता के कई मेडिकल कॉलेज पूरे के पूरे ही खाली हो गए थे जिसके सारे स्टूडेंटस अपनी पढ़ाई बीच में छोड़कर आन्दोलन में शामिल हो गए और नक्सली बन गए। उस समय बंगाल की सरकार और जब पूरे राज्य की पुलिस आन्दोलन को रोकने में नाकामयाब रही तब केंद्र में सत्तारूढ़ इंदिरा गाँधी की सरकार से मदद मांगी गयी , और फिर शुरू हुआ आन्दोलन को कुचलने का एक विभत्स खेल। चूंकि ये वो समय था जब देश की बहुसंख्यक जनता दरिद्रता के दलदल में फंसी हुई थी और राजनैतिक अस्थिरता की वजह से देश में इमरजेंसी के हालात बनने शुरू हो गए थे, जिस वजह से आन्दोलन को कुचलने में सारे नियम कानून को ताक पर रख दिया गया और बंगाल सरकार और केंद्र ने मिल कर दुर्दांत हिंसा का सहारा लेकर आन्दोलन को कुचलना शुरू किया . ये दमन कितना भयंकर था इस बात का अंदाजा आप लगा सकते है की बंगाल के कई गाँवों में उस समय किसी भी युवा वर्ग को जिसकी उम्र 14-15 साल से ज्यादा हो , ज़िंदा नहीं छोड़ा गया था।
इस प्रकार आन्दोलन के एक चरण में 1972 में कामरेड चारू मजूमदार को पकड़ लिया गया , और मात्र 12 दिन में जेल में उनकी म्रत्यु हो गयी (असल में उनकी ह्त्या हुई थी, वो दमे से पीड़ित थे और बिमारी की हालत में उनके मुहह से ओक्सीजन मास्क हटा दिया था ). इस घटना ने आन्दोलन को और भड़का दिया जिससे की वो बंगाल के आलावा और राज्यों में भी फ़ैल गया।
फिलहाल ज्यादा डीटेल में ना जाते हुए बस इतना समझ लीजिये की अंततः आन्दोलन को हिंसात्मक दमन के द्वारा बहुत कमजोर कर दिया गया और नक्सलियो की गतिविधिया बहुत हद तक रोक दी गयी या फिर एक क्षेत्र तक सिमित रह गयी। उसके बाद कई सालो तक खुद नक्सली पार्टी (CPIML) सिद्धांतो और आन्दोलन चलाने के तरीको के अंतरविरोधो के चलते आपसी अंतर्द्वंद में उलझी रही , जिसकी परिणिति ये रही की नक्सली पार्टी खुद कई सारे ग्रुप्स में बंट गयी और अपने अपने प्रभाव क्षेत्र में स्वतंत्र रूप से सामानांतर रूप से अपनी अघोषित शाशन व्यवस्था चलाने लगी।जिसमे 1975 से लेकर 1980तक कई गुट बने और बिगड़े और कई ग्रुप मजबूत भी हुए।अंततः 90 के दशक तक आते आते दो प्रमुख नक्सली पार्टिया सबसे मजबूत अवस्था में अपने को टिका के रह पायी, यें थी माओईस्ट कम्युनिस्ट सेंटर (एमसीसी) और भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) या पीपल्स वार ग्रुप (PWG) . MCC मुख्यतः बिहार और बंगाल में मजबूत थी और PWG आन्ध्र प्रदेश में आदिवासी के हको के लिए लड़ते हुए स्टेट से भी संघर्ष रत थी। लेकिन दोनों पार्टियों के जनता के बीच में काम करने और सिद्धांतो को लेकर अन्तर्विरोध था। और सन 2004 में दोनों पार्टी के नेताओं ने सैधांतिक मतभेदों को दूर करते हुए दोनों पार्टी के विलय के बाद नयी पार्टी की घोषणा करी। जिसका नाम रखा गया " भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी )" या CPI (Mao).
ये पार्टी आज भी भारत को देशी-विदेशी पूँजी का गुलाम मानती है और ये मानती है की जब तक उत्पादन के साधन और उसके वितरण का अधिकार पूंजीपतियों से छीन कर जनता को नहीं दिया जायेगा तब तक भारत की जनता गुलामी से मुक्त नहीं हो सकती। ये पार्टी मानती है की आज के भारत में सभी राजनितिक पार्टिया सिर्फ पूंजीपतियों के दलालों या एजेंटो के रूप में काम करती है , जो की निजी रूप से उनसे पैसा लेती है और सत्ता में आने के बाद कानूनी या गैरकानूनी रूप से भारत के संसाधनों को पूंजीपतियों को कौड़ियो के भाव में बेच देती है। उसके बाद पूंजीपति अपने मुनाफे के लिए जनता के सस्ते श्रम का फायदा उठा आकर अपना मुनाफा कमाता है और अपनी मर्जी के हिसाब से उत्पादन को घटता या बढाता रहता है , इस प्रक्रिया में बहुसंख्यक जनता को घोर गरीबी और बेरोजगारी का सामना करना पड़ता है , जिससे पूंजीपति को कोई सरोकार नहीं होता। और जब जनता इसी से त्रस्त आकर व्यवस्था के खिलाफ उठ कड़ी होती है तो येही पूंजीपति अपनी एजेंट सत्तारूढ़ पार्टी से जनता का दमन करवाता है , सरकार भी पहले तो जनता की ताकत को जाती, धरम और क्षेत्र के नाम पर तोड़ने की कोशिश करती है , लेकिन जब इससे बात नहीं बनती तो वो हिंसात्मक दमन पर उतर आती है .
इस प्रकार के आन्दोलन आज भारत के लगभग हर हिस्से में चलते रहते है लेकिन येही आन्दोलन भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी ) अपनी खुद की हथियार बंध सेना के साथ चलाती है जिसमे बहुसंख्यक रूप से आदिवासी और गरीब मजदूर लोग है। ये आन्दोलन अब तक भारत के 200 से ज्यादा जिलो में फ़ैल चूका है और इसमें लगभग 20 हजार से ज्यादा लड़ाके सशत्र रूप से संघर्षरत है (जो की भारत की थल सेना का लगभग 15-20% के बराबर है ). BBC की एक रिपोर्ट के अनुसार अगर नक्सली इसी संख्या में बढ़ते रहे तो 2050 तक ये लोग भारतीय स्टेट पर रूप से कब्जा कर सकते है, और खुद नक्सलियों के दिवंगत शीर्ष नेता किशन जी का दावा था की वो लोग 2050 से कहीं पहले ये काम को अंजाम दे सकते है .जाहिर है जब किसी ग्रुप के इरादे इतने पक्के और खरनाक हो तो सरकार उनसे एक साथ कई मोर्चो पर लड़ाई करती है , या ये कहे की माओवादी कोई इधर उधर के बहाने ना बनाते हुए सीधे सीधे इस तंत्र को बल पूर्वक उखाड़ फेंकने की बात करते है तो सरकार उन्हें रोकने कमजोर करने और नष्ट करने के लिए हर हथकंडे अपनाती है .
खैर सब अपने अपने दावे करते है - सरकार कहती है की ये लोग बेकसूरों को मारते है , पब्लिक प्रोपर्टी को नुक्सान पहुचाते है , और नक्सली कहते है की हम जनता के लिए लड़ने वाले खुद जनता को क्यों मरेंगे, क्योंकि हमारे लड़ाके और सैनिक तो खुद ही जनता है तो उन्हें मार कर हम कैसे उन्हें अपने साथ ला सकते है , इसलिए ये सरकार के हमें बदनाम करने का षड्यंत्र है। इन्हें रोकने के लिए सरकार कभी रणवीर सेना, सलवा जुदम जैसे राज्य पोषित और अपराधियों के सशत्र संगठन बनवाती है, और कभी खुद किसी फर्जी और तथाकथित नक्सली ग्रुप से जबरन वसूली, बलात्कार और बेकसूरों को मरवाकर नक्सलवादियो को बदनाम करने की कोशिश करती है।
निष्कर्ष के तौर पर ये कहा जा सकता है की ये सबके अपने अपने विवेक पर निर्भर करता है की वो नक्सलियों की प्रक्टिस को सही मानता है या गलत , सरकार को सही मानता है या गलत।
लेकिन आज भी ये सवाल हम सबके सामने मुह बांये खडा है की " क्यों आज तक की सरकारे आदिवासियों का विकास करके उन्हें नक्सलियों की जमात से बाहर नहीं खींच पायी, आखिर क्यों आज भी भारत के हर राज्य के कई क्षेत्रो में हजारो लोग सुबह सुबह जंगल जाते है और लकडिया बीन कर उन्हें बेच कर अपना घर बार चलाते है ,इन्हें आज भी 65 साल बाद आजादी का मतलब नहीं पता चल पाया . और 40 साल में हजारो नक्सलियों को मारने के बावजूद भी भारत में बनने वाली सरकारे आज तक नक्सली विचारधारा को गलत साबित क्यों नहीं कर पायी" जिसका सबूत ये है की आज भी नक्सली दिन-ब -दिन सत्ता और व्यवस्था के खिलाफ और मजबूत होते जा रहे है।
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पिछले दिनों Facebook !!पोल खोल!! " बोल .. की लब आज़ाद है तेरे " ग्रुप में नक्सलवाद पर काफी कुछ डिस्कस हुआ, कई दोस्तों ने इसके बारे में नेट से जानकारिय छाप छाप कर यहाँ पर पेस्ट करी .और अपने अपने विचार रखे ! अमूमन होता यही है , हम सभी लोग किसी भी बात पर बहुत जल्द यकीन कर लेते है, खासकरके जब वो हमारे पक्ष में या हमरी विचारधारा के हित में की गयी हो .
फिलहाल बात यहाँ की हो रही है नक्सलवाद की , तो इसे समझने के लिए हमें पहले सतही बातो से उठकर कुछ गहराई से सोचना पड़ेगा की ये समस्या क्या है .
इस बात की जड़ छुपी है शब्द "स्वतन्त्रता " में . इस शब्द को अगर हम ध्यान से देखे तो ये दो शब्दों से मिल कर बना है। "स्व और तंत्र " यानी की स्वयं के द्वारा बनाया गया तंत्र या अंग्रेजी में कहे तो सेल्फ मेड सिस्टम . तो आज भारत में प्रमुखतः दो प्रकार के लोग बसते है , एक वो जो भारत को 1947 से एक स्वतंत्र मुल्क मानते है , और दुसरे वो लोग जो ये मानते है की 1947 की घटना एक "स्वतंत्रता "नहीं बल्कि सिर्फ राजनितिक शक्ति का हस्तांतरण था.
स्वतंत्रता शब्द की कसौटी पर अगर हम देखे तो हमारा भारत देश किसी भी द्रष्टि से स्वतंत्र नजर नहीं आता, यहाँ का बजट , यहाँ की सेना , पुलिस और साड़ी नौकरशाही सिर्फ और सिर्फ एक विशेष वर्ग के हितो के लिए काम करती है , ना की आम जनता के लिए,और सिर्फ कहने के लिए जनता को वोट देने का अधिकार, संगठन बनाने और भाषण देने का अधिकार दिया हुआ है जिसे डेमोक्रेसी के रूप में दिखाया जाता है, लेकिन ये भी सिर्फ तब तक ही प्रयोग में रहता है की जब तक आप इस सिस्टम के लिए खतरा नहीं बन जाते, जैसे ही आप इस व्यवस्था के खिलाफ उठ खड़े होते है या सवाल करना शुरू कर देते है तो आपको "सिस्टम के लिए खतरा और यहाँ तक की आतंकवादी या देशद्रोही भी घोषित किया जा सकता है।
कहीं ये लोग वोही तो नहीं जो इस सिस्टम के मुह्ह पर बोलते है की ये मुल्क स्वतंत्र नहीं बल्कि परतंत्र है ..............चलिए शायद लेख के अंत तक ये निष्कर्ष निकल ही जाए।।।देखते है।
जैसा की मैंने कहा की कुछ लोगो मानते है की हमारा भारत देश किसी भी द्रष्टि से स्वतंत्र नजर नहीं है , उनके हिसाब से यहाँ का बजट , यहाँ की सेना , पुलिस और सारी नौकरशाही सिर्फ और सिर्फ एक विशेष वर्ग के हितो के लिए काम करती है, तो आखिर ये कौन सा वर्ग है जिसके लिए साड़ी सेना , नौकरशाही , पोलिस और सत्तारूढ़ पार्टी और विपक्षी पार्टिया काम करती है , और क्यों करती है . और क्या कारण है की वो इस व्यवस्था को बनाए रखना चाहती है .
इन लोगो के हिसाब से 1947 में स्वतंत्रता नहीं बल्कि सिर्फ सत्ता का हस्तांतरण हुआ था, जिसमे अँगरेज़ साम्राज्यवादी अपनी स्टेट भारत को दो टुकडो में बाँट कर अपने लिए काम करने वाले को सौप कर चले गए थे, लेकिन आर्थिक , राजीतिक और उत्पादन व्यवस्था में कोई भी परिवर्तन नहीं हुआ था। अंग्रेजो का यहाँ आना और यहाँ पर अपना राज कायम करने का प्रथम उद्देश्य हमें गुलाम बनाना नहीं बल्कि यहाँ के संसाधनों और सस्ते श्रम की लूट था, जिसके लिया यहाँ की जनता अगर आराम से तैयार हो जाती तो बल प्रयोग की कोई जरुरत नहीं थी और अगर नहीं होती तो वो लोग डंडे से शाशन करने को भी तैयार और अभ्यस्त थे, भारत में उन्हे जब जिसकी जरुरत हुई उन्होने वो तरीका इस्तेमाल किया
तो उस समय भारत में इस व्यवस्था का विरोध करने के लिए दोनों प्रकार के संघर्ष चल रहे थे, एक तरफ वो लोग थे जो इस देश को किसी भी दुसरे के बनाए तंत्र (सिस्टम) से मुक्त करके इसे सच्ची स्वतंत्रता दिलाना चाहते थे, और एक तरफ वो लोग थे जो बिना किसी आर्थिक और उत्पादन व्यवस्था के मालिको को बदले बिना की सिर्फ सत्ता पर कब्जा चाहते थे अंग्रेजो के साथ सहयोग करते हुए . और अंत में 1947 में क्या हुआ ये सबको पता है।
खैर अंग्रेज तो चले गए परन्तु उनका बनाया सिस्टम (उत्पादन व्यवस्था और राजनितिक तंत्र) ज्यो का त्यों बरकरार रहा।और हमारे राजनितिक दल उसके प्रति वफादारी से काम करते रहे 15 अगस्त का साल दर साल जश्न मनाते हुए .
लेकिन इन सबके वावजूद वो क्रांतिकारी वर्ग अब भी ज़िंदा था जो की संघर्ष चलाये रखना चाहता था और सच्ची स्वंत्रता के सपने देखा करता था। इस प्रकार की समझ रखने वाले लोग सबसे ज्यादा भारत की कम्युनिस्ट पार्टी में थे , जिन्होंने अपने निचले कार्यकर्ताओं को ये समझाया की " कोई बात नहीं अब हम भारत में बने हुए इसी संसदीय रस्ते से चलकर सत्ता में पहुच कर अपना स्वयम का तंत्र बनायेंगे और जनता को सच्ची आजादी का सुख देंगे, लेकिन 60 के दशक के अंत तक पार्टी के काम काज और प्रक्टिस को देख कर कई कार्यकर्ताओं के मन में ये शक पैदा होने लगा की ये पार्टी वोही सारे हथकंडे अपना रही है जो की बाकी सभी पार्टिया अपना रही थी जैसे की पूंजीपतियों से पैसे लेकर चुनाव लड़ना और उनके हितो के लिए काम करना , आदि आदि।
इस प्रक्टिस के विरुद्ध कुछ लोगो ने आवाज उठायी और पार्टी से सवाल किया की इस प्रकार आप पूंजीपतियों और शोषणकारी ताकतों के बनाए संसदीय मार्ग से चल कर कैसे व्यवस्था को स्वतंत्र बनायेंगे ?? ये तो फिर एक नयी गुलामी की तैयारी हो रही है जिसमे पूंजीपति वर्ग को ही फायदा होगा ?? आम जनता की स्वतंत्रता के लिए जो जमीनी काम होना चाहिए वो तो आज तक आपने शुरू ही नहीं किया।।??? इस प्रकार के सवालों से भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी घबरा गयी और उन कार्यकर्ताओं का बहिस्कार शुरू कर दिया।
तब उन्ही बहीस्कृत कार्यकर्ताओं ने पार्टी से नाता तोड़ कर पश्चिमी बंगाल से अपना अलग आन्दोलन शुरू किया। इस प्रकार भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से अलग हुए कार्यकर्ताओ "चारू मजूमदार" "जंगल संथाल" और कनु सान्याल के नेतृत्व में बंगाल के तीन गांवो "खाडीबाडी , फांसीदेवा ओर नक्सलबाड़ी नाम के गांव से आन्दोलन की शुरुआत हुई ...जो की आगे चलकर "नक्सलवादी आन्दोलन" कहलाया और इसके कार्यकर्ता "नक्सली" कहलाने लगे।चूंकि ये आन्दोलन उत्पादन व्यवस्था को किसी भी निजी फायदे से अलग रखने में यकीन रखता था और राज्य (नौकरशाही, आर्मी ,पोलिस, और न्यायलय) को सिर्फ इसके रक्षक के रूप में स्थापित करना चाहता था, लेकिन बहुत छोटे स्तर और स्टेट के द्वारा लगाये गये तमाम दवाबो और प्रतिबन्धो के चालते पहले चरण मे भूमि सुधार आन्दोलन चलाया गया जिसके तहत बड़े बड़े जमींदारों से उनकी जमीन लेकर सामूहिक खेती और उत्पादन को बढ़ावा दिया गया, जाहिर है की इसमें जमींदार आसानी से राजी नहीं हुए और राज्य द्वारा कानूनी और गैरकानूनी तरीको से नक्सलियों के खिलाफ हिंसात्मक प्रतिरोध करना शुरू किया ,जिसका नक्सालियो को पहले से ही अंदाजा था और उन्होंने भी इसके लिए अपनी मिलिशिया तैयार करी हुई थी, जिसका उन्होंने जमींदारों की ही भाषा में जवाब दिया । मार्क्स और एंगेल्स के द्वारा लिखित कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो के सिद्धांतो के आधार पर उतपादन के साधनों का राष्ट्रिय करण
और निजी मुनाफे के सिस्टम को ख़तम करने जैसे पवित्र उद्देश्यों को लेकर जब ये आन्दोलन आगे बढ़ा तो सारे देश के युवा वर्ग ने इसे हाथो हाथ लिया और तमाम विद्यार्थी वर्ग भी इसमें कूद पडा,कहा जाता है की उस समय कलकत्ता और दिल्ली और देश के कई बड़े शहरो के सभी रेलवे स्टेशनों पर पुलिस बल लगा दिया गया था जो हर आदमी से खासकरके अगर वो युवा है तो पूरी पड़ताल करने के बाद ही बंगाल जाने वाली गाडियों में जाने की इजाजत देता था। परंतू ये आन्दोलन बजाये कम होने के और विकराल रूप धारण करता गया , उस समय इस आन्दोलन को करीब से देखने वालो से बात करने पर पता चला की कलकत्ता के कई मेडिकल कॉलेज पूरे के पूरे ही खाली हो गए थे जिसके सारे स्टूडेंटस अपनी पढ़ाई बीच में छोड़कर आन्दोलन में शामिल हो गए और नक्सली बन गए। उस समय बंगाल की सरकार और जब पूरे राज्य की पुलिस आन्दोलन को रोकने में नाकामयाब रही तब केंद्र में सत्तारूढ़ इंदिरा गाँधी की सरकार से मदद मांगी गयी , और फिर शुरू हुआ आन्दोलन को कुचलने का एक विभत्स खेल। चूंकि ये वो समय था जब देश की बहुसंख्यक जनता दरिद्रता के दलदल में फंसी हुई थी और राजनैतिक अस्थिरता की वजह से देश में इमरजेंसी के हालात बनने शुरू हो गए थे, जिस वजह से आन्दोलन को कुचलने में सारे नियम कानून को ताक पर रख दिया गया और बंगाल सरकार और केंद्र ने मिल कर दुर्दांत हिंसा का सहारा लेकर आन्दोलन को कुचलना शुरू किया . ये दमन कितना भयंकर था इस बात का अंदाजा आप लगा सकते है की बंगाल के कई गाँवों में उस समय किसी भी युवा वर्ग को जिसकी उम्र 14-15 साल से ज्यादा हो , ज़िंदा नहीं छोड़ा गया था।
