6 दिसंबर 1992 में बाबरी मस्जिद के गिरने के बाद सितम्बर 1994 में शेखर कपूर की बहुप्रितिक्षित फिल्म "बैंडिट क्वीन" रिलीज हुई थी।
ये वो समय था जब हिन्दू (अंध) देशभक्ति अपने पूरे उफान पर थी।और हर शहर कस्बो के मोहल्लो के निठल्ले नकारा चौराहो चौपालों पर सारा दिन आती जाती लडकियों और मोहल्ले की आशिकी की गप्पे हाकने वाले युवा वर्ग के लोग भी मत्थे पर तिलक लगाए पकिस्तान और मुसलमानों को गालिया देते अपनी देशभक्ति की भावना को प्रबल करते रहते थे।
असल में देखा जाए तो 1991 से लाकर 1995 तक 5 साल का समय काल इस मुल्क के लिए वो तासीर देकर गया था जिसका असर हम लोग अब तक भुगत रहे है और शायद आने वाले कई सालो तक भुगतेंगे।इसी काल खंड में कांग्रेस के विद्वान् मनमोहन सिंह जी ने आर्थिक उदारीकरण के तहत देश के दरवज्जे विदेशियों के लिए खोले थे और बोल था की आर्थिक उदारीकरण और विनिवेश की शुरूआती टीथिंग प्रॉब्लम के बाद आने वाले 15-20 सालो में देश विकराल उन्नत्ति के शिखर पर होगा. इन्ही दिनों भगवान् राम की भक्ति का वो प्रचंड काल खंड भी आया था जो शायद त्रेता युग में खुद राम चन्द्र के काल में भी नहीं था . जय श्री राम और राम लल्ला हम आयेंगे मंदिर वही बनायेंगे के नारे बच्चे बच्चे की जुबान पर थे।
इसी 5 साल के काल खंड में " बैंडिट क्वीन " फिल्म समाज के भिन्न भिन्न वर्ग के लोगो को अपने अपने कारणों से अच्छी लगी थी . सबसे पहले तो ये फिल्म में धुर गालियों के समावेश का पहला प्रयोग था .और तमाम लोग पहली बार परंपरागत गालियों को भिंड -मुरैना और कानपुर देहात की गवई भाषा की स्टाइल में देने के रूबरू हुए थे .
कई हिंदूवादी लोगो ने उस समय फूलन देवी को दुर्गा और चंडी का रूप बताया था, लेकिन सिर्फ तब तक,जब तक की उन्हें मुलायम सिंह की पार्टी का टिकेट नहीं मिला था, सांसद बनते ही उन्हें फिर से नीच जात की कैटेगिरी में डाल दिया गया। जिसकी परिणिति भी उन्हें अपनी जान देकर चुकानी पड़ी और शेर सिंह राणा उर्फ़ पंकज सिंह को दूषित हिन्दू अपर कास्ट लोगो के बहुत बड़े तबके की मौन स्वीकृति मिली . आज जो लोग दिल्ली गंग रेप पीडिता के दोषियों को फांसी देने की वकालत कर रहे है वोही तमाम लोग शायद पंकज राणा के पवित्र उद्देश्य के लिए उसे सहारते थे जिसमे वो अफगानिस्तान से एक प्रेम विक्षिप्त अय्याश राजा की अस्थिया लाने की प्रतिज्ञा करता था.
"गौरहा का पुरवा" गाँव की मल्लाह जात की वो बच्ची जिसका 11 साल की उम्र से रेप होना शुरू हुआ था , मरने के बाद भी तमाम आरोपों के बाद शायद अपनी खुंदक और सामन्ती शोषण में गुंथी इस व्यवस्था को उखाड़ फेकने के लिए बन्दूक की नली से न्याय निकलने के लिए गला फाड़ फाड़ के चिल्ला रही है .
"खूब रगड़ाई करी होगी तेरी .....बता तो जरा ....अब ये बताएगी थोड़ी ,,करके दिखाएगी " ये "बैंडिट क्वीन" का वो संवाद है जिसे 70 के दशक में डिस्टिक जालौन के गाँव का वो दारोगा बोलता है जिसके पास खुद चम्बल के डैकैत फूलन को बलात्कार के बाद छोड़ जाते है। लेकिन सामंतवादी मकडजाल कितना मजबूत होता है ये शायद आपको तब पता चले जब आप येही संवाद असल जिंदगी में अपने शहर के हाइवे से 15-20 किलोमीटर दूर दाए बाए बसे गाँव के थानों में कुछ दिन कान लगाए और कोशिश करे सुनने की .और अगरज्यादा दूर नहीं जाना तो इस लहजे के अल्फाज आप दिल्ली में तिमार् पुर और जहांगीरपुरी जैसे राजधानी के थानों में भी सुन सकते है।
असल में सामंतवाद और पूंजीवाद के उत्पादन के औजारों की भिन्नता को अगर छोड़ दिया जाए तो शोषण की व्यवस्था को टिकाये रखने के लिए यहाँ रूलिंग क्लास ने हर कदम पर अपनी खरपतवार पैदा की है जो इस शोषण के जंगल को हरा भरा बनाए रखती है . इसी खरपतवार के झंडाबरदार आपको पान सिंह तोमर में कभी भंवर सिंह "दद्दा" के रूप में देखने को मिलता है , कभी वोही रूप श्री राम और लाला राम की शकल में बैंडिट क्वीन में दीखता है. और खोसला का घोसला में किशन खुराना प्रोपर्टी वाले के रूप में . येही वो खरपतवार है जो क्रांतिकारी जनता के संघर्ष को कुचलने का पहला हथियार होती है , जिसे फ़िल्म चक्रव्यूह में महानता ग्रुप के मालिक का लड़का आदिवासियों को कुचलने के लिए तैयार करता है .