इस प्रकार आन्दोलन के एक चरण में 1972 में कामरेड चारू मजूमदार को पकड़ लिया गया , और मात्र 12 दिन में जेल में उनकी म्रत्यु हो गयी (असल में उनकी ह्त्या हुई थी, वो दमे से पीड़ित थे और बिमारी की हालत में उनके मुहह से ओक्सीजन मास्क हटा दिया था ). इस घटना ने आन्दोलन को और भड़का दिया जिससे की वो बंगाल के आलावा और राज्यों में भी फ़ैल गया।
फिलहाल ज्यादा डीटेल में ना जाते हुए बस इतना समझ लीजिये की अंततः आन्दोलन को हिंसात्मक दमन के द्वारा बहुत कमजोर कर दिया गया और नक्सलियो की गतिविधिया बहुत हद तक रोक दी गयी या फिर एक क्षेत्र तक सिमित रह गयी। उसके बाद कई सालो तक खुद नक्सली पार्टी (CPIML) सिद्धांतो और आन्दोलन चलाने के तरीको के अंतरविरोधो के चलते आपसी अंतर्द्वंद में उलझी रही , जिसकी परिणिति ये रही की नक्सली पार्टी खुद कई सारे ग्रुप्स में बंट गयी और अपने अपने प्रभाव क्षेत्र में स्वतंत्र रूप से सामानांतर रूप से अपनी अघोषित शाशन व्यवस्था चलाने लगी।जिसमे 1975 से लेकर 1980तक कई गुट बने और बिगड़े और कई ग्रुप मजबूत भी हुए।अंततः 90 के दशक तक आते आते दो प्रमुख नक्सली पार्टिया सबसे मजबूत अवस्था में अपने को टिका के रह पायी, यें थी माओईस्ट कम्युनिस्ट सेंटर (एमसीसी) और भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) या पीपल्स वार ग्रुप (PWG) . MCC मुख्यतः बिहार और बंगाल में मजबूत थी और PWG आन्ध्र प्रदेश में आदिवासी के हको के लिए लड़ते हुए स्टेट से भी संघर्ष रत थी। लेकिन दोनों पार्टियों के जनता के बीच में काम करने और सिद्धांतो को लेकर अन्तर्विरोध था। और सन 2004 में दोनों पार्टी के नेताओं ने सैधांतिक मतभेदों को दूर करते हुए दोनों पार्टी के विलय के बाद नयी पार्टी की घोषणा करी। जिसका नाम रखा गया " भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी )" या CPI (Mao).
ये पार्टी आज भी भारत को देशी-विदेशी पूँजी का गुलाम मानती है और ये मानती है की जब तक उत्पादन के साधन और उसके वितरण का अधिकार पूंजीपतियों से छीन कर जनता को नहीं दिया जायेगा तब तक भारत की जनता गुलामी से मुक्त नहीं हो सकती। ये पार्टी मानती है की आज के भारत में सभी राजनितिक पार्टिया सिर्फ पूंजीपतियों के दलालों या एजेंटो के रूप में काम करती है , जो की निजी रूप से उनसे पैसा लेती है और सत्ता में आने के बाद कानूनी या गैरकानूनी रूप से भारत के संसाधनों को पूंजीपतियों को कौड़ियो के भाव में बेच देती है। उसके बाद पूंजीपति अपने मुनाफे के लिए जनता के सस्ते श्रम का फायदा उठा आकर अपना मुनाफा कमाता है और अपनी मर्जी के हिसाब से उत्पादन को घटता या बढाता रहता है , इस प्रक्रिया में बहुसंख्यक जनता को घोर गरीबी और बेरोजगारी का सामना करना पड़ता है , जिससे पूंजीपति को कोई सरोकार नहीं होता। और जब जनता इसी से त्रस्त आकर व्यवस्था के खिलाफ उठ कड़ी होती है तो येही पूंजीपति अपनी एजेंट सत्तारूढ़ पार्टी से जनता का दमन करवाता है , सरकार भी पहले तो जनता की ताकत को जाती, धरम और क्षेत्र के नाम पर तोड़ने की कोशिश करती है , लेकिन जब इससे बात नहीं बनती तो वो हिंसात्मक दमन पर उतर आती है .
इस प्रकार के आन्दोलन आज भारत के लगभग हर हिस्से में चलते रहते है लेकिन येही आन्दोलन भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी ) अपनी खुद की हथियार बंध सेना के साथ चलाती है जिसमे बहुसंख्यक रूप से आदिवासी और गरीब मजदूर लोग है। ये आन्दोलन अब तक भारत के 200 से ज्यादा जिलो में फ़ैल चूका है और इसमें लगभग 20 हजार से ज्यादा लड़ाके सशत्र रूप से संघर्षरत है (जो की भारत की थल सेना का लगभग 15-20% के बराबर है ). BBC की एक रिपोर्ट के अनुसार अगर नक्सली इसी संख्या में बढ़ते रहे तो 2050 तक ये लोग भारतीय स्टेट पर रूप से कब्जा कर सकते है, और खुद नक्सलियों के दिवंगत शीर्ष नेता किशन जी का दावा था की वो लोग 2050 से कहीं पहले ये काम को अंजाम दे सकते है .जाहिर है जब किसी ग्रुप के इरादे इतने पक्के और खरनाक हो तो सरकार उनसे एक साथ कई मोर्चो पर लड़ाई करती है , या ये कहे की माओवादी कोई इधर उधर के बहाने ना बनाते हुए सीधे सीधे इस तंत्र को बल पूर्वक उखाड़ फेंकने की बात करते है तो सरकार उन्हें रोकने कमजोर करने और नष्ट करने के लिए हर हथकंडे अपनाती है .
खैर सब अपने अपने दावे करते है - सरकार कहती है की ये लोग बेकसूरों को मारते है , पब्लिक प्रोपर्टी को नुक्सान पहुचाते है , और नक्सली कहते है की हम जनता के लिए लड़ने वाले खुद जनता को क्यों मरेंगे, क्योंकि हमारे लड़ाके और सैनिक तो खुद ही जनता है तो उन्हें मार कर हम कैसे उन्हें अपने साथ ला सकते है , इसलिए ये सरकार के हमें बदनाम करने का षड्यंत्र है। इन्हें रोकने के लिए सरकार कभी रणवीर सेना, सलवा जुदम जैसे राज्य पोषित और अपराधियों के सशत्र संगठन बनवाती है, और कभी खुद किसी फर्जी और तथाकथित नक्सली ग्रुप से जबरन वसूली, बलात्कार और बेकसूरों को मरवाकर नक्सलवादियो को बदनाम करने की कोशिश करती है।
निष्कर्ष के तौर पर ये कहा जा सकता है की ये सबके अपने अपने विवेक पर निर्भर करता है की वो नक्सलियों की प्रक्टिस को सही मानता है या गलत , सरकार को सही मानता है या गलत।
लेकिन आज भी ये सवाल हम सबके सामने मुह बांये खडा है की " क्यों आज तक की सरकारे आदिवासियों का विकास करके उन्हें नक्सलियों की जमात से बाहर नहीं खींच पायी, आखिर क्यों आज भी भारत के हर राज्य के कई क्षेत्रो में हजारो लोग सुबह सुबह जंगल जाते है और लकडिया बीन कर उन्हें बेच कर अपना घर बार चलाते है ,इन्हें आज भी 65 साल बाद आजादी का मतलब नहीं पता चल पाया . और 40 साल में हजारो नक्सलियों को मारने के बावजूद भी भारत में बनने वाली सरकारे आज तक नक्सली विचारधारा को गलत साबित क्यों नहीं कर पायी" जिसका सबूत ये है की आज भी नक्सली दिन-ब -दिन सत्ता और व्यवस्था के खिलाफ और मजबूत होते जा रहे है।
धन्यवाद रजनीश जी ..
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Vishvnath