ऐसे में अगर फूलन देवी जैसी लड़की बेहमई में तथाकथित अपर कास्ट के हत्याकांड को अंजाम देती है तो शायद ये उसी आक्रोश का हिस्सा है जिसमे राष्ट्रपति चौक के खम्बो पर चढ़कर आज के दौर की लडकिया दिखा रही है .लेकिन फूलन देवी की घटना को भी अगर 1947 के बाद की पहली घटना मान लिया जाए तो शायद ये सोचने वाली बात है की लगभग 40 साल बाद भी समाज में ऐसी घटनाएं अबाध गति और संख्या में हो रही है . इसके लिए किसे जिम्मेदार माना जाए कांग्रेस , बीजेपी , बाकी राजनितिक दल और गन्दा कल्चर , लचर कानून , दारूबाजी , या मुनाफे पर आधारित इस ढाँचे को, जो लगभग हर चीज को बेचने की कोशिश करता है।
जैसे की मीडिया की भरसक कोशिश के बाद भी लड़की का नाम नहीं पता चलने की सूरत में पहले उसे एक नाम दिया गया , फिर जैसे जैसे उसकी हालत बिगडती गयी उसकी हर खबर को कवर करने के लिए न्यूज़ चैनलो ने सारे करमचारियो की छुटिय्या कैंसिल कर दी, और जिस दिन उस लड़की ने दुनिया छोड़ी, बुद्धू बक्से पर दर्दीली कविताओं और सर झुकाई आंसुओ से भरी लड़की के छाया चित्र दिखाने की होड़ सी मच गयी।
जो लोग ये बोलते है की मीडिया जागरूकता फैलता है ...उनसे शायद इस बात का हिसाब माँगा जाना चाहिए की 16 दिसम्बर की दिल्ली गैंग रेप घटना के बाद अब तक 30 से ज्यादा हो चुके गैंग रेप की न्यूज़ कवर करने के लिए मीडिया किन किन गाँवों में गया ? या शायद हमें 15- 20 साल इन्तेजार करना पड़ेगा जब कोई और शेखर कपूर जयपुर की 11 साल की नूर के ऊपर फिल्म बनाएगा .
असल समस्या ये शोषण पर आधारित सामन्ती-पूंजीवादी व्यवस्था है जिसमे रूलिंग क्लास ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाने के लिए समाज में दुर्दांत आर्थिक अंतर को पैदा करके अपने शोषणकारी प्यादे को हर चौराहे पर खड़ा करता है . और जनता के आक्रोश को दबाने के लिए गाहे बगाहे एक दो आरोपियों को फांसी जैसी सजा भी दे देता है . लेकिन वो गर्भ गृह हमेशा सुरक्षित रहता है जिसमे से ये सारी समस्याए पैदा होती है ,
ये साम्रज्यवाद की छत्रछाया में उसके कपूतो पूंजीवाद और सामन्तवाद की रची वो मकडजाल है जिसमे गैंग रेप पीडिता के खबर के बीच बीच में क्रिकेट के नए भगवान् विराट कोहली मोबाइल से लड़की पटाने के तरीके बताते है और दुसरे विज्ञापन में एक लड़की फ़ोन पर कोंडोम के डीफ्रेंट डीफ्रेंट फ्लेवर ऑर्डर करती है।
रेप काण्ड के विरोध के साथ साथ चलती ये बाजारवादी सभ्यता इस व्यवस्था को मंजूर है लेकिन जब तक कोई एक लड़की सोनी सोरी बनी रहती है तो मिडिया के हिसाब से वो भारत के जनतांत्रिक मूल्यों का सम्मान करती है ..लेकिन जिस दिन वो फूलन या दंतेवाडा की आदिवासी की तरह बन्दूक उठाती है ,,,तब वो एक डैकैत या आतंकवादी घोषित करी जाती है, जिसका समर्थन आज के तथाकथित फेस्बुकिये विद्वान् भी करते है जो रात दिन दिल्ली के गैंग रेप आरोपियों को सरेआम फांसी पर चढाने के लिए बोलते है।
जो भी हो ....टुकडो टुकडो में होने वाली इन क्रांतियो को जोड़कर ही शायद किसी दिन इस अर्ध सामंती अर्ध पूंजीवादी ढाँचे के लिए कफ़न तैयार होगा . इस सोच के साथ की शायद फूलन ने जो भी किया,,,,,,,,वो सही था।
